प्रकाशन संस्थान
प्रकाशन वर्ष : 2012
नये कविता संग्रह
संगत
से
कुछ कवितायें
'मिट्टी के फल' और
'कोई नया समाचार'
के बाद यह नया कविता
संग्रह 'संगत'
हाल ही में प्रकाशन
संस्थान से आया है
। पिछले दोनों संग्रहों की तरह इसमें भी लीक से हट कर यानी
एक खास तरह से आम हो गयी प्रचलित कविताई से अलग कुछ रचने का प्रयास है ।
दिन दिन सिकुड्ती जा रही सयानी और हिसाबी दुनिया के बीच सीधे सरल सह़दय लोगों के
जीवन की अत्यंत आत्मीय और जीवंत छवियॉं हैं यहाँ । उनकी अदम्य जिजीविषा और
जीवनराग - जो उन्हें जोड़े रखता है... और उस जीवन की धाप से गूँजता वह घर और उसे
सहेजता परिवार जो बाहर कुछ सार्थक संभव करने का सत्व व सामर्थ्य भीतर भरता है । कई
लोगों ने कहा है कि पिता के जीवन के
अंतिम वर्षों के दौरान
उनके सानिध्य के जैसे गहन
आत्मीय एवं मर्मस्पर्शी चित्र
प्रस्तुत संग्रह में हैं
वे हिंदी कविता ही
नहीं, संभवतः विश्व कविता
में भी दुर्लभ हैं
। साथ ही साथ पिता के जीवन सत्य की तरह मौजूद है माँ – जीवनसंगिनी से जीवनरक्षिणी और जीवनदायिनी होती हुई । समवय में अपने साथी
को देखती सँभालती उस स्त्री का संघर्ष इन कविताओं में एक अलग संदर्भ जोड़ता है ।
प्रस्तुत हैं इस कविता संग्रह से कुछ कवितायें
प्रेम रंजन अनिमेष
अभिनव
गोल
दादी... !
अम्मा
को वे पुकारते
गोलू
की दादी
हमारी
माँ कहते होंगे पहले
कहते
ही थे याद है
अच्छा
है इस तरह
रिश्तों
को जो सबसे छोटे
हैं
उनसे
जोड़ना उनसे बाँधना
सबसे
पुराने के साथ सबसे
नया
दो
छोरों को ऐसे थामना
कि
उनके बीच आ जाये
जीवन सारा
यूँ
ही बढ़ती जाये जीवन
की चाप
ढूँढ़ते
हुए किसी बिसरे गीत
की तोतली टेक...
अनुभव
आदमी
जब हो जाता बूढ़ा
आदमी
जब पड़ता है बीमार
तब
महसूस होता उसे
अपना
भार
उतना
अच्छा
जितना
कम रहे
बोझ
इस देह का
सीधा
सादा सूत्र यह
जब
हो चले अशक्त
सहारा
दिये नित्यकर्म के
लिए ले जाते
एक
छोटे बच्चे ने भी
रखे
यही विचार...
अनिवार
रात
दिन माँ जुटी रहती
उनकी
देखभाल में
इसके
बिना
कठिन
होता
जी
पाना
स्त्री
का
होना
जरूरी
जीवन
को सेने सँजोने
बचाने
बढ़ाने
के लिए
बचपन
और बुढ़ापा
एक
से मासूम एक जैसे
लाचार
दोनों
को चाहिए
वही
दुलार वही सँभार वही
सरोकार
क्या एक स्त्री को
अपने
आखिरी वक्त में
मिलेगी
एक
स्त्री...?
नयी कहन
आधी
गोली
खानी
है एक
आधा
लेकर
आधा
खोल
में डाल
बढ़ा
देते माँ को
इसे
चपेत कर रख दीजिये
दवा
चपेत दूँ ?
हँसी
आती माँ को
नहा
लीजिये अब
हँसी
ओड़ती वह कहती
पानी
बना दिया ?
फिर
उनका पूछना
हँसते
हँसते पानी छलका देता...
बात
ऐसे
ही बैठे रहते
गाल
पर हाथ दिये
कुछ नहीं कहते
उन्हें
देखने आयीं मौसी
निहार
रहीं
मैं
तो इन्हें अब भी
उसी
रूप में देखता हूँ
....
जब
बोलते थे
पिताजी
कहा करते
उसी
रूप में
जैसा
पहली बार देखा होगा
जब
खत किताबत होती थी
पाती
में रचे जाते गीत
छंद
सन केश सलटाती
मौसी
सुनातीं कोई बंद
वही
रूप यानी किसी बिसरे
गीत का मुखड़ा
साली
आयी हैं
कुछ
तो बात कीजिये
हम
बढ़ावा देते
क्या करें अब
बस
हो
गयी बात
हँसते
वे सकुचाते
जैसे
ठिठके पहले पहल
प्रीत
के अंत और शुरुआत
शब्द
ज्यादा नहीं देते साथ
छोड़
देते हाथ...
सोत
पिता
की उम्र के बारे
में
बात
होती
तो
माँ कहती
इनकी
अम्मा बोलती थीं
तीन
साल के थे
जब
धरती डोली
फिर
पल्लू मुँह में खोंस
हँसती
- तीन
साल में ही
धरती
डोला दिया...
किसी
स्त्री की जिंदगी में
कितनी
होती हँसी ऐसी
जिंदगी
अगर वह
सचमुच
जिंदगी होती...
गीले बोल
एक दिन
इसी
तरह चली जायेगी जान
छूट
जायेंगे प्राण
फिर
नहलाती रहना इस देह
को...
पानी
के परसते
ऐसे
बोलते
कि
निःशब्द हो जाती माँ
बिना
बोले
नहीं
नहाते
सबको
उम्मीद है
जब
अंतिम स्नान की
हो
रही होगी तैयारी
तब
भी
इसी
तरह उठकर बोल पड़ेंगे...
!
अपूर्ण अविराम
हर
शाम
अंतिम
प्रणाम
हर
भोर
नयी
नकोर
एक
नया जन्म
नयी
टेक
नयी
कथा
अपूर्ण
अविराम...
पक्ष
कोई
मेरे पक्ष में नहीं
घर
में सबके पास जाकर
कहते
मैं
हूँ ना
एक
बच्चा अपने नन्हे हाथ
बढ़ा
उनकी
लंबी नाक पकड़ता
कभी
गाल पर हल्की सी
चपत लगा देता
ठीक है
कभी
कभी बच्चों से
चपत
खा लेना अच्छा
जीवन
आपके पक्ष में है
इससे
पता चलता...
सूचक
पुराना
हो चला है
चलता
है
तो
आवाज करता
यह
पंखा
और
यह रेडियो
एक
हल्की घरघराहट
लगी
रहती इसमें लगातार
बजते
गीत के आरपार
फिर
गीत नहीं
उस
विचलन पर टिक जाता
ध्यान
उसी
तरह होने लगी है
आजकल
इस
जीवन के भी
चलने
की आवाज
अच्छा
यंत्र उसे माना जाता
जिसके
चलने का
न
चले पता...
संगत
जहाँ
का तहॉं
हो
जाता
पहुँच
पाते कहाँ
ठिकाने
गोबर
की तरह
उठाती
माँ
कपड़े
से रगड़ रगड़
फिर
पोंछती
सच्चा
संगी
वही
जो
वक्त आने
जरूरत
पड़ने पर
हो
जाये भंगी...
भोर के लिए
सवेरा
हो गया...?
पूछते
सरे शाम
क्या सुबह शाम का
भेद
मिट गया
यह
रात से
डर
है
या
भोर के लिए
इस
उम्र में
जागी
एक
नयी ललक
नयी
बेचैनी ?
यह
छटपटाहट ही तो
चीरती
धुंध को
ले
जाती अँधेरे से रोशनी
तक
सुबह
होती है
और
कैसे...
टेक
ठक ठक
लाठी
टेकते
घूमते
घर
के गलियारे में
ठकठक बाबा
लाठी
की टेक सुन कहते
आसपास
के नन्हे मुन्ने
इस
वय में
एक
नया नाम मिल गया
मुझे
लगता
जब
नहीं रहेंगे वे
और
कहने वाले भूल जायेंगे
तब
भी रहेगी
उनकी
यह गूँज
घर
के चारों ओर
और
यह नाम
एक
बड़े को
किसी
बच्चे का
दिया
नाम...
विहंगम
खूब
महीन नोक वाली
पेंसिल
की
पतली
रेख सी
वह
कराह हल्की
और
फैली खिंची भरी
आँखें
एक
बार जैसे
पूरे
जीवन को देखतीं...
बोहनी
उसे
क्या पता
सुबह
सुबह
पूछने
आ गयी
फेरीहारिन
मेथी
धनिया पुदीना
कुछ
लेना है क्या...?
नहीं
कुछ
नहीं
आज
के लिए था
एक
ही सौदा
वह हो गया
सौदा
एक जीवन का...
अनमन
पिता
मुक्त होकर चले गये
तो
माँ को भी
मुक्ति
मिल गयी
अब
हर घड़ी
किसी
को देखने अगोरने की
माया
नहीं
हम
बेटों में से
किसी
के यहाँ
मन
मरजी
आ
जा सकती
मेरे
पास आयी
तो
मैंने आँखें बनवा दीं
जो
दिनों से पक गयी
थीं
ऑपरेशन
के बाद
जाँच
के लिए डॉक्टर ने
अक्षर
पढ़वाये
वह
सब पढ़ गयी
बस
सबसे नीचे के
दो
छोटे अक्षर
छोड़कर
म
और न
मन
ही रह गया
मैंने
हँसकर कहा
जैसा
होता
स्त्रियों
में
इतना
अपनापन
कि
छूट जाता
अकसर अपना
मन...
साक्ष्य
रफ्तार बढ़ गयी
रफ्तार बढ़ गयी
कहते
हैं
अब
छोटी हो गयी यह
दुनिया
दुनिया
छोटी
तब
होती
दिल
जब होता बड़ा
दिल
कितना बड़ा
दुनिया
छोटी कितनी
इसका
पता
इस
बात से चलता
खबर
पाकर
या
फिर यूँ ही
मन
की दस्तक पर
मिलने
किसी से
कितनी
दूर जा सकते...
छुट्टा
सौ
का दुख
लेकर
घूम रहा
दुनिया
के बाजार में
क्या करूँ
मेरे
पास
छुट्टा
नहीं...
अनुभूति
उस
दिन के बाद से
बाहर
से लौटकर जब भी
उतारता
हूँ कमीज अपनी
घर
में भर जाती
गंध
पिता के पसीने की...
जीवन पथ
किताबें ढूँढ़ते
दराज
से
मिलता
तुम्हारा चश्मा
जैसे
रास्ता चलते
दृष्टि
तुम्हारी...