सोमवार, 19 जनवरी 2015

पहला स्‍वर



पिछला साल बड़ी दीदी की अंतिम विदाई के साथ खत्‍म हुआ । और नया साल शुरू हुआ है माँ के जीवन संघर्ष से । पता नहीं क्‍या है भविष्‍य के गर्भ में । मन ऐसे में शुभ और मंगल की कामना ही कर सकता है !
    अपनी कविताओं की एक पांडुलिपि है माँ के साथ । माँ और दुनिया भर की सारी माँओं को समर्पित इस कविता संग्रह में माँ से जुड़ी कवितायें हैं । अपने इसी अप्रकाशित कविता संग्रह से दो अप्रकाशित कवितायें इस बार । चा‍हा तो यही कि माँ इस कविता संग्रह को प्रकाश में आते देख पातीं । पर अब शायद शुभ‍कामनाओं से ही यह संभव हो !  अभी तो प्रयास माँ के जीवन पुस्‍तक में कुछ और पन्‍ने जोड़ पाने का है

                                     ~ प्रेम रंजन अनिमेष
   
पहला स्‍वर


अंतिम समय
माँ आवाज दे रही
उस पहले स्‍वर को
जिसने बनाया
उसे माँ...!



स्‍वरलिपि


बोली है माँ
जिसे धीरे धीरे
सब भूलते जा रहे

बूढ़ी उस माँ को
मैं उसका छोटा बेटा
बड़ा जो हो चला
सिखलाना चाहता
अपनी वर्णमाला
भाषा की वर्णमाला

सिखलाता लिखना
काँपती उँगलियाँ थाम कर उसकी
चलना सिखलाता
कागज पर
इस वार्धक्‍य में

जैसे उसने सिखलाया
बचपन में मुझे
पग धरना
आगे बढ़ना इस धरती पर

व्‍यंजन वह जानती
वही तो रही
पकाती परोसती
सबके लिए जीवन में
स्‍वर में अलबत्‍ता होती कठिनाई
कभी आवाज कहाँ उठायी
हक के लिए अपने
किसी इच्‍छा किसी स्‍वप्‍न को 
स्‍वर कब दिया

जिद्दी मैं
फिर भी लगा
पीछे पड़ा
आगे खड़ा
कि सिखला कर ही मानना
स्‍वर के प्रकार
अकार इकार उकार

हर कुछ तो अब तक
किया स्‍वीकार
फिर क्‍या हरस्‍वीकार हरस्‍वीकार ( हर्स्‍व इकार ) ?

बोलती माँ आजि‍ज आ
भीतर भरभरती दीर्घ ईकार...।