बुधवार, 15 अगस्त 2012




अच्छे आदमी की कवितायें
                 
                प्रेम रंजन अनिमेष

कविता क्रम
  
 1
हाल

 2
भूमिका

 3
होना

 4
पता

 5
हास

 6
सादगी

 7
इसी तरह

 8
सुयोग

 9
भीतर बाहर

 10
अनपेक्षित

 11
याचना

 12
मिश्र धातु

 13
देखना

 14
चुनना

 15
स्वाद

 16
फेरा

 17
चुटकी

 18
पीठ पीछे प्यार

 19
जिद

 20
स्वभाव

 21
मदद

 22
पुष्टि

 23
जलबेल

 24
विडंबना

 25
नागरिक समय

 26
लक्ष्य

 27
वजह

 28
प्रश्नवाचक

 29
अविश्वसनीय

 30
समाहित

 31
आगा पीछा

 32
दुनिया बदलने के लिए

 33
सलूक

 34
खासियत

 35
लघु गुरू

 36
पाक साफ

 37
खयाल

 38
बरताव

 39
अपशब्द

 40
सत्याग्रह

 41
खोज
 42
बदलाव
 43
ऐसा सफर
 44
भेद
 45
विमर्श
 46
निष्पत्ति
 47
शिनाख्त
 48
द्वंद्व
 49
हाट में बेचारा एक भला
 50
संकोच
 51
भेंट
 52
संवेदी
 53
धुन
 54
नाहक
 55
सनक
 56
अवांछित
 57
ग्लानि
 58
सहानुभूति
 59
सोपान
 60
संचालन
 61
प्रतिदीप्ति
 62
अभिमत
 63
सर्वदाता
 64
नाई के आगे सिर झुकाये
 65
अनुपयुक्त
 66
गुजर
 67
अच्छाई की आचार संहिता
 68
सहेजना
 69
छींक विचार
 70
पुरखों की सीख
 71
पुण्यतिथि
 72
जीवन सूत्र
 73
सम्मति
 74
सबसे अच्छा रंग
 75
लक्षण
 76
निर्मूल
 77
चिड़ियाघर में खाली घरों को देखकर
 78
संरक्षण
 79
वापसी
 80
दिलासा
 81
अपनी ओर से
 82
इच्छा अनंतिम
 83
अंतिम बात
 84
उपसंहार






हाल                                                                                                                                                         

कैसे हो ?
कोई पूछ देता

हूँ बस...
कहता वह किसी तरह
झेंपता

अच्छा आदमी
खुद कैसे कहे
कि वह अच्छा है !




भूमिका                                                 

मूत्रदान में पड़ी फिनाइल की गोली

मेज पर रखा पेपरवेट
जिसमें बंद इन्द्रधनुष

कूड़े का डिब्बा जिस पर लिखा
मुझे इस्तेमाल करो

अच्छा आदमी
घास बराबर करने की मशीन

भाप का इंजन
जो पटरियों से उतरकर
खड़ा है देखने की चीज बनकर

सार्वजनिक प्रतिमा रास्ते के बीच
जिस पर कौवे करते बीट

अभिभावक
अच्छा बच्चा बनाना चाहते हैं बच्चों को
अच्छा आदमी नहीं
                                                                                                      


                                                                                                                                      
होना 

उकता कर
कई बार
सोचता
उठ जाये यहाँ से

लेकिन सुना है
कुछ अच्छों के होने से ही
यह दुनिया है

यही सोचकर
रह जाता

उस ओर
इतना है भार
इधर जरा कम होते जोर
गाड़ी कहीं हो न जाये उलार

अच्छा है
कि अच्छे आदमी को पता है
उसके होने का मतलब क्या है

दुनिया को देखता वह
किसी बूढ़े बच्चे की तरह
जिसे छोड़ कर
घर के बाकी सब
निकल गये हैं बाहर ...




पता                                                                                                                                                          

कहते हैं
कुछ अच्छे इनंसान हैं जरूर
तभी यह दुनिया है

यानी इस दुनिया के होने से
अच्छे लोगों के
होने का
पता चलता है

ऐसा हो सकता है
किसी दिन यह दुनिया
न रहे

अच्छे लोगों के न होने का
कभी पता नहीं चलेगा !




हास  

पीठ पर सुलगती हँसी
और धाह उसकी महसूस होती
कनपटी पर

अच्छा आदमी
जानता है
कई लोग
हँसते हैं उसकी बात कर

और कई बार
अकेले में अँधेरे में
आँखें भर आतीं
उनकी बातें सोच

भीगी आँखों में जब सितारे झिलमिलाते
उसे लगते मुसकुराते

कौन कहता
किसी को किसी की
भावनाओं से नहीं वास्ता

मन ही मन
दुहराता
सँभल जाता है

एक मोती सहेजता
दूसरा चुपके से
फिसल जाता है...





सादगी  

एक स्त्री को अपने पहले बस में चढ़ने दिया
किसी अनजान को देख मुसकुराया बेमकसद
बूढ़े के पास बैठ सुनीं उसकी बातें

अच्छा आदमी गुनता लेकिन
उसने अच्छा क्या किया

जो अधिक मिला कहीं से लौटा दिया
किसी ने पूछा तो रास्ता बता दिया

कोई फूल खिला था झाड़ियों में तोड़ा नहीं
मिट्टी का पात्र पड़ा था पैरों के आगे फोड़ा नहीं

याद करता फिर भी दिन बीतने पर
बस इतनी आज की पूँजी  
क्या हुआ उससे कुछ अच्छा ?

जो अच्छा है
हमेशा सोच में रहेगा

क्या समय ऐसा है
जिसमें कुछ बुरा न करना ही
अच्छा करना है...?

                                   


इसी तरह                                                                                                       


हम यहाँ अच्छे हैं
आप लोग भी अच्छे होंगे
चिट्ठी में उसने लिखा

चिट्ठियों में
सब अच्छे होते हैं
एक चिट्ठी
कितनों को अच्छा कर देती है
उसने सोचा

इसी तरह
लिखी जायें
ढेर सारी चिट्ठियाँ
तो अच्छी हो जाये
सारी दुनिया !



                                                                                                                                                
सुयोग


अच्छा !
अच्छा !!
अच्छा !!!

फोन कान से लगाये
वह आदमी कहता गया

सुनने देखने वाला
खुश हुआ
कि उसने इतना अच्छा
देखा सुना

और सौभाग्य सुयोग
कि वह उस वक्त था
जब सब कुछ इतना अच्छा अच्छा था !




                                           
भीतर बाहर                                                                                                      

सब्जी काटते हुए
उसका ध्यान इस ओर गया

कि फूलगोभी का
नन्हा हिस्सा भी
पूरे फूल की तरह
अपने आप में
यह बड़ा अद्भुत लगा

उसने सोचा
आदमी को भी
इसी तरह
होना चाहिए

जैसा बाहर
वैसा भीतर

पर ऐसा था कहाँ

जो थे
ऊपर कुछ
अंदर और

या परत दर परत
अस्तर
फिर अस्तर
और तह में कुछ नहीं

जैसे प्याज

झाँस से भर गयीं आँखें पलकें मुँद गयीं
और काटते काटते छुरी उँगलियों पर लग गयी



                                                                                                                                                    
अनपेक्षित

कुछ समय उनके होने से
खो सा गया था अकेलापन

छोड़ने उन्हें उतरा
पैरों में चप्पलें डाले बेमेल
और दरवाजा खुला छोड़

पर जैसे ही गाड़ी
चलने को हुई
भाव में भर कर
कहने लगे वे उसे भी साथ चलने के लिए

असमंजस में पड़ गया
रुँधे गले की तरह घरघरा रही थी गाड़ी
और हालाँकि याद था उस पल
पर लगा
उनकी भावना के आगे
सोच भी कैसे सकता था
बेमेल चप्पलों
या खुले छूट गये दरवाजे जैसी
बातें छोटी

इसी तरह चल दिया साथ
उस हठ उस राग से खिंचा

और प्रेम में उनके
कुछ और
कुछ दिन और करते
रहने के दिन बढ़ते रहे
लौटना टलता गया

किसी कोने में फिर भी
घर की चिंता रहती

हालाँकि घर जैसा वहाँ कुछ था कहां
बस जीने के थोड़े सामान

फिर भी एक धुकधुकी
कि उसके पीछे खुले घर में आया हो कोई

आखिर कई दिन रहकर
फिरा एक रोज
घर का दरवाजा उसी तरह था
बिना साँकल बिना ताले का उढ़काया

खुले दरवाजे को खोल
धड़कते दिल से भीतर
दाखिल हुआ

एक पलक में हर कोना हर चीज
देख गया एक सिरे से दूसरे सिरे तक
जो जहाँ जिस तरह छोड़ गया था
सब वैसे का वैसा

किसी के आने होने कुछ जाने की
कोई निशानी नहीं
उसके पीछे उसके बाद

पर इस बात से जाने क्यों
खुशी या राहत नहीं
गहरी धुआँ धुआँ सी उदासी
महसूस हो रही थी भीतर...
                                           



याचना                                                                                                     

एक बुरे आदमी के आगे
गरदन झुकाई

माँगने के लिए कुछ अच्छाई

मिली नहीं
गरदन तो झुक गयी

मिलने पर
झुक जाती शायद कुछ और...




                                                
मिश्र धातु                                                                                                      

खालिस पुण्य कौन करता

अच्छा वही
वही सच्चा

सीधे सादे झूठ कहे
जीवन में जिसने

की गिनी चुनी बेईमानी...



                                               
देखना                                                                                                      


बस की पिछली सीट पर बैठा था
और अच्छा लग रहा था

अच्छा लगने की वजह
यह नहीं कि मिल गयी
बैठने की जगह
बल्कि वह युवती
जो सामने खड़ी थी
जिसे देखता जा रहा था

पूरे सफर
इसी तरह
देखता रह सके उसे
मना रहा था
इस तरह
अवचेतन में कहीं यह भी
चाह थी शायद
कि उस स्त्री की यात्रा भी
उतनी ही लंबी हो
और इस दौरान
वह खड़ी रहे
वहीं उसके लिए

यह सोच कर
अब कुछ अच्छा नहीं लग रहा था

आधे सफर तक
बेचैन हो उठा वह

इसे बदल कर
भी तो देखा जा सकता है

उसने तय किया
पुकारे उस अजनबी को
अपनी सीट छोड़ दे उसके लिए

और खुद जाकर खड़ा हो जाये
बाकी सफर के लिए उस तरह
उसकी जगह...




चुनना                                                                                                                                                      

मैं सूत्रधार और आप देख रहे हैं
कार्यक्रम आज का अच्छा आदमी

जैसा आप जानते हैं
इसमें हर हफ्ते
हम आपका परिचय कराते हैं
किसी अच्छे आदमी से

तो आज हम अमुक जी से मिल रहे हैं
जो एक अच्छे आदमी हैं
अभी ये अपनी रसोई में हैं खाना बनाने के जतन में
हाथ में थाल थाल में चावल
और चावल पर झुके अमुक जी
आइये इनसे पूछते हैं ये क्या कर रहे हैं

अमुक जी आप अभी क्या कर रहे हैं ?

जी... मैं चावल चुन रहा हूँ

अच्छा आप चावल चुन रहे हैं
आपने कहा चावल चुन रहे हैं
अच्छा यह बताइये
आप चावल चुन रहे हैं या कंकड़ ?

जी मैं तो
चावल चुनता हूँ
यही जानता यही समझता हूँ

तो अमुक जी... एक शरीफ इनसान...
चावल ही चुनते हैं

चावल चुनना
क्या एक जीवनदृष्टि है
या आज कंकड़ों की बहुतायत में
चावल चुनने में ही समझदारी

या फिर कंकड़ चाहे कम हों
अब दौर ऐसा है
उन्हें कुछ कर नहीं सकते

कोई चारा नहीं इसके सिवाय
कि भले आदमी की तरह चुपचाप
अपने दाने बीन कर ले जाया जाय

आप सोचिये इस पर
हम मिलते हैं
एक अंतराल के बाद...



                                                                                                                                                    
स्वाद

हालाँकि इस मामले में
अपने को अनाड़ी ही
समझता था
और मजबूरी में ही
पकाता

पर उस रात
खुशबू से लगा
बढ़िया बन गया है खाना

और फिर बुरी तरह
खलने लगा
अपना खालीपन

अकेले खाने बैठना
वह भी आप बनाकर
इससे बड़ा दुर्भाग्य भला क्या होगा

इस अद्भुत गंध का
कौन साक्षी रहेगा
यह अनूठा स्वाद
बिना दर्ज हुए किसी स्मृति में
रीत जायेगा...

उस तीव्र भावना से वशीभूत
निकल पड़ा ढूँढने कोई संगी
जब घड़ी रात दस पार जा रही थी

पहले दरवाजे पर दस्तक देते
परिचित सी गाली सुनाई दी भीतर से
फिर परिचत की पत्नी ने
उधर से ही बोल दिया
कोई घर पर नहीं

दूसरे दोस्त ने यही समझा
हो न हो खाने के समय खाने के लिए
चला आया है
सो देखते अँगड़ाई ले बता दिया
अभी अभी भोजन खत्म किया है
और अब उसे नींद आ रही

और तो और 
फुटपाथ पर पड़े भिखारी ने भी
जोड़ दिये हाथ
सुबह से उल्टियाँ हो रही थीं उसे
रात किसी की दावत जीमकर

भारी कदमों से वापस आया
सीढ़ियाँ चढ़ता खुद को देता दिलासा
अब तक तो वैसे भी
ठंडा हो चुका होगा खाना
स्वाद सारा जा चुका होगा

लेकिन वे चीटियाँ
असहमत थीं इस बात से
जो पूरा कुनबा बटोर लायीं थीं
जितनी देर में उसे
मिल न सका कोई आदमी

उनके अधीर उल्लास में
पढ़ सकता था वह
अपने बनाये हुए का आस्वाद...! 



                                                                                                                                                  
फेरा

जहाँ रहता था वहाँ से
दूर था मुख्य डाकघर

पर उसका तजुर्बा था
देश से दूसरे देश
चिड़ियों को नहीं लगता समय जितना
उतना लग जाता चिट्ठियों को
छोटे डाकघर से बड़े तक जाने में

इसलिए तय किया
वहीं जाकर डाल आयेगा ये जरूरी चिट्ठियाँ

अच्छे लोग
चिट्ठियों को भी छोड़ते हैं दूर तक
अपनों की तरह

ऑटो से उतरकर पैसे देने के लिए
जेब में हाथ डाला
इधर फिर उधर
और धक से रह गया
पैसे थे जिसमें उसके बदले
भूल से दूसरा पतलून पहनकर चला आया था

ऑटोवाला उसका हाल देख
मुसकुराया
कोई बात नहीं होता है ऐसा

वह तो छोड़ गया वहाँ तक लेकिन
अब फिक्र थी वापसी की

जैसे आये
होगा वैसे ही जाना
गाता जा रहा था कोई बूढ़ा बंजारा

सोचा कुछ देर फिर
सवार हो गया
घर की ओर जा रहे एक दूसरे तिपहिये पर

पड़ाव पर उतरकर
फिर उसी तरह टटोलनी शुरू की जेब

पर सीधा सादा इनसान था
सच का अभिनय नहीं जानता था

गाड़ीवान ने सिर से पाँव तक
देखा थूक फेंका जमीन पर

कोई बात नहीं
पैसे नहीं अभी तो
दे देना बाद में... कहा उसने

तब तक
कमीज उतार कर रख दो अपनी

फिर कमीज रहने दी
क्योंकि वह पुरानी थी
और पतलून नया




चुटकी 

आप घर पर ही हैं न
मैं बाहर जा रही हूँ जरा
बच्चे को देखियेगा थोड़ी देर
वैसे उम्मीद है सोया ही रहेगा मेरे लौटने तक

कहीं जाग गया
और रोने लगा
तो चुटकी बजा देंगे भर देंगे टिटकारी
चुप हो जायेगा खेलने लगेगा उतने से
कहकर चली गयी पड़ोस की स्त्री

उसके जाने के बाद सारे काम बिसार
देखता रहा सोते शिशु को
जैसे उसके जगने की राह देख रहा

इस बीच आजमाने की कोशिश की चुटकी और टिटकारी

पर चुटकी थी कि बज नहीं रही थी
और टिटकारी वह भर नहीं पा रहा था

कोई बात नहीं
गेंद ले आया खिलौने मीठी गोलियाँ
और भी बहुत कुछ रंग बिरंगा

सब इंतजाम कर
तैयार था नींद से जागे एक बच्चे की
अकेले अगवानी करने के लिए

जागा तो चूमा उसे
या शायद चूमने से ही वह जाग उठा

एक एक कर पेश कीं
जुटा कर रखी चीजें सारी

लेकिन रोने की लय जो उसने पकड़ी
तो रोता ही गया

देह तान साँस उतान फेंकता हाथ पैर
गोद में रखना भी था दुष्कर

पूरा घर गूँज रहा था
बाहर तक
एक नन्हे बच्चे की रुलाई से

हार कर बैठ गया
बेचारा भला आदमी
सिर पकड़ कर

क्या करूँ मैं
तुम ही कहो
कातर आँखों से देखा
बेतरह बिलखते शिशु को
देखते देख उसे इस तरह
थमा वह
एक पल
फिर नन्ही उँगलियाँ मिला कर
चुटकी एक बजायी
टिटकारी भर दी जीभ चटखार कर
और हँसने लगा
हँसा कर !



                                                                                                                                            
पीठ पीछे प्यार  

हवाओं में निकलती बाहर
और पीछे उलझती ओढ़नी काँटों में

हौले से छुड़ा देता

बुहारती जब घर आँगन
आँचल सोहारता धूल

चुपचाप उठा देता

धोते माँजते
भीगते रहते किनारे

कहे बिना अलगा देता

रोशनी में अँधेरे में
छुप कर सटे कीट पतंगे

छुए बगैर उड़ा देता

ऐसी दुनिया ऐसे समय
जब पीठ की तरफ से
होते वार

किसी नामालूम परछाईं सा
चलता रहा पीछे
कुछ भी जाहिर किये बगैर
चुप छुप करता प्यार...




जिद

थोड़ी देर गौर करने पर
कोई भी जान जायेगा
उसके पास रुमाल नहीं

धोकर इसी तरह
हिलाता रहता हाथ

चलते चलते पसीना
पोंछ लेता कमीज की बाँह से

घर भूल आया हो
ऐसा नहीं
रुमाल है ही नहीं उसके पास
न घर

छींक आती तो
हाथ रख लेता मुँह पर
और नाक में जब तब
लगी रहती उँगली

बाजार में इतने रुमाल रंग रंग के
कोई अच्छा सस्ता देख
चुन सकता था
पर यह क्या
कि हर चीज ली जाये बाजार से

जिद उसकी
और कबकी

वही रखेगा
रुमाल जो कोई देगा
काढ़ कर फूल पहले अक्षर का

हो सकता है वह सौगात भी
खो जाये जैसे
खो गयी पिछली

पर जिद
है तो है

अब यह जीना भी तो
एक जिद ही है आखिर...



                                                                                                                                                 
स्वभाव

यह कैसी प्रकृति है
जो हमेशा के लिए किसी को
ऐसा कर देती

जिससे अब बिगाड़
जो अब
तकता नहीं
रुकता नहीं
मिलता न बोलता

उसे भी देख
कुछ बुरा सोच नहीं पाता

किसी अच्छे समय जो अच्छा किया उसने
वही याद आता...



                                                                                                                                                  
मदद

सुबह से बज रहा था दरवाजा

पहले आये दल वाले
सभा थी उनकी

फिर लड़कों की टोली
पूजा के लिए
करने वसूली

आगे कुछ दृष्टिहीनों के साथ
एक दृष्टिवान था
उनके हाथ की बनी अगरबत्तियाँ बेचता

उनके बाद पहुँचे
स्वयंसेवक राहत और बचाव के

तब आयी एक स्त्री जिसके आँचल में
चिकित्सक के मुश्किल नुस्खे की प्रतिलिपि थी

किसी को किया नहीं मना
जितना बन पड़ा
सबकी मदद करता गया

आखिर वे कुछ कर तो रहे थे
जबकि वह आराम भी नहीं कर पा रहा था
अवकाश के दिन

अब जबकि बटुए में
कुछ ही पैसे बचे थे
लगा उसे भी
कुछ करना चाहिए
देने के अलावा

किसी अच्छे उद्देश्य के लिए
साधन जुटाने चाहिए
और लोग

उठने को था ही
कि फिर दस्तक हुई

जो था बाहर खड़ा
कुछ कहने से पहले
बचे पैसे हाथ में उसके रख दिये

इस त्वरित और अप्रत्याशित आवभगत से अचकचाया
आगंतुक मुड़ कर चला गया

फिर मिला कुछ देर बाद सीढ़ियों पर
उसी की ओर लौटता

माफ कीजिये हड़बड़ी और परेशानी में
आभार जताना भूल गया और बताना
कि आपकी यह सहायता
उस नेक आदमी के अंतिम संस्कार में जायेगी

जिसने जीवन भर भरसक सबकी मदद की
और किसी भी सूरत में कभी
नानहीं...




पुष्टि

खिड़कियाँ बंद हो जाती हैं
कतार में उसकी बारी आते

बिजली चली जाती चक्की में
जैसे ही डाला जाता उसका गेहूँ

भोग लगा कर
प्रसाद बाँटा जा चुका होता
उसके मंदिर पहुँचने तक

इस ओर ही रोक लिया जाता
क्योंकि जो लय उसकी चाल में
उससे पुल के टूटने का खतरा

शिकायत दर्ज नहीं की जा सकती उसकी
लिखावट की स्याही गहरी इतनी

चूँकि अच्छा आदमी है वह
ऐसा नहीं सोच सकता
यह कोई सुनियोजित दुश्चक्र उसके खिलाफ
जिसमें शामिल पूरी व्यवस्था

अच्छा आदमी है
इसलिए अच्छा है
अनवरत
अंतिम सीमा तक
उसकी परीक्षा ली जाये

ताकि पुष्ट होता रहे हमेशा
उसका अच्छा होना !                                                                                                                                                   






जलबेल

दो कपड़े
दातुन कलम डायरी कंघी
और एक डिबिया लौंग की

हमेशा तैयार रहता
उसका थैला छोटा सा

और स्थानांतरण पर
यह नहीं समझता वहाँ से
हटाया जा रहा

बल्कि मानता
दूसरी जगह शायद
उसकी अधिक जरूरत

नये सिरे से
और लगन से
लगने की कोशिश करता

नतीजा और जल्दी
वहाँ से भी
तबादला
किसी दूसरे कोने

पर उसे क्या

क्या जोड़ना
क्या समेटना
बिखरा कहाँ
जो बाँधना

सामान वही गिने चुने
और कुछ नये इरादे
नये सफर के लिए
उस नये ठौर जहाँ कबसे
राह देखी जा रही होगी
उसके जैसे किसी की...



                                                                                                                                                
विडंबना

जो अच्छा लिखता है
अच्छा लेखक है
मगर क्या है वह एक अच्छा आदमी भी ?

अच्छा आदमी
जरूरी नहीं
हर इम्तहान में अच्छा करे
अव्वल आये पहली कतार में रहे

अपने हुनर में
अच्छा होना
अच्छा आदमी होने की
न शर्त न पर्याय

इस दुनिया में भरे पड़े
अच्छा दिखने बोलने बनाने वाले
पर अफसोस
अच्छे लोगों के बारे में
कही नहीं जा सकती बात यही

जो अच्छा सोचने वाला
जरूरी नहीं
अच्छा हो पाये

भला जो करता
बेशक अच्छा
पर जरूरी नहीं माना जाये...



                                        
नागरिक समय                                                                                                  

सोहबत में लग जाता दिल अकेले में
काम पाकर खुश ऐसे भी
भीगकर राहत और यूँ ही रूखे सूखे

अच्छे आदमी को लगा
इन दिनों उसका
अच्छा समय चल रहा

हवा बह रही चहचहा रहीं चिड़ियाँ
मौसम का अहसास खुशनुमा सा

क्या ऐसा हो सकता
भीतर फिर खटका

कि देश के बुरे समय में
चले किसी नागरिक का अच्छा समय ?

और अगर है कहीं ऐसा
तो इसके लिए उसे

खुश होना चाहिए लज्जित दंड का भागी या सावधान

या कि यह पल
एक बेहद डरावना छल
है केवल...?



                                               
लक्ष्य                                                                                                 

जो होता है
अच्छे के लिए

अच्छे नागरिक की तरह सोचता था वह

नगर के जन अरण्य में
सभा थी श्री जी की

लोकतांत्रिक प्रक्रिया से निर्वाचित जनप्रतिनिधि थे वे
लोकतंत्र में पूरी आस्था थी
इसलिए बरसों से कायम था
एकछत्र साम्राज्य

परिंदा भी पर नहीं मार सकता था
उनकी मरजी के बिना
न विरोध में चूँ कर पाता कोई
खुली सभाओं में भी

उस दिन पहली बार ऐसा हुआ
अपने ओजस्वी भाषण के बीच
सहसा वे रुके
और झुके एक तरफ
क्योंकि एक पक्षी ने जो अवश्य
अन्य प्रदेश का रहा होगा
गुस्ताखी कर दी थी सिर के ऊपर गुजरते हुए

ठीक उसी क्षण
वह गोली उनके बाल चूमती निकल गयी
भीड़ के बीच से जो
उन्हें लक्ष्य कर चलायी गयी थी
जो होता है अच्छे के लिए
फिर सोचा अच्छे आदमी ने

मगर यह अच्छा
होता है
किसके लिए...?



वजह                                                                                                                                               

यही देखा है
यही होता है
ऐसा भाईचारा है

बुरे लोग भरसक               
बुरे लोगों का
नहीं करते बुरा

पर उससे ज्यादा
दर्द इस दुनिया में
इसलिए

कि जो अच्छे ठहरे
अकसर खुद अच्छे रहे
पर किसी और का
हुआ नहीं उनसे कुछ अच्छा...



                                                                                                                                        
प्रश्नवाचक

इस संसार की
मुश्किलें ढेर सारी
ढूँढती फिरतीं अपना जवाब

और पातीं नहीं
तो करतीं
एक सवाल

बुरे लोगों ने अपने जैसों का
भला किया

भले लोगों ने
भले लोगों का
क्या किया...?

                                                                                                                                          


अविश्वसनीय

देख कर हैरत होती
सोच कर और

छाई जैसी
फैली हुई
बिखरी हुई
अच्छाई
हर ओर इस दुनिया में

फिर भी
हो नहीं रहा सही
कुछ कहीं
ऐसी बेबसी

राई जितनी बुराई
कैसे है
इस कदर हावी...?




समाहित

बुराई में भी कहीं
छुपी होती
कुछ अच्छाई...

सुन कर
सिर हिलाया
अच्छे आदमी ने

आखिर दोनों में ही
जुड़ी जो हुई
बड़ी ई...!




आगा पीछा

आज भी
अच्छाई है
बुराई

अब भी -
अगर है
अब ही

इसका मतलब
है अच्छाई आगे

लेकिन यह भी
सच उतना ही
कि बुराई पड़ी हुई
उसके पीछे...




दुनिया बदलने के लिए

अच्छा आदमी
अच्छा बरताव करता
सबके साथ

और उम्मीद करता
दूसरों से भी
ऐसी ही

पर ऐसा कैसे होगा
वहाँ जहाँ वही
हो अकेला
आदमी
- अच्छा आदमी

कैसे संभव होगा यह
जब तक पूरी दुनिया नहीं
तो अपने आस पास सबको
अच्छा कर न दे
वह अपने व्यवहार से...




सुलूक

आदमी हैं सब

व्यवहार वैसा ही चाहिए होना
जैसा एक आदमी का
उचित है
दूसरे के साथ

थोड़े उदास और दुखी
अच्छे आदमी को
समझाया
एक और अच्छे आदमी ने -

मुश्किल यह है
कि बड़ा होते
आदमी भूल जाता है
कि वह आदमी है

और यह भी
कि जो सामने वाला
उसकी नजर में छोटा

आदमी है वह भी...




खासियत

अच्छे आदमी की खासियत है
सब में वह कुछ अच्छा ढूँढ़ लेता

उसने देखा नृत्य जिसमें
नर्तकी का सारा शरीर थिर
सिर्फ आँखें बस सीने
मन के इशारे पर
थिरकते

उसे लगा अच्छा हुनर है यह
ऐसी साध होनी चाहिए ऐसी सँभाल
कि वही हिस्सा आंदोलित रहे जिसे रहना है
बाकी अपने आपे में

जबकि सुबह जब वह सत्तू घोलता
तो फेंटते हुए चम्मच के साथ
हिलता चक्कर खाता माथा भी
रोकने की हर कोशिश के बावजूद

नृत्य चलता रहा
वह सोचता रहा

फिर रात सपने में देखा
नक्शे पर देश को
नर्तकी की वेशभूषा में
जिसके अंगे थे लहूलुहान घावों से भरे
थिरक रहे थे केवल कुछ हिस्से
अच्छे आदमी के साथ यही दिक्कत है
कि हर कुछ में
ढूँढ लेता उदासी...                                                                                                                                              





लघु गुरू

आलू को अगर
छोटी उ से
लिखा जाये

तो क्या वह
छोटा हो जायेगा ?

अच्छे आदमी ने सोचा

दयालु श्रद्धालु कृपालु
फिलहाल कुछ ऐसे ही
छोटे लोगों की
बेहद जरूरत
इस दुनिया को...




पाक साफ

पद था
पर रहा
इस तरह
जैसे हो नहीं

दुरुपयोग का सवाल नहीं
उपयोग ही कहाँ किया कोई

उसके जीवनलेख में
यह भी गिनी गयी
एक अच्छाई...




खयाल

अच्छा कार्यालय था
और अच्छे लोग

प्रसाधन कक्ष में वहाँ
हाथ मुँह धोने के लिए
दो नाद थे

एक दिन देखा लोगों ने
एक में
एक मकड़ी पड़ गयी है

फिर जो आया
दूसरे पात्र में ही धोकर गया

पहले में पड़ी
मकड़ी निकलने की
कोशिश में उठ कर
कोर तक आती
पर चिकनेपन और फिसलन से
छिटक कर फिर नीचे सरक जाती
कोशिश लेकिन उसकी जारी रही

इस बीच सबने ध्यान रखा
किसी ने भूल से भी
खोला नहीं नलका उधर का

इस तरह धार की मार से
वह बची रही

यह जाहिर करता है
कितने अच्छे लोग थे वहाँ
और वह थी सचमुच
कितनी अच्छी जगह...
                                                                                                                                             




बरताव

आदमी से पहले आये वे इस पृथ्वी पर
और शायद वही रहेंगे बाद तक

कितने कीड़ों को बहा कर
बुहार कर फेंक कर
बोध हुआ कि वे निर्दोष हैं
और जीवन को नहीं उनसे खतरा कोई

इस दुनिया में जो आतंक और अंदेशे
उनकी और हैं वजहें
कीड़े नहीं उसके पीछे

अब घर में आसपास कोई नन्ही जान दिखाई देती
तो चुपचाप उसे देखता
समझने की कोशिश करता

चलते फिरते पोंछते धोते पकाते खाते
रखता खयाल वे साथ न सनें न पिसें
नीेंद में करवट नहीं फेरता भरसक
न अँधेरे में मुँह खोल गाता
कि भूले भटके चपेट में न आ जाये
कोई कीट पतंगा

घूमते फिरते चला भी आये
तो कोशिश करता
खुद बेवजह न घबड़ाये
न उसे करे आतंकित

ऐसा ही रहा कोई
साथ जो हक में न हो दोनों के
तो क्षमायाचना और पूरे सम्मान के साथ
छोड़ आता दूसरी ओर

अपने होने से किसी और का होना न हो दखल
अपने जीने से किसी के जीने में न पड़े खलल

नन्हे कीड़ों से सीखी थी उसने
यह छोटी सी बात
कि इरादतन तफरीहन किसी को
न पहुँचाया जाये नुकसान

बावजूद इसके अगर
जाने अजाने
ऐसा हो जाता
तो बहुत अफसोस होता और ग्लानि

जैसे उस दिन बड़ा परेशान था वह
अपने किसी दुख से
रात भर आँखें खुली ही रहीं
और फिर सुबह उठा तो अचक्के में
दो सुंदर कीट आ गये पैरों तले

शोक में डूब गया वह
और हताशा भी हुई
क्या करे आखिर
आदमी है वह भी

चलो यही सही
कम से कम आदमी से ही
बरतना आदमी की तरह
ओ भले आदमी...

साँस छोड़ते हुए कहा कीट ने
अंतिम प्रार्थना की तरह
                                                                                                                                        




अपशब्द   

कबके पहुँच गये होते
अब तक तो

फिर जब यूँ ही बेमतलब
कुछ दूर घिसटकर पटरी पर
रुक गयी गाड़ी
बाइसवीं तैंतीसवीं या उनचासवीं बार
तो होंठों से फिसल गयी
गाली एक अस्फुट सी

अहसास होते सहसा
सकते में आ गया
जैसे अपने मुँह में देख खून का थक्का

जीवन भर उसने
किसी अपशब्द का प्रयोग नहीं किया था
और आज जैसे उम्र भर की सेंती हुई कमाई
सरक गयी गाँठ से

यह व्यवस्था या अव्यवस्था
क्या उसे डिगाने में
सफल हो गयी आखिरकार
जैसे कोई मसखरा हो सामने इतराता
तोड़कर यती की साधना

होंठों से तुरंत
चाहा फेंक देना शब्द वह कसैला
लेकिन चुघलाये हुए लसलसे सा
और चिपक गया तालू से

उँगलियों से खींच कर किसी तरह
निकाल बाहर किया उसे
खिड़की से

और अब लग रहा था जैसे
गाड़ी के पहिये से लगा
वह घूम रहा...
                                                                                                                               



सत्याग्रह

चलते चलते
रुक गयी बस

खिड़की से झाँक कर देखा

आगे सड़क पर पड़े हुए थे
कई पेड़

और उसे लगा
गिरे नहीं जैसे
लेटे हुए हैं
विरोध में

फिर जब तार पर
कतार में देखे सुग्गे
तो यकीन हो गया
पूरी हो चुकी तैयारी

एक दिन इसी तरह
समुद्र जाम कर देंगी मछलियाँ
चूहे घेराव कर लेंगे गोदामों का

शेर आपात बैठक करेंगे
सर्कस के बीच
और मुर्गियाँ बैठ जायेंगी
सत्याग्रह पर कसाई के दरबों में

कैसा होगा दिन वह
कबूतर काले बिल्ले लगाये जुटेंगे जब
संसद के गुम्बदों पर

अच्छी या बुरी तय नहीं कर पाया
पर कैसी अजीब बातें आ रही थीं दिमाग में

माथा ठोंका
पीने के लिए ढाला पानी
मगर ठिठक गया
चींटियों ने कर लिया था उसमें सामूहिक आत्मप्रवाह...



                                                                                                                                                
खोज 

उसका एक आदमी
चला गया था

कोई अच्छा आदमी
अगर  हो
तो जरा भेजना
कहा मुझसे

मैंने उस दिन के
सारे अखबार देखे
अच्छे आदमी के लिए
न कोई विज्ञापन था
न कोई रिक्ति

अच्छा लगा
कि ऐसे में
कोई तो है
किसी अच्छे आदमी को
जो खोज रहा

इसका आशय लिखित में भले न हो
जुबानी अब भी है दरकार अच्छे आदमी की

फिर लगा
कहीं ऐसा तो नहीं
कि भला आदमी
जो चाह रहा
ठीक से कह नहीं पा रहा

अच्छा आदमी यानी कैसा ?
तसल्ली के लिए पूछ लिया

मतलब कोई कायदे का
ढंग का

ढंग का...?

हाँ बस यही समझो
कुछ दिन काम चलने लायक
हो तो चलेगा

उसने खोल कर समझाया



                                                                                                                                         
बदलाव   

नया मालिक
क्रूर कठोर इतना
कि लगता
इससे तो पुराना ठीक था

अगली सरकार
इस कदर बेकार बदकार
कि सोचते
क्या बुरी थी पिछली

ऐसा काल ऐसी बाढ़ ऐसे जलजले
जीना इतना दुशवार
कि जो गया जो बीता
अब सब
लगता खुशगवार

हालात इस तरह बदलते
छाँवों की तरह याद आते
धू धू जलते मरहले
किसी तरह बचते बचाते जहाँ से निकले

जो बुरा
करता जाता अपने को और बुरा
कुछ यूँ कि अच्छा लगने लगता
उसका पिछला चेहरा

इस विकट दौर में
ऐसे ही देखी जाती अच्छाई...




ऐसा सफर

पास वाली सीट पर बैठे भलेमानुस ने
आग्रहपूर्वक थैला उसका
माँग कर अपने पास रख लिया

और बस जब अगले पड़ाव से बढ़ी
तो बताया

मैली कमीज रूखे बालों वाला आदमी जो
उतरा अभी अभी
है दरअसल सयाना
अकसर दो पड़ाव पहले सवार होता
और चुपचाप अपना काम कर
उतर जाता
जो खड़े होते हैं खासकर दरवाजे के नजदीक
उन्हें अधिक रहता खतरा
इसलिए थैला आपसे ले कर मैंने रख लिया
बहुत शांत और सहज वह कह रहा था
जो करना था कर लेने के तोष से

उस आदमी की तरह
बस में अकसर सफर करने वाले थे और भी
जिनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई

सब जानते हुए
जाने दिया उस आदमी को
सबने

क्या इसलिए कि केवल शक था उस पर
जिसके पीछे पुख्ता सबूत नहीं थे

या कि लोग समझने लगे ऐसा
वह भी दोषी नहीं
बस एक बेबस आदमी
इस व्यवस्था का ही
एक शिकार

शायद दिन भर की थकान थी उनमें
कानून हाथ में न लेने की नेक नागरिकता
प्रशासन पर भरोसा
या डर घर कर बैठा कहीं भीतर

या फिर हर तरफ कुछ इस कदर
बढ़ा हुआ जाना सुना अनाचार
कि अब सब कुछ बेअसर बेकार

मतलब बस इतना
कैसे काम से रखा जाये काम
बच कर चला जाये
जहाँ तक हो सके
बिना किसी पचड़े में पड़े

कोई जिरह
कोई ऊहापोह
कोई उधेड़बुन
कहाँ कुछ कहीं
सिर्फ इतना और यही
कि यह सफर
सोच का नहीं...



                                                                                                                                              
भेद 

बुरा कोई
होता नहीं
हालात कर देते

अच्छा
लेकिन
बनना
पड़ता है

वैसे
जैसे
हम थे
कुछ होने से
पहले...



                                                                                                                                             
विमर्श 

अच्छे आदमी पर संगोष्ठी
शुरु हुई फिर

हॉल भरा था
जो उपस्थित थे
इस विषय पर
अपनी राय देने
राय बनाने
या फिर नोट्स लेने

बाकी आयोजक
प्रायोजक खबरनवीस

उनके बीच
अकेला वही था
एक कोने में कहीं अदेखा

संगोष्ठी समाप्त हुई

और बहस को आगे बढ़ाते
इस बात पर सहमत हुए विद्वान
कि किसी बात पर सहमत हुआ नहीं जा सकता

पहले तो
अच्छा क्या
यही था विवादों से भरा

अब
आदमी होने के बारे में भी
कठिन था
ठीक ठीक कुछ कहना...





निष्पत्ति                                                                                                                                                 
 
इतने आदमियों के बीच
अजीब था
मगर यही उस सभा का निष्कर्ष

कि अब जरूरत
आदमी को ढूँढ़ने
उसे बचाने की

और मुद्दा चूँकि इतना बुनियादी था
और आदमी को बचाना था

इसलिए फिलहाल
उसके अच्छे
होने के बारे में

कोई नहीं सोच रहा था !



                                                                                                                                            
शिनाख्त 

अच्छा होना
जंग छुड़ाना है
लोहे के औजार से
या सोने का पानी चढ़ाना
पीतल के पात्र पर ?

वह नारियल के फल का
निकलना है खोल से
जल का उबलना
लपटों का लौ में ढलना
या नदी का घर चलना ?

मिट्टी होना कि मूरत
मूठ कि नोक
अच्छा होना
पेड़ होना है
कोयला
या हीरा ?

होना अच्छा
होना है
या रहना

सजाना
या सँजोना...?

क्या इसमें
ऐसा कुछ है
जो औरों को हो बताना
और अपने को समझाना...?                                                 





द्वंद्व                                                                                                  

इमारती लकड़ियाँ थीं वे
पहचान जिनकीं कठिन
जिन्हें ले आया जा सकता
खालिस भरोसे पर

और उनके कारगर न होने
उनसे छले जाने
का पता भी
होता तो बरसों बाद

सोचो न अधिक
घर बसा ही लो अब
आँख मूँद कर
कहते सब

लेकिन बसने से पहले
बनना जरूरी था घर का

दीवारें दरवाजे छप्पर
चूल्हा चौका बिस्तर

और क्या इतना ही भर...?

सबसे पहले तो
बाहर करना था
वह डर
जो घर कर गया था
बहुत पहले कहीं बहुत भीतर

जैसा था
न मिला कोई वैसा
फिर निभा सकेगा ?
बदल पायेगा उसे
या खुद बदला जायेगा ?

या फिर
रहेगी यथास्थिति
जैसी थी अभी...?



                            
हाट में बेचारा एक भला                                                                                                 

नासमझी में नहीं
अगर उसे चुनना होता
जान बूझकर
छाँट बीन कर
चुनता अपने लिए
छँटा हुआ

कि दूसरों की खातिर रहे
औरों को मिल सके
अच्छा जो है...



                                                                                                                                          
संकोच 

दस लोगों के आगे
खड़े होते
पैर उसके काँपते

क्या कहे
अच्छे आदमी को
शर्म आती है

उसे मालूम नहीं

सही में

अच्छा करते
कैसे हैं
और हो जाये तो उसे
कहते किस तरह...



                                                                                                                                           
भेंट 

चिकित्सक से मिलना चाहता
जहाँ सुसुम पानी से सेंक रहा वह
अकड़ी हुई गरदन अपनी

वकील से जब वह बच्चे की
कर रहा हो जीभी

पंडित जिस समय
इस उस लोक के सूत्र भूल
उफनती हाँड़ी चूल्हे से
उतारने की करता कोशिश

मंत्री जब गोशाले में
अपनी भैंस को कर रहा खरहरा

सीधा सादा इनसान वह
कौन जाने इस तरह
कहीं भेंट हो सकेगी या नहीं
या दुरदुरा देंगे द्वारपाल हर जगह

जैसे साँप सोचता
आदमी से न पड़े पाला
मनाता वह
चिकित्सक से अस्पताल
वकील से कचहरी
पंडित से मंदिर
मंत्री से दरबार में

न पड़े मिलना...!



                                                                                                                                            
संवेदी 

जो उभरी नहीं
वह चीख सुनाई देती
जो नहीं किसी की आँखों में
वह दृश्य दीखता दूर से

फूलों के समारोह में
न जाने किस हवा के साथ
पहुँच जाती उस तक
कहीं कुछ जलने कुछ सड़ने की गंध

और जो बात परदे के पीछे ही अभी
बेध जाती आरपार

सहानुभूतिपूर्वक बताते सब
उसकी समस्या यही
कि वह संवेदनशील है अधिक
और सोचता जरूरत से ज्यादा

कुछ न कुछ
कहीं न कहीं
गड़बड़ तो जरूर

इस सर्द मौसम में जबकि नाक भरी हर एक
और मुँह खोले हाँफ रहे सब हवा के लिए

न केवल सही चल रही उसकी साँस
बल्कि तलहथी से तड़तड़ छूट रहा पसीना...



                                               
धुन                                                                                                  

रात थी उनींदी
और वह जाग रहा था

अपने पुराने रेडियो पर
मिलाने की कोशिश करता
जहन में सुदूर पुकारता कोई स्टेशन

जैसे बंद पड़ी पीछे अड़ी घड़ी को
मिलाते समय से

मगर कोई ठौर नहीं मिल रहा था
हर आवाज बुरी तरह घरघरा रही थी

रात काफी हो चुकी थी
बड़ी शिद्दत से तलाश रहा था
एक मरकज
जहाँ से साफ सुनाई दे
वह भूली हुई धुन
जिसे खोज रहा था बरसों से
या कोई एकदम नया राग
अनाहत उम्मीद की तरह

आधी रात के उस समय
शोर और व्यवधान
कम होना चाहिए था
लेकिन सब कुछ था अव्यवस्थित
हर तरंग विह्वल बेचैन
एक दूसरे को काटती

इसका मतलब नींद में भी
परेशान थे लोग और उनकी विकलतायें ही
टकराकर बिखर रही थीं
हर आवृत्ति पर

रात के रेडियो पर क्या
किसी केन्द्र से प्रसारित हो रही
उसकी भी पुकार
कानों के बजाय सीने से
जिसे साफ सुना जा सकता ?

आँख झपने से पहले
ढूँढ लेना था उसे
एक आश्वस्त अटूट स्वर
अपने ही भीतर

या फिर प्रतीक्षा करनी थी
किसी झोंके किसी थपेड़े की
एक और रात जो
बहा ले जाये नींद के तट तक
सुबह वापस छोड़ जाने को

उस अगली सुबह का लेकिन
कहाँ से होना था प्रसार
और बनना किसे था
सूत्रधार...?




नाहक

अच्छा भला
आदमी  था

सोचने
समझने लगा
अच्छा बुरा...



                                                                                                                                       
सनक 

राह बीच खड़ा वह बावला
जहाँ तहाँ पड़ी नाकारा चीजें
उठा कर सिर से पाँव तक खोंसे
इस तरह हरकत कर रहा
मानो राह दिखा रहा हो
आने जाने वालों को

पिछले दिन अगले चौक पर
दिखा था इसी तरह एक सनकी
और उससे पहले
दूसरे मोड़ पर कोई दूसरा

यह पागलों का कैसा शौक
रास्ता बताने का

अच्छे आदमी ने सोचा
और सोचते सोचते लगा
जैसे किसी बड़ी सोच से
टकराया

कहीं ऐसा तो नहीं
कि भाव वेश भूषा से जाहिर
भले न हो
अपनी जगह राह
देने राह रखने
राह दिखाने वाले जितने
कमोबेश ऐसे ही
होते
या हो जाते...




अवांछित                                                                                                                                              

कतार में करीने से व्यवस्थित
मेजें कुर्सियाँ
थालियाँ और व्यंजन

सब साफ सूफ सहेजा
द्वार पर जगमगाता स्वागतम्

अतिथि आते
लेते भोजन व आतिथ्य का
निर्द्वंद्व आनंद

बातें करते सहूलियतें सराहते

वहीं कहीं किसी अँधेरे कोने से
खड़ा देखता वह गौर से

दोनों तरफ लगे हुए उपकरण

भूले भटके
चला आये
कीट पतंगा कोई
चुपचाप उसे खींच लेते अपने नेपथ्य में

जुगनू के बराबर
कौंध जागती एक पल के लिए
और बुझ जाती
उस जीवन की लौ

व्यवस्था ऐसी है उनके लिए
क्योंकि अवांछित हैं वे
अनामंत्रित

सनद रहे
केवल वही नहीं आते
इस कोटि में...


                                                                                                                                              


ग्लानि 

कार में हुआ सवार
तो दरवाजा बंद नहीं हो रहा था उससे

फोन उठाना पड़ा
तो समझ नहीं आया
कौन सिरा बोलने का
सुने किससे

खाने की मेज पर
निहत्था हो गया
सँभालते छुरी चम्मच काँटा

और जहाँ चलती सीढ़ी आयी
खुद को भीतर से
लाख धकेलने के बावजूद
थथम गया

आसपास थे जो भद्र अभिजात
उनके चेहरों पर मोटे शीशों के पार
उभरी इबारत थी साफ
- कैसे आदमी हो !
जितना अभीष्ट होगा उनका
उससे अधिक असर हुआ
उस उपहास का
और माथे के पसीने की झालर
आँखों में आने से बचाते
सोच में पड़ गया सचमुच
वह
आदमी कैसे है ?




सहानुभूति

वह जो परेशानहाल पसीने से तर ब तर
खड़ा मेज के उस ओर

कुरसी पर बैठे आदमी को
उसकी तकलीफ का
अहसास होगा

अगर कुछ देर के लिए
उसकी जगह
वह अपने को रख कर देखे

लेकिन मुश्किल यह है
कि कुरसी पर बैठते
सबसे पहले

यह अहसास ही
उठ कर कहीं
चला जाता...




सोपान

मंच पर
एक सफल आदमी को
सम्मानित होते देख
सोचता

कितने समझौते
करने पड़े होंगे
इस आदमी को
यहाँ तक आने के लिए...



                                                                                                                                    
संचालन 

अच्छाई अब भी
काम आती
इतना मायूस होने की
जरूरत नहीं
गौर किया अच्छे आदमी ने

उमस में अगर
हाथ का पंखा झले
दस बीस बार कोई
किसी और के लिए

तो हवा चलने लगती है...



                                                                                                                                     
प्रतिदीप्ति 

इतने सज्जन माता पिता
स्नेहिल भाई बहन

पूजनीय पुरखे
प्यारे बच्चे

स्मरणीय मित्र परिजन
आत्मीय अपरिचित

और हाँ
सदा साथ देने वाली
जीवनसंगिनी

अच्छे आदमी ने
सोच कर देखा
जो भी जितना
हो सका उससे अच्छा
उसके पीछे
इतने लोग थे अच्छे

कि एक तरह से
अच्छा होना उसका
सहज अपरिहार्य था

बल्कि इस हिसाब से
यह सोचना ही कठिन था
कैसे कहीं
बुरा भी हो सकता कोई
या कुछ बुरा कर सकता

अच्छा होना
एक ऐसा आईना
झलकतीं जिसमें
दुनिया भर की अच्छाइयाँ...




अभिमत                                                                                                                                                    
 
अच्छा है
सच्चा है

बच्चा है !



                                                                                                                                            
सर्वदाता 

प्रकृति से इस तरह है
उसके रक्त में ही कुछ ऐसा है
जानता है

मित्र उसकी कमीज ले जाते
और भूल जाते
उसे पता होता महीनों बाद
वापस लेगा भी माँग कर
तो पहन नहीं पायेगा
फफोले पड़ जायेंगे पीठ पर

सारी रेजगारी उड़ेल देता
कतार में उस आदमी की मदद के लिए
छुट्टे न होने की वजह से
मिल नहीं रहा टिकट जिसे
यह खबर होते हुए
कि गाड़ी अब उसकी
छूट जायेगी

कोई चिट्ठी मिलती पड़ी हुई
और अपने सब काम बिसार
निकल जाता ढूँढ़ने
पते में लिखा ठिकाना
शुबहा होता भी तो बस एक पल के लिए
कहीं लोग जानबूझ कर तो नहीं
चिट्ठियाँ गिरा देते उसके रास्ते में

सवेरे अखबार में सूचनायें देखता
रात रेडियो पर संदेश सुनता गौर से

दुर्लभ था उसका रक्त
और हर किसी के
काम आ सकता था
आड़े वक्त

चिकित्सक भी यह समझते
इसलिए परवाह नहीं करते
कि अभी पिछले ही दिन
खून दिया था उसने

प्रकृति से वह इस तरह है
उसके रक्त में ही कुछ ऐसा है
जानता है

वह जानता
जब राह पर लथपथ
छटपटा रहा होगा
वे भी जिन्हें लहू दिया है
बचा नहीं पायेंगे

इसमें दोष नहीं उनका
कि उसका अपना ही खून
उसके काम नहीं आयेगा...



                          
नाई के आगे सिर झुकाये                                                                                                  

कैंची उसके हाथ में
कोई साज संगीत का
और धारदार उस्तरा
औजार गुदगुदी भरने का
कंघी छड़ी जादूगर की

बुरी तरह बेतरतीब
बढ़े हुए उसके जंगल में
इस तरह उतरा
जैसे रेशा रेशा पहचानता

बनाकर
अंतिम बार सँवारने से पहले
बालों में फिरायीं उँगलियाँ उसने
तो याद आया

कबसे किसी ने
नहीं सहलाया
ऐसे

और न जाने क्यों
भीतर से भर उठा
जैसे उमड़ कर बह निकलेगा

जिसके आगे खुले हों बाल
उससे किस तरह
छिपे हाल

ऐसे भरे बाजार
नाई के आगे सिर झुकाये
रोना अटपटा लगेगा कितना
सोच कर गड़ गया

लेकिन लाज रह गयी
जाहिर नहीं हुआ कुछ देर तो खुद पर भी

आँसू जो निकले
सूख कर हो चुके थे काँटे
और झड़ रहे थे केश की कतरनों के साथ
उन्हीं के जैसे...




अनुपयुक्त

क्या तुम्हें
ऐसा नहीं लगता
कि जरूरत से
ज्यादा हो अच्छे ?

मैं तो खैर
खुद हूँ ही
गुजारे से कम बुरा...




                                              
गुजर 

चढ़ना नहीं चाहिए चलती गाड़ी पर
चढ़ना लेकिन आना चाहिए

लदी फँदी सवारियाँ आतीं
रुकतीं नहीं पड़ावों पर
धीमी होतीं जरा
उसी में उतरते चढ़ते सारे

वह खड़ा
सोचता रह जाता
क्या होगा जब
कोई गाड़ी कभी
नहीं रुकेगी कहीं

तब वही सवार हो पायेंगे
जिन्हें आता
चलती गाड़ी पर चढ़ना

दरवाजा पकड़े
साथ साथ दौड़ना कुछ देर
फिर एक झटके में धरती को पंजों से ठेल
पायदान पर झूल जाना
इस भरोसे
कि हो जायेगी जगह सबके लिए
चलते चलते

इसी तरह उतरकर भी
रुकता नहीं
एक-ब-एक सफर

जिधर घूम रहे होते पहिये उस ओर
जाना होता संग संग कुछ दूर
अपने को अलगाने से पहले

अच्छा तो नहीं
चढ़ना उतरना चलते भागते
पर होना चाहिए हुनर
आड़े वक्त के लिए

बराबर देखता दुःस्वप्नों में

अपनी गति अपने हिसाब से
चलती जाती दुनिया

और बार बार उझक कर पाँव बढ़ा कर
सहम जाता
वह
उसके साथ नहीं आ पाता

इसी तरह चाहकर भी
चलते इस चाक से
उतर नहीं पायेगा
पूरा कर सफर

पीछे छूटती जायेगी मंजिल...

                                                                                                                                                  

अच्छाई की आचार संहिता
                                                                                                               
अच्‍छे आदमी को
ऊपर से
कुछ बुरा लगना चाहिए
कि बुरे बेजा फायदा न उठा पायें
उसकी अच्छाई का
और अच्छाई उसकी
कमजोरी न समझी जाये

बुरा लगना तो ठीक
पर भरसक बुरे से
लगना नहीं अच्छा
जब तक जान जहान का
सवाल न हो

लगे अगर कोई अच्छा आदमी
तो गले लगे
लगे दिल से

दिल को लगे
तभी शायद कहीं
बुरा भला होगा...
   


सहेजना

ढाई आखर के
प्यार जैसा
ढाई आखर का
अच्छा

जतन से सहेज सँभाल कर
रखना

आधे अक्षर के
सँसर जाने से
स्वर व्यंजन के
तनिक हेर फेर से

हो सकता जो ओछा...




छींक विचार

आक् छी !

छींक यह
अच्छी या बुरी

इसके लिए
देखनी होगी दिशा
छींकते वक्त
रुख किधर का था

जो भी हो
छींकते हुए
पलकें खुली रखने की
जिद जैसी
अब के दौर
आज के समाज में
किसी की अच्छाई...




पुरखों की सीख 

जीवन है
दुनिया है तो
बुरा भला
सब मिलेगा
देखने को

पर भूल से भी
बुरा भला मत कहो

बुरा भला
कर लो भले

मगर भला बुरा
कभी न करो...




पुण्यतिथि 

जो गुजरा जीवन भर
सारे पाप कर

अब मनाई जा रही थी
उसकी पुण्यतिथि

इससे जाहिर होता
पाप के बाद
और बावजूद
आखिर पुण्य ही बचता

एक अच्छे आदमी ने इसे
अच्‍छी तरह समझा...




जीवन सूत्र 

जीवन जीना
ऊँचे विचार के साथ
रोटी खाना
छूँछे अचार के साथ

कहीं देखी
यह सूक्ति
या चेतावनी

विचार ऊँचे हों न हों
अच्छे होने चाहिए
सोचा अच्छे आदमी ने
और सुकून की साँस ली
कि वह अचार पर भी
निर्भर नहीं...



                                                                                                                                          
सम्मति

जैसे ही
कठिन रास्ता
आगे आया
कीच पाँक वाला

उस भले आदमी ने
पनही अपनी
उतार कर हाथ में ले ली

दृश्यपटल पर
दृश्य को देख रहे
विशारदों में
पहले ने
दरिद्रता का लक्षण कहा इसे
दूसरे ने मूर्खता
तीसरे ने असभ्यता
चौथे ने भोलपन

अच्छाई का
नाम किसी ने नहीं लिया

विद्वज्जन निर्णायकगण वे
खुद बड़े माने हुए
अच्छे लोग थे...



                                                                                                                                      
सबसे अच्छा रंग

हीरे के लिए
सबसे अच्छा रंग है
कोई रंग न होना

पानी के साथ
भी वही बात

साफ दिल वाले इनसान
आज के दौर में
निरंग पानी की तरह दुर्लभ
और साफ हीरे की तरह
अनमोल...



                                                                                                                                      
लक्षण

अच्छाई
क्या है भाई

धार छोड़ने के पहले
शौचघर में
गिरे पतंगे को

झुक कर
शौचपत्र पर उठाना
बाहर उड़ाना

इस दुनिया
इस जमाने में
पागलपन की पहचान भी
कुछ ऐसी ही
बतायी जाती...



                                                                                                                                            
निर्मूल 

पहले निकलते नहीं थे वे
कोनों अँतरों से
और आते भी तो हथियार लिए

पर जंगलों में धीरे धीरे
गुजर की चीजें घट रहीं उनके लिए

अब जब तब
सामने आ जाते
निहत्थे

सिपाहियों की बात समझते
भूखबोलते पेट की ओर
इशारा करते पर्यटकों को देख

नागर भाषा के कुछ अपशब्द भी
आ गये हैं कोश में

कपड़े मिल जायें कहीं से
तो कंधे पर रख लेते बाँध लेते सिर पर
पहनने ओढ़ने की आदत नहीं बनी अभी 

पर देर नहीं अधिक सभ्य हो जायेंगे
इसी तरह कुछ दिन अगर
रहे सोहबत में

हालाँकि ऐसा करना
मना सरकारी तौर पर
मगर हो सके तो
कोई तसवीर रख लेना उनकी

स्मृति के लिए !

                         



चिड़ियाघर में खाली घरों को देखकर 

क्या हुआ इनमें रहनेवालों का ?

रिहाई मिल गयी
निकल भागे सलाखें तोड़
या मार दिया गया
बूढ़े या बागी होने के जुर्म में

बिके या सांस्कृतिक विनिमय में भेंट किये गये
या देख कर आचार व्यवहार
डाल दिया गया किसी और बाड़े किसी दूसरे घेरे में

या कि कोई था ही नहीं यहाँ कभी ?
लेकिन यह गंध तो कुछ और ही गवाही देती
ऐसा क्यों है कि होने के बदले
होने के अवशेष सजाये गये हैं

आदमी अच्छा है
पर अजीब खयाल आते हैं
चिड़ियाघर में इन खाली घरों को देखते गुजरते

खाली क्यों रखा गया
इन्हें किसी को
दे क्यों नहीं दिया...

आपकी तरह अभी आनेवाले हैं कई
वैसे जगह पसंद आयी ?

पलटकर कोई पूछता



                                                                                                                                       
संरक्षण    

दुनिया अभयारण्य
धूर्त शातिर भ्रष्ट जुगाड़ियों फरेबियों आततायियों का

भले आदमी इनके बीच
दुर्लभ संरक्षित

सरकारें पूरी सजग उनके होने को लेकर
जगह जगह सूचनापट
जिन पर अंकित उनकी घटती संख्या
लोकहित में जारी किये जाते विज्ञापन
नागरिकों का ध्यान खींचते उनकी ओर

बाड़े के बाहर से
टिकट कटा कर देख सकते उन्हें
पर खिजाना
या कुछ खिलाना मना
हालाँकि बड़े सीधे सरल जीव हैं
अभिवादन से पहले खुद करते अभिवादन
और हमेशा नम आँखें जिनके नीचे
आँसू ढलक कर सूखने के निशान

प्रशासन चुस्त और चौकस
क्योंकि सबको पता है
और भूगर्भवेत्ताओं खगोलविदों का भी कहना है
कुछ अच्छे आदमियों के बल पर ही
टिकी हुई यह पृथ्वी

वह जो न्यूनतम अनिवार्य संख्या है
उतने तक उन्हें बचाये रखना है

अन्य प्रजातियों के साथ
अंतर-प्रजनन भी कराया जा रहा उनका

किंतु समस्या है यही
संरक्षण में
पैदा हुए उनके बच्चे
बचते नहीं...
                                                                                                                                        




वापसी 

ईश्वर भी अच्छे लोगों को
जल्दी उठा लेता है
यह कहा जाता है

अब ईश्वर का बुलावा तो
किसी ने देखा नहीं

बुला लेता है अपने पास
क्योंकि उसे भी जरूरत उनकी
ऐसा सुनने में आता

अगर जरूरतें ही पूरी कर पाते
तो शौक से यहीं रख लिये जाते

कोई बुलाता है या नहीं
पर यह जरूर होता है
कि बिना देर किये
भेज दिये जाते
लोग अच्छे
इस दुनिया से...



                                                                                                                                           
दिलासा 

अच्छे लोगों के संग
लगी ही रहतीं मुश्किलें

अच्छे आदमी की पीड़ा थी
कि उसकी पत्नी का गर्भ
ठहरता नहीं था

एक तो मुश्किल से मिला जीवनसाथी
अब आगे जीवन दूभर

हर बार उम्मीद और फिर
पानी उस पर फिर जाना
आने से पहले लौट जाना किसी का

एक अनवरत यातना

मेरे ही अंश का दोष है कहता वह
सही पात्र नहीं मैं ही स्त्री व्यथा से दुहराती

हालाँकि चिकित्सकों के मुताबिक सब संभव था
और ज्योतिषियों की राय में नक्षत्र अपनी जगह बदल रहे थे

एक बार फिर जब
बीता वही सब
तो जागता देर तक सोचता रहा चुपचाप

फिर स्त्री के पास आकर
बोला धीरे से

एक तरह से सोचो तो
अच्छा ही है

होती भी हमारी संतान
और हमारी ही तरह
तो दूभर होता जीना उसका
इस दुनिया में

और अगर वह भी होती औरों की तरह
दुनिया की तरह
तो वैसे होने से भला क्या

अच्छा है जो हम
यूँ ही चुपचाप
लौट जायें
सजे शामियाने जैसी इस दुनिया से
जहाँ निमंत्रण तो हमें
पर नहीं कोई पहचानने पूछने वाला

अवाक् थी स्त्री
और भीगी अबूझ आँखों से
देख रही थी उसे
जैसे खोये हुए बच्चे को

रोते रोते उसके सो जाने के बाद
जागता हुआ सोचता रहा वह
अब क्या
खुद को दे सकता था
वही दिलासा

चारों ओर फैले
ध्वंस और भग्नावशेष में
जहाँ टुकड़े टुकड़े जोड़ खड़ा करना
अपने आप को फिर फिर रचना
होने की थी सूरत अकेली...





अपनी ओर से

कुछ भी भला हो
इस दुनिया का तो
समझो काम आई
अपनी अच्छाई

बदले में
अपने लिए
किसी नेकी की
उम्मीद बेमानी

कौन बादलों की तरह
फिर भरता
सतत सोत को

प्यार की तरह
सज्जनता भी
अकसर होती
एकतरफा ही...



                                             
इच्छा अनंतिम                                                                                                 

बूढ़ा हो चला था
मसूढ़े फिर कोरे

पर सर्दी की उस शाम सड़क किनारे
सिंकते भुट्टों की सोंधी गंध से बरबस
लालसा जाग उठी

भुट्टे वाले के पास बैठ
कान में धीरे से 
बतायी अपनी इच्छा
और यह भी कि गाँठ में
नहीं पैसे

चलो पैसे मैं तुमसे
नहीं लूँगा भुट्टे वाले ने कहा
लेकिन बाबा झूठ नहीं बोलूँगा
यह कोयला है मसान का

अच्छा है !
छिलके पर नमक रखते बोला वह

दुद्धा स्वाद
और इस सोच से
चमक रही थीं उसकी आँखें

कि मरने के बाद कहीं
उसके कोयले पर भी
कुछ सेंका जा सकेगा...



                                                                                                                                          
अंतिम बात 

जाते जाते इस दुनिया से
सब हो जाते अच्छे

जबकि जो चला गया
है नहीं
अच्छा न आदमी

जीते जी
हो सके जो
हो लो

गुजरने के बाद
कही गयी बात
कहाँ कोई बात

जो बोलता है
इसलिए
कि सुन नहीं सकता
अपने जाने के बाद
अपने बारे में कहे गये शब्द

किसी शोक सभा में
आदमी पढ़ता है
अपना ही शोक वक्तव्य

जो दरअसल होता
इस दुनिया इस जीवन में
किसी के लिए
कुछ न कर पाने का
माफीनामा...                                                                                                                                          





उपसंहार 

चार कंधों में से
कम से कम
एक हो जो अच्छा हो
किसी अच्छे का हो

कि धार
कर पायें पार

यही अंतिम इच्छा है
और सब तो अच्छा है

पर जुटेंगे कहाँ से
उस समय क्या होंगे
आदमी इतने
और ऐसे ?

तब तक शायद
बन जाये
अकेले कंधे की अरथी
या बिना कंधे वाली
जैसे दुनिया कोई
बिना अच्छाई
बगैर आदमीयत
सहस्त्रफन पर इस तरह टिकी
जैसे छूटी हुई गठरी किसी गरीब की

उतना ही रखें भार
जितना अपने आप से हो सँभार

यही है आज का उत्तम विचार...