मंगलवार, 26 मई 2015

"कोई मासूम ख़्रवाब..."


कोई मासूम ख्‍़वाब...


                            एक गुलदस्ता
        सात ग़ज़लों और एक नज्‍़म का
   
                                  प्रेम रंजन अनिमेष


         सरोकारों से जुड़ी गंभीर कविता का (जो आजकल प्राय: छंदमुक्‍त होती है ) प्रतिबद्ध कवि होना एक बड़ी जिम्‍मेदारी है और अपने आप में उतना ही गंभीर   काम । यह बारहा लिखने वाले के दिल और दिमाग पर भारी भी पड़ता है । सृजनात्‍मक संतोष इसमें कहीं न कहीं अवश्‍य है पर बेचैनी और तनाव अधिक । इस तनाव और कसाव से पूरी तरह उबरना तो संभव नहीं पर कहीं न कहीं उसकी निरंतरता को तोड़ कर राहत पाने के सबके अपने अपने रास्‍ते होते हैं । जहाँ तक मेरा सवाल है अपनी गिरहें खोलने और तने हुए तार ढीले करने के लिए मैं गाता गुनगुनाता हूँ । यह फिर से गंभीर सृजनात्‍मकता की ओर लौटने की स्‍फूर्ति भरता   है । जैसे दिन भर की पढ़ाई के बाद बच्‍चे शाम में पतंग उड़ाते या कंचे खेलते हैं अपना दिल बहलाने के लिए मैं छंदों से क्रीड़ा या कौतुक करता हूँ । शुरू से ऐसा होता है कि ऐसे समय गीत-नज्‍़म-ग़ज़लें मानो अपनी लय अपनी धुन समेत तैरती हुई चली आती हैं । मुझे बस उचक कर खिड़की तनिक खोलनी होती है और किसी बया या बयार की तरह वे भीतर चली आती हैं । संगीत मैंने सीखा नहीं है पर परिवेश और संस्‍कार में कहीं है शायद इसीलिए ऐसा संभव होता है । बड़ी दीदी बड़े भैया और मझले भैया ने बाक़ायदा मौसिक़ी की तालीम हासिल की है और जीवनसंगिनी ने भी । उनका सुझाव और मार्गदर्शन मिलता रहा है । हालाँकि बहुत थोड़े लोग ही हैं जो इस बात को जानते हैं पर जो जानते हैं मिलने पर उनका इसरार होता है सुनाने का । इंदौर बीच बीच में जाता हूँ मझले भैया के यहाँ जिन्‍होंने वरिष्‍ठ विज्ञानी होने के बावजूद कला से अपने जुड़ाव को जुगाये जगाये रखा है । वहाँ कार्यक्रम आयोजित होते रहते हैं और अगर संयोग से उस समय र‍हा तो जानने वाले आग्रह कर शरीक कर लेते हैं । इसी तरह सुन कर उन्‍होंने  सुझाया कि अपनी ग़ज़लें जिनकी धुनें भी मेरी होती हैं मुझे अपनी आवाज में रिकॉर्ड करानी चाहिए क्‍योंकि यह आवाज और अपने शब्‍दों को धुन में पिरोने की सिफ़त बहुत ख़ास है । बातों बातों में किसी ने कोलकाता के म्‍युजिशीयन स्‍टूडियो का पता भी दे दिया । और भी संगीत जानने सुनने वालों ने सुन कर ऐसी हौसला अफ़ज़ाई की थी पहले । तो बालसुलभ एक क्रीड़ा कौतुक की ही तरह चार लगातार अवकाश के अंतराल में गाड़ी पकड़ कर कोलकाता रवाना हो गया और इस तरह तैयार हो गया एक अनूठा अलबम 'कोई मासूम ख्‍़वाब...'  - सात ग़ज़लों और एक नज्‍़म का – जिनमें अल्‍फ़ाज़ के अलावा तर्ज़ और आवाज भी मेरी । जाहिर है संगीत बाकायदा सीखा नहीं और पेशेवर गायक हूँ नहीं तो और बारीकियों और सुधार की गुंजाइश होगी पर यह एक विरल सुयोग अवश्‍य है जिसमें शब्‍द स्‍वर और संगीत रचना सब एक साथ शायर की अपनी - यानी कवि के स्‍वर में कवि ! ग़ज़लों की अपनी लोकप्रियता है और इस लोकप्रियता के अपने ख़तरे जिनसे बख़ूबी वाकिफ़ हूँ । इसलिए भी लगभग एक राज़ की तरह अब तक भरसक छुपा कर रखा अपने इस ख़ज़ाने को । लेकिन कभी कभी उस पर एक नज़र डाल लेने और उससे दो चार मोती साझा कर देने में कोई हर्ज़ नहीं शायद । काव्‍याभिव्‍यक्ति की एक विधा है यह छंदविधान भी अपने सार्मथ्‍य और सीमाओं के साथ – और कवि के लिए तो कुछ भी अस्‍पृश्‍य नहीं होता – फिर कोई विधा कैसे हो सकती है । तो बग़ैर बहुत अधिक उम्‍मीद लगाये लगभग स्‍वांत: सुखाय अशआर की ये पतंगें उड़ा कर देखता हूँ आसमान में । मीर ग़ालिब ख़ूब कह चुके हैं पर फिर भी कुछ तो रह गया है । पहले प्‍यार किया जा चुका है यह सोच कर प्‍यार न करे कोई आगे तब तो दुनिया ही रुक जाये । फिर भला कौन कहेगा कौन सुनेगा ऐसी बातें :

                  प्‍यार  कितनों का  पसीने जैसा
                  अपने ही जिस्‍म में मर जाता है

      कुछ समय पहले तक पूरी भली चंगी सारे काम धाम करतीं और हर शनिवार जिद कर हमारे माथे में तेल लगाने वाली माँ अब रोगशय्या पर हैं । यह प्रस्‍तुति उनको समर्पित... इसकी पहली पंक्ति के साथ  :
                   माँओं की खोयी लोरियाँ ढूँढो
                   घर में बिखरी कहानियाँ ढूँढो...   
                                               ~ प्रेम रंजन अनिमेष 




       ( 1 )

माँओं की  खोयी  लोरियाँ  ढूँढो
घर  में  बिखरी  कहानियाँ ढूँढो

मैं  उजाला   तलाश  करता हूँ
तुम  अँधेरे  में   सीढ़ियाँ  ढूँढो

जिन किताबों को वक़्त  पढ़ता है
उन किताबों  की  ग़लतियाँ ढूँढो

पहली बूँदें  पड़ी  हैं  बारिश की
अपनी काग़ज़  की कश्तियाँ ढूँढो

पंख  जिनके  रखे थे  पन्‍नों में
आखरों की  वो  तितलियाँ  ढूँढो

अबका  बचपन  बड़ा  सयाना है
अब  नयी  कुछ  पहेलियाँ  ढूँढो

खिड़कियाँ  रूह की तरफ़ खुलतीं
कोई  तो  ऐसा   आशियां  ढूँढो

दिल ये  सरकारी  महमा कोई
इसमें  मत  खोई  अर्ज़ियाँ  ढूँढो

वो  बहुत दूर  जा चुका  'अनिमेष`
उसको  अपने ही  दरमियां  ढूँढो


          ( 2 )

इक  खिलौने  सा  वो  उठायेगा
तोड़  कर  फिर  मुझे  बनायेगा

रात आधी है  गया  उठ कर
मुझको बिखरा के फिर सजायेगा

अपने पीछे  वो  दर्द  रखता जा
जो  जगायेगा   और  सुलायेगा

तुझपे  मरता हूँ क्यूँ मेरे क़ातिल
जान  लेकर     जान  पायेगा

वो जो  होंठों से था  कहीं  छूटा
अपनी  पलकों पे अब  उठायेगा

दूर के  देस   याद  की  चादर
कोई  ओढ़ेगा   और  बिछायेगा

इक मुहब्बत का  दर्द है  काफ़ी
फिर क्यूँ  दामन कोई  बढ़ायेगा

साँस   रोके   हुए  हैं  सन्नाटे
कोई  'अनिमेष'  अब तो आयेगा


          ( 3 )

कोई  मासूम   ख्‍़वाब  है  लड़की
ज़िल्द  वाली   किताब  है  लड़की

है  करम   आपका   हमारा  जो
हर  जगह   लाजवाब  है  लड़की

ख़ून  जब   रंग  सूख कर  होगा
सब  कहेंगे   गुलाब  है   लड़की

सारे   रिश्ते    गुनाह  हैं  उसके
सबके  बदले   हिजाब  है  लड़की

उसको  उठने  भी  कोई  दे  कैसे
हर  किसी  का  नक़ाब है  लड़की

हर घड़ी  कुछ कुछ  सजाती है
जैसे  इक   इज़्तिराब  है  लड़की

भर दिया दुख ने सर से पाँवों तक
इसलिए   पुरशवाब   है   लड़की

वक़त  मत  पूछ  एक  लड़के से
वक़त   बेहद   ख़राब  है  लड़की

वो जाने  क्यूँ माँ  ये कहती है
किस जनम का  हिसाब है लड़की

है तो  अपने  लिए  नहीं कुछ भी
और   सबका  रुआब  है  लड़की

बिन  कमाई  के  सारे  काम करे
किस  क़दर  कामयाब  है  लड़की

देख  खो जाये ना  कहीं इक दिन
तेरी  आँखों  का  आब  है लड़की

उसका  अपना  वजूद भी  तो  है  
क्यों  कहें    माहताब  है  लड़की

तेरी ख़ातिर  कोई ग़ज़ल  'अनिमेष'  
ख़ुद की  ख़ातिर  अज़ाब है लड़की


                ( 4 )

एक बारिश में  उसके साथ भीगने^ का  मन
उसकी बातों में  कोई  रात  जागने  का मन

उसके बालों को  आगे ला के  उसके कंधों पर
अपने  हाथों से  हर धड़कन  सहेजने का मन

महके फूलों को  यूँ बिखरा के  देह भर उसकी
अपने  होंठों  उसे  हर फूल  देखने  का मन

हूँ  मुहब्बत  वहाँ  जाऊँ  जहाँ  न जाये कोई
सिहरे तन में कहीं  है मन को चूमने का मन

कबसे धरती को तकती हो गयी है ख़ुद धरती
अब  उठा कर उसे  आकाश  सौंपने  का मन

पाँव  रस्ते  तो   सारे    नापते  अकेले  ही
थक के होता  किसी के  साथ लौटने का मन

किसी रिश्‍ते  किसी नाते  मिले  कहाँ  चाहत
प्यार रहकर ही  कुछ उससे है माँगने का मन

अपने  सोचे हुए  कुछ नाम  उसको  देने का
नाम  हर भूल कर  उसको ही सोचने का मन

इसी मिट्टी में  दब कर  बीज सा उगूँ फिर से
इसी  पानी में  है  सूरज सा  डूबने का  मन

जि़ंदगी साथ दे और साथी वो जिसे  'अनिमेष'
अपना सब कुछ हो अपने आप सौंपने का मन

(^काफ़िये  के सख्‍़त  पाबंद अपनी सहूलियत के लिए चाहें तो इसे 'भीजने' पढ़ सकते हैं । वैसे मैं जहाँ ज़रूरी हो वहाँ ऐसी रूढि़यों को तोड़ने का हिमायती हूँ । पढ़ने सुनने वालों के ख़याल से भी 'भीगने' ज्‍़यादा मुनासिब है । )



                   ( 5 )

             ख़्वाहिश
                                    

तुम्हारे  साथ  भीगने की
तुम्हारी  रात  जागने की
                     ख्वाहिश ही रह गयी...   

  
तेरी ज़ुल्फों से  खेलने की
तेरे  होंठों  से  बोलने की

तेरी  धड़कन  सहेजने की
तेरी रग रग में गूँजने की

सुखों की छाँव  बैठने की
दुखों की  धूप  सेंकने की
                      ख्वाहिश ही रह गयी...


तेरे  तिनके  बटोरने  की
तेरे  क़तरों को जोड़ने की

तेरे काँटे   निकालने  की
तेरा आँचल सँभालने  की

ज़रा सी  ओस  चाटने की
जनम की प्यास पाटने की
                      ख्वाहिश ही रह गयी...  


तेरी आँखों  से देखने की
तेरी पलकों को पोंछने की 

तेरी  लहरों में  डूबने की
तेरे शिखरों को चूमने की

तुम्हारी  बात  बूझने की
तुम्हारे साथ  सींझने की
                        ख्वाहिश ही रह गयी...


तेरे   सपने   सँवारने की
तेरे  सच को पुकारने  की

तेरी  मिट्टी को  सींचने की
तुझ तक आकाश खींचने की

तुम्हारी  बाट   देखने  की
तुम्हारे   घाट  लौटने  की
                       ख्वाहिश ही रह गयी... 

  
तेरी  ख़ुशबू  में  महमहाता
तेरी  साँसों  से  लहलहाता

तेरे साँचे  पिघल के ढलता
तेरे रंगों में घुल के मिलता

समय की धूल  फाँकने की
तेरे सँग  खाक  छानने की
                        ख्वाहिश ही रह गयी... 


          ( 6 )

दर्द  देता  रहे   कोई  रह  रह के
मैं  जलूँ   और   मुहब्बत  महके

इतने  सामां   जुटा  दिल  मेरे
कोई  आयेगा  नहीं  फिर  कह के

आहों  पे  लोग   यहाँ   हँसते  हैं
दिल ये  हलका नहीं  होगा कह के

घर का इक नक्‍शा  बनाता हर दिन
रात  लग  जाता हूँ  उससे  ढह के

टूटी  कश्ती  सा   कभी   आऊँगा
वक्‍़त की  धार  में  शायद  बह के

आग  पहली   जली  होगी   इनसे
कैसे  छूते  ही  ज़रा   लब  दहके

पानी भी कितना जलाता  'अनिमेष`
तेरी  इन  आँखों में  देखा  रह के


           ( 7 )

सोचने  से  ही  सँवर  जाता  है
और  छूते  ही  बिखर  जाता है

मैं जहाँ ख्‍़वाब में भी जा सकूँ
जाये  वो  छोड़  अगर  जाता है

देखता हूँ  तो  न दिखता है कहीं
और  मेरी आँख में  भर जाता है

दुख के प्याले दे  इतने भर के
रोज़   पीने  से  असर  जाता है

शाम  घर  लौट  रहें  हैं   पंछी
दिल ये अब देख  किधर जाता है

प्यार  कितनों  का  पसीने जैसा
अपने ही जिस्म में  मर जाता है

नये  रस्तों  पे  नये  पाँवों  को
दे के वो  अपनी नज़र  जाता है

खुलती पहचान उसकी जब 'अनिमेष'
पास  से  कोई   गुज़र  जाता  है


                  ( 8 )

किससे   छूटेगा   कहाँ  हाथ  तुझे  क्या मालूम
कोई  कब  तक है  तेरे साथ  तुझे  क्या मालूम

उससे भी  अच्छी  तरह मिल  जो नहीं है अच्छा
उससे  फिर  होगी  मुलाक़ात  तुझे  क्या मालूम

कि  फूलों की तरह  भीग लें  इस शबनम में
अब  कहाँ  होगी  ये बरसात  तुझे  क्या मालूम

कितना  आसान  है  इलज़ाम   किसी को  देना
उसकी    मजबूरी--हालात   तुझे  क्या  मालूम

जोड़ कर रख सको जितना  रखो  इन रिश्तों को
खोयी  कितनों से  ये सौग़ात  तुझे  क्या मालूम

तू  तो  बस  जायेगा   वीरां  कहीं  हो  जायेगा
दिल के  भीतर  का  ये देहात  तुझे क्या मालूम

नींद  में   देर  तलक   ख्‍़वाब   धड़कते  जागे
उसने  दिल पर  था रखा हाथ  तुझे क्या मालूम

कैसे  लग जातीं  अभी दिल को  ज़रा सी  बातें
कल  रहेगी  भी  कोई   बात  तुझे क्या मालूम

तुम थे  जब सोये हुए  जागी लिये सुर्ख़  आँखें
भोर  को  बुनती   हुई  रात  तुझे क्या मालूम

काम  जिससे  चले  बस वो ही  हुनर चलता है
दुनियादारी  के   तिलस्मात  तुझे  क्या मालूम

दोस्ती  दुश्मनी कुछ भी  तो  यहाँ दिल से नहीं
काँच  के   सारे  ख़यालात  तुझे  क्या  मालूम

खिलता  इक फूल हो  या चलता  कोई अफ़साना
किस जगह  ख़त्म की शुरुआत  तुझे क्या मालूम

चालें तो चलते बिसात अपनी मगर क्या 'अनिमेष`
कहाँ  शह  होगी  कहाँ  मात  तुझे  क्या मालूम

                                       ~ प्रेम रंजन अनिमेष



      प्रेम रंजन अनिमेष
संक्षिप्त परिचय : 
·    जन्म : 1968 (आरा, भोजपुर, बिहार )
·    शिक्षा : विद्यालय स्तर तक पढ़ाई आरा (जैन स्कूल) में तदुपरांत  पटना विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर ( अंग्रेजी भाषा एवं साहित्य )
·    कविता संग्रह   'मिट्टी के फल', 'कोई नया समाचार'  और 'संगत` प्रकाशित 'अच्छे आदमी की कवितायें'  ईबुक के रूप में वेब पर अगली कविता पुस्तकें     'बिना मुँडेर की छत', 'अँधेरे में अंताक्षरी', 'नींद में नाच'   और 'माँ के साथ'   प्रकाशन की प्रक्रिया में
·    कविता के लिए भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार
·    कुछ कहानियाँ भी प्रकाशित पुरस्कृत
·    उपन्यास 'स्त्रीगाथा'  एवं 'परदे की दुनिया'  शीघ्र प्रकाश्य
·    बच्चों के लिए कविता संग्रह : 'माँ का जन्मदिन'  और 'आसमान का सपना'  प्रकाशन की प्रक्रिया में,         'कच्ची अमिया पकी निंबोलियाँ' , 'कुछ दाने कुछ तिनके'  तथा 'मीठी नदी का मीठा पानी'  ·    पानी'  प्रकाश्य
·    नोबल पुरस्कार प्राप्त आयरिश कवि सीमस हीनी और अग्रणी अमरीकी कवि विलियम कार्लोस विलियम्स की कविताओं का अनुवाद
·    ब्लॉग 'अखराई`, बच्चों के लिए 'बचपना`

        ( स्थायी आवास : द्वारा/ प्रोफेसर रमाकांत प्रसाद सिंह,  'जिजीविषा' ,विवेक विहार,                                        हनुमाननगर पटना  800020 ) 
      वर्तमान पता : एस 3/226, रिज़र्व बैंक अधिकारी आवास, गोकुलधाम, गोरेगाँव (पूर्व),
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