सोमवार, 28 जुलाई 2014

कुछ जलचित्र कुछ जलचिह्न



    पिछले महीने स्‍टुटगार्ट में काव्‍य पाठ का जो अनुभव साझा किया था सुहृ़द सौजन्‍य से उसके बारे में इस जर्मन ब्‍लॉग का लिंक ( http://www.gablenberger-klaus.de/2014/06/07/newsletter-juni-2014-des-foerderverein-alte-schule-rohracker-e-v/ ) प्राप्‍त हुआ है जिसमें उस आयोजन का उल्‍लेख है ।

    इस बीच अपने यहाँ सूखे के आसार के बाद कई प्रदेशों में बाढ़ की स्थिति हो गयी है । ऐसा लगभग हर साल देश में कहीं न कहीं होता रहता है :

                 अनावृष्टि से स्थिति
                 सीधे अतिवृष्टि तक पहुँच जाती है

                 यहाँ बीच की
                 जमीन नहीं...!

कभी यह कविता लिखी थी जो  'एक और वर्षा वर्णन' श्रृंखला के अंतर्गत प्रकाशित हुई थी । अपने कुछ ऐसे ही काव्‍य चित्र इस बार रख रहा हूँ जिनमें से कुछ कवितायें 'नया ज्ञानोदय' एवं 'सतह' में शायद आपने देखी होंगी

                         - प्रेम रंजन अनिमेष
  


                बाढ़ से घिरे गाँव :
           कुछ जलचित्र कुछ जलचिह्न
                   
  1
                                         

कोशिश

देखता हूँ
अपनी कागज की
नाव हटा कर

क्या इससे
कुछ कम होता है
जलस्तर...

  2
                                       

पंचनामा

आग धधक रही थी पहले से

फिर माटी पर
पानी फिरा
पानी पर पवन

टूटा नहीं आसमान...
सरकार का बयान

  3
                                                         
सवाल

कितना कुछ धुला
कितना बह गया
इस बारिश में

मगर कहाँ बहे
जस के तस रहे

औरतों के आँसू
भूखों की लाचारियाँ
आम अवाम की परेशानियाँ...

  4
              

वाकिफ

उसका आना तय था
पर कोई तैयार था

यह आसपास का
ऐसा खेल था
जिसमें हर कोई पकड़ा गया...

  5
          
                                      
समता

भीतर तक हैं तर सब

एक समान हो गये
खड्डे रास्ते नाले
यहाँ से वहाँ तक
भेद कोई नहीं

यह धरती पर
समानता लाने की
कोशिश आसमानी...!


  6
             

रहनुमा

क्या जमीन पर
कोई नहीं ?

आसमान बरस रहा है
और सब
आसमान की ओर ही
देख रहे...  

  7
                                     

दृष्टि

नीचे
प्रलय का
प्रवाह था

कुछ लोग
ऊपर देख रहे थे
इंद्रधनुष...


  8
                                                       

विडंबना

डूबी बस
अपनी ही धरती

बाकी तो
वैसा ही सूखा

आँखों में वैसी ही रेती
सारा कुछ ज्यों का त्यों परती...


  9
                                         

प्रतिश्रुति

उधर बूँदें पड़नी
शुरू होतीं
बद बद

इधर चालू हो जातीं
बूढ़े मन की बुद बुद...

 10
                                       

डोलना

जैसे कोई बच्चा किसी बड़े कटोरे को
हिला रहा

कम नहीं हो रहा पानी

खाली इधर से उधर
जा रहा...
                                 
 11
                             

उतार

आखिर पानी उतरा
पर कहीं और का कहाँ

घर का
देहरी का
देह का
चेहरें का
आँखों का

रास्ता कोई तो फिर भी नहीं खुला...

 12
                                   

अपील

इतना पानी
दाह लगा है

उधर नेताजी निवेदन कर रहे
भावनाओं में मत बहिये...
 13
                              

दावा

हवा से
राहत बाँटते
हाथ हिलाते
जनप्रतिनिधि कहते जाते

इस मुश्किल की घड़ी में
हम आपके साथ हैं...


 14
                                       

आगा पीछा

इस आपदा के पीछे
किसका हाथ हो सकता है... ?

पानी के पीछे
भला हाथ किसका होगा

बात सीधी सी है
पानी आया ही इसीलिए

कि नहीं था कोई हाथ
आगे पीछे...            

 15
                                      

राजी खुशी

कुछ दिन तड़पे चिल्लाये
फिर धीरे धीरे
स्वीकार कर लिया सबने

लगे हुए पानी को
बढ़े हुए दामों को
बीमारी लाचारी को

जैसे सिसकियों के बाद
स्वीकार कर लेती
आदमी को औरत
दुलहन ससुराल को...


 16
                                          

विजयनाद

जयघोष हुआ

राजपथ से
पानी निकल गया था

गलियों को भला कौन पूछता

एक अकार लग जाये
तो वे गालियाँ हो जातीं...


 17
                                          

निपट

कभी सूखा
उघाड़ देता
एकबारगी

कभी बाढ़
लपेट लेती

मगन है गाँव
जलमग्न

कोई देख नहीं पायेगा
भीतर भीतर
वह कितना नग्न...

 18
                                                                                            

भला

इस पक्ष पर भी गौर करिये
कुछ सकारात्मक भी सोचिये
हुकूमत कहती है

देखिये तो
कितनी आसानी से
बाढ़ में बहते बहते
घर तक मछलियाँ
चली आती हैं...!


 19
                              

भरोसा

लौट रही
राहत की सवारी

देखो लिखा हुआ पीछे
फिर मिलेंगे
अगले सैलाब में...


 20
                              

ध्यान

हाकिम सोचिये
व्यग्र होकर कहा मुलाजिमों ने

इतनी जल्दी पानी निकाल देंगे

तो लोग अपना बहुत कुछ
छान नहीं पायेंगे...


 21
                                       

जनश्रुति

अगले दिन की खबरों में
चर्चा खूब हुई
दौरा था आसमानी
हवाई जहाज से थे देख रहे जनप्रतिनिधि

फिर भी आँखों को उनकी
छू गया पानी...

 22
                                                                                             

बसर

पानी से भरे
खाली घरों में
देवता थे

ताक पर
घुटनों तक
धोती ऊँची किये...


 23
                                             

मार

बंधु
जैसे भी हों
हालात

गौर करो तो
हर समय
मौजूद है
वह लात

जो पड़ती हमेशा
गरीब के ही पेट पर...


 24
            

एक टेक

छाते नहीं
छत भी नहीं
पास अपने

बारिश धूप शीत के
मुकाबले

ऊँचा सिर
छाती चौड़ी

और होंठों पर
गीत एक टुकड़ा...


 25
                                                        

व्यवस्था

बाँध पर ठहरे
लोग इतने
जाने कब से
सरकार ने
बाँध ये
शायद इसीलिए बनाये

एक ओर
इतना पानी
कि डूब जायें
गाँव के गाँव

दूसरी तरफ
राहत ही राहत
धूप में भी ठंडी छॉंव...!


 26
       

जायजा

तटबंध ठीक हैं
स्थिति नियंत्रण में
बेमानी अफवाहें

यह माना गया
कि दरअसल खतरे के निशान ही पड़ गये पुराने


 27
                               

प्रवाह

इस प्रदेश की खासियत यही

हर साल यहाँ बाढ़ आती

हर साल इधर से
जो अच्छे भले
बह कर कट कर
चले जाते
दूसरे हिस्सों में...


 28
                                      

निरुत्तर

पानी बहुत जमा हो गया है सरकार...

कितना ? सरकार ने घुड़का
हम बँटवा रहे हैं ना
सत्तू चूड़ा
छिड़कवा रहे चूना...

कितना...!
जनता को पूछने का
हक कहाँ...


 29
                                    

स्थिति

टीलों पर पुलों के ऊपर
कई दिनों से
अपनी गठरियाँ लिये
पड़े हुए कई

और कुछ लोग वहाँ
पहुँचते पानी देखने...


 30
                                                         
श्रेय

लिख कर
हुई हैरानी

कि पानी पर
लिख सकता

वैसे सच तो यही
अपना लिखना क्या

वह तो पानी ने ही
सब रच दिया...


 31
                   

पीठ पर पानी

पानी बरस रहा है
फिर पीट पीट कर

जिनके सिर पर ओट नहीं
डटे हुए हैं
कड़ी पीठ कर..

                प्रेम रंजन अनिमेष