रविवार, 6 दिसंबर 2020

बात...

 

कभी ऐसा होता है कि एक जीवंत स्मृति किसी सप्राण अभिज्ञान की तरह कविता तो रहती है मगर जिससे वह कविता उसे होता जाना... !  मेरे तीसरे कविता संग्रह 'संगत' की एक सर्वप्रिय कविता है 'बात' । चार दिसम्बर की रात इस कविता की नायिका ने विदाई ले ली । माँ से कोई सवा साल छोटी  बड़ी मौसी थीं  बिलकुल माँ सी ! वर्ष 2015 में माँ का जाना हुआ दो बरस पहले मौसी हमारे यहाँ मुंबई आयीं और रहीं तकरीबन दो सप्ताह । पास पड़ोस वाले सबको उनमें माँ की वही झलक मिलती । हमारे बच्चों को तो यूँ लगा जैसे दादी लौट आयी हैं फिर से ! लगभग साल भर से मौसी बीमार थीं और तकलीफ में भी ।  जाना उनके लिए मुक्ति थी मानो ऐहिक और दैहिक नश्वरता से । हममें और हमारी स्मृतियों में  वे जीवंत हैं और शाश्वत ! जैसे उनसे अनुप्राणित यह कविता  

                                                ~ प्रेम रंजन अनिमेष

 

बात 


µ

 

ऐसे ही बैठे रहते

गाल पर हाथ दिये

कुछ नहीं कहते

 

उन्हें देखने आयीं मौसी

निहार रहीं

 

मैं तो इन्हें अब भी

उसी रूप में देखता

जब बोलते थे

कहा करते पिता

 

उसी रूप में

जैसा पहले पहले देखा होगा

जब खत किताबत हुआ करती थी

पाती में रचे जाते गीत छंद

 

सन केश सलटाती

मौसी सुनातीं बंद कोई

वही रूप यानी किसी बिसरे गीत का मुखड़ा

 

साली आयी हैं

कुछ तो बात कीजिये

हम बढ़ावा देते

 

क्या करें अब

बस

हो गयी बात

हँसते वे सकुचाते

जैसे ठिठके पहले पहल

 

प्रीत के अंत और शुरुआत

शब्द ज्यादा नहीं देते साथ

छोड़ देते हाथ…

                                                      🌸

                                                                                 प्रेम रंजन अनिमेष

 


गुरुवार, 29 अक्तूबर 2020

आम अनाम की शक्ति पूजा

 

'अखराई' में इस बार साझा कर रहा अपनी हाल की एक कविता आम अनाम की शक्ति पूजा, जिसे आप सबने बहुत सराहा है । प्रख्यात रंगकर्मी एवं लब्धप्रतिष्ठ अभिनेता श्री राजेंद्र गुप्ता जी के भावपूर्ण पाठ के जरिये भी यह कविता बहुतेरे कविता प्रेमियों तक पहुँची और प्रशंसित हुई है । तो आप सबका अतिशय आभार व्यक्त करते हुए सादर प्रस्तुत कर रहा अपनी यह कविता  

                                                 ~ प्रेम रंजन अनिमेष


आम अनाम की शक्ति पूजा


µ



माँ 

यदि सचमुच है

तुममें शक्ति 

 

तो इस धरती को अब तक

पापियों आतताइयों से

मिली नहीं क्यों मुक्ति

 

जिनसे यह संसार भरा है 

क्या तुमने अखबार पढ़ा है ?

 

बरस बरस तुम्हारी साधना

क्या आदमी को आदमी 

पायी बना ?

 

सुना 

अब अन्यायी अनाचारी 

दुराचारी भ्रष्टाचारी स्वेच्छाचारी ही

साध रहे तुम्हारी भक्ति 

 

और जो अच्छे

जो सच्चे 

होने लगी उन्हें विरक्ति 

 

तुम्हारी शक्ति 

क्या कुछ नहीं कर सकती 

 

माँ 

सचमुच क्या 

कुछ नहीं कर सकती...?

                                                     🌸

                                                                            प्रेम रंजन अनिमेष


मंगलवार, 29 सितंबर 2020

आगामी कविता संग्रह 'प्रश्नकाल शून्यकाल' से कविता ‘प्रश्नचिह्न’

 

अपने आगामी कविता संग्रह 'प्रश्नकाल शून्यकाल' से कुछ कवितायें 6 एवं 26 सितम्बर को जनसुलभ पुस्तकालय' और जनशब्द द्वारा आयोजित अपने काव्यपाठ में सुनाई थीं, उनमें से एक कविता प्रश्नचिह्न 'साझा कर रहा आप सबके साथ । इस आगामी संग्रह की कुछ कवितायें  'दस्तावेज', 'नया ज्ञानोदय' आदि पत्रिकाओं में आयी हैं और कुछ अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशन की प्रतीक्षा में    हैं ।  पांडुलिपि भी साल की शुरुआत से तैयार है । एक कोशिश अपनी ओर से रहती है कि हर नया संग्रह कुछ नया लेकर आये ! इस संग्रह 'प्रश्नकाल शून्यकाल' की खासियत है कि इसमें प्रश्न करती सवाल उठाती  कवितायें  हैं   देखें संग्रह कब तक आ पाता है । तब तक यह कविता 'प्रश्नचिह्न' 

                                                           ~ प्रेम रंजन अनिमेष

प्रश्नचिह्न                                          

 µ


कोई सीधी सरल रेखा
नजर आती मुश्किल से
इस दौर में

मुड़ा तुड़ा प्रश्नचिह्न
दिखाई देता हर ओर 


देश पर प्रश्नचिह्न
दुनिया पर


वर्तमान पर
इतिहास पर
भविष्य के भी आगे
खड़े प्रश्नचिह्न बड़े


कोई कहे न कहे
मगर देखो तो
दिखता है
साफ साफ या सहमा सकुचाया

 

चेहरों पर

आँखों में 

निशान सवालिया

 

 

संभवतः पुतलियों में चुभा

और भीतर मन के

इसलिए झलकता हर जगह

प्रश्नचिह्न सामने 

 

 

आसमान चूमते बादलों में 

टूट कर गिरे बालों में

झुके पेड़ों

सिर उठाये पहाड़ों से

 

 

यह विराम चिह्नों में 

बेकल बेधक सबसे 

या शायद विराम चिह्न ही नहीं 

सच पूछें तो 

( पूछने को तो सपने भी पूछ सकते )

 

 

क्योंकि बात खत्म नहीं होती

शुरू होती यहाँ से

 

 

शासन पर प्रश्नचिह्न

अर्थ और  व्यवस्था पर

संविधान पर

स्वतंत्रता समानता

और नागरिकता पर

 

 

धर्म राजनीति

संसद न्यायालय 

लोक और तंत्र

तीनों पालिकायें चारों स्तंभ

पंच परमेश्वर

सब सवालों के दायरे में

 

 

प्रश्नों से भरा प्रश्नाकुल समय यह

पूछने का रिवाज जिसमें 

केवल परीक्षाओं में 

और वहॉं भी उत्तर के

विकल्प दिये हुए होते

और जवाब चुनना भर

'इनमें से कोई नहींजिनमें

सबसे उपयुक्त जान पड़ता

 

 

उत्तर आँकने की

जल्दबाजी में परीक्षार्थी

प्रश्नपत्र पढ़ने की फुर्सत भी नहीं 

प्रश्नचिह्न देखना तो दूर 

 

 

जटिल काल है यह

जरूरी नहीं 

हर प्रश्न के आगे

चिह्न हो 

और हर चिह्न वाला

प्रश्न ही

सही सही

 

 

अच्छी कविता की तरह

सच्चे प्रश्नों का भी

कोई तय सूत्र कहाँ 

 

 

बचपन नहीं 

बस विस्मयादिबोधक

न बुढ़ापा पूर्णविराम

न ही जवानी खाली प्रश्नचिह्न

 

 

समझाना चाहता

पर आप उलझता जाता 

कटी पतंग के मांझे वाले धागे सा

 

 

सवाल ही सवाल हर तरफ 

हल नहीं

न राजा के ऊँचे महल में 

न मिट्टी में धँसे हल में 

(और यह जमीन से जुड़े ही जानते

कि धँसना हमेशा 

फँसना नहीं होता 

जूझना हो भले )

 

 

उत्तर के लिए देखते 

अकसर बापू की ओर 

पर सत्य के साथ प्रयोग के पन्नों पर

पड़ी उनकी ऐनक के खाँचे

गोल शून्य के बदले

एक दूसरे से जुड़े 

प्रश्नचिह्नों सरीखे लगते

डंडे जिनके हो गये मुड़ कर कमानी

 

 

हमारे समय के

कई ज्वलंत प्रश्नों में

प्रश्न तो अब भी सुलग धधक रहे

मगर झुलस गये

चिह्न उनके

 

 

नैतिकता के

वैचारिकता के

सामाजिकता के

प्रश्न ऐसे न जाने कितने

 

 

हर सुबह सूर्य उगने के बाद

जो किरणें चली आती थीं सीधी

आज देख रहा

किसी प्रश्नचिह्न की तरह उन्हें

अपनी खिड़की पर

 

 

इस भयावह दमघोंटू 

तुमुल कोलाहल कलह भरे 

रणनीतिक चुप्पी के युग में 

प्रश्नाकुल मैं 

- जबकि अभी अभी सरकार ने

क्या कब कहाँ क्यों और कैसे जैसे 

क से शुरू होने वाले शब्द प्रतिबंधित कर दिये हैं 

और सारे प्रश्नवाची हटाये जा रहेठ्यक्रम से -

यदि अनुमति दें 

तो इस कविता का समाहार करूँ 

एक प्रश्नचिह्न से...?

                                                 

                                                                            प्रेम रंजन अनिमेष