जगजीत सिंह के जन्मदिन यानी 8 फरवरी को इस बार इंदौर में एक शाम रखी गयी उनके नाम । वहाँ मैं भी आमंत्रित था और अपनी कुछ ग़ज़लें सुनायीं मैंने अल्फ़ाज़ के साथ साथ किसी ख़ुशबू की तरह जिनकी धुनें भी अपने आप कभी मुझ तक चली आयी थीं । उस सोज़ और आवाज़ के जादूगर को स्मरण करते हुए अबकी दो ग़ज़लें साझा कर रहा हूँ जो अक्तूबर 2011 को जगजीत के जाने के बाद दिल से एक सदा की तरह उभरी थीं और तब 'नई दुनिया' के साहित्यिक परिशिष्ट में आयी थीं...
- प्रेम रंजन अनिमेष
दो ग़ज़लें...
( जगजीत सिंह के जाने के बाद )
एक आवाज...
एक आवाज़ सो गई है अभी
ख़ल्क़ ख़ामोश हो गई
है अभी
कोई वीरानी
हर तरफ़ जैसे
रूह हर शै से खो
गई है अभी
ज़िंदगी थी हाँ ज़िंदगी थी वही
अपने भीतर से
जो गई है अभी
धूप में हल्की हल्की सी
बारिश
आसमानों को धो
गई है अभी
दर्द जो शहद से भी है गाढ़ा
याद पहली समो गई है अभी
साँझ कैसी धुआँ धुआँ सी है
रोशनी दर
पे रो गई है अभी
नींद इन
सूनी सूनी आँखों में
टूटे सपने पिरो गई है अभी
रोशनाई से लिक्खे हर्फ़ों को
इक सियाही डुबो गई है
अभी
रास्ते में कहीं मिले शायद
बेबसी देख लो गई है अभी
एक पल पहले
थी नज़र रह पर
आस भी हो न हो
गई है
अभी
आँख खुलते ही
इक किरण पहले
सच की किरचें
चुभो गई है अभी
फूल ख़ुशबू
के ख़ाली दामन में
फिर मुहब्बत सँजो गई है
अभी
सुबह तक जागता रहूँ 'अनिमेष'
रात पलकें भिगो गई
है अभी
तेरे जाने पे...
तेरे जाने
पे भी आँखों में वो पल ज़िंदा
है
तेरी आवाज़ में हर एक ग़ज़ल ज़िंदा है
कब फ़ना होते हैं जो लोग दिलों
में जीते
ख़ाक बस ख़ाक में लौटी
है असल ज़िंदा है
आँखें हैं जिनसे
कि बच्चे की किलक
झाँके है
और हँसी में वही मासूम सा कल ज़िंदा है
वक्त के आगे
क्या औक़ात किसी पत्थर की
ये मुहब्बत
ही है जो ताज़महल ज़िंदा है
हों भरी पलकें
रहे दिल में हरा
कुछ हरदम
इनके चलते ही
तो ख्व़ाबों की
फ़सल ज़िंदा है
उम्र कटने को
तो कुछ ऐसे भी
कट जायेगी
दफ़न हम ख़ुद
में कहीं अपना बदल
ज़िंदा है
ज़िंदगी मौत से हारी न कभी हारेगी
उसकी ये दरियादिली
है कि अज़ल
ज़िंदा
है
एक बस तेरी
कमी है चले आओ 'अनिमेष'
देख तो कितनी यहाँ चहल पहल जिंदा है