रविवार, 25 फ़रवरी 2018

रंगों को याद करते हुए...



             

होली की शुभकामनाओं के साथ
अखराईपर इस बार साझा कर रहा अपनी कविता रंगों को याद करते हुए...  


                         ~ प्रेम रंजन अनिमेष


 रंगों को याद करते हुए...

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रंगों से  कितनी  आस  थी  अब  टूटने  लगी
फागुन की  कैसी  प्यास थी  अब  छूटने लगी


आँखों  में  कोई  रंग  अगर  है   तो  इसलिए
दुनिया  गुलाल  झोंक  कर  अब  लूटने  लगी


रिश्ता ये किस तरह का था अपना वफ़ा के साथ
दुल्हन  वो  पहली  रात  से  ही  रूठने  लगी


सपनों के साथ  सच  को  पड़ा  धोना  माँजना
हाथों  से  कितनी  जल्दी   हिना  छूटने  लगी


ऐ प्यार  तेरे  बिन  कभी   जीना  मुहाल  था
अब  धीरे  धीरे  लत  तेरी  भी   छूटने  लगी


दो चार पल  ख़ुशी के  कहीं  मिल भी जो गये
फिर   पीर  आ   कलेजा  वहीं   कूटने  लगी


होता नहीं है  अब तो  किसी सच का  ऐतबार
कुछ ऐसी कर दी दिल से  किसी झूठ ने  लगी


पत्थर बना दिया  कभी जिस दिल को वक़्त ने
कोंपल  नयी   वहाँ  से   अभी   फूटने  लगी


ख़ुद को  हवाले  कर दिया था  आग के  मगर
आकर  बुझा  दी  होंठों के  इक  घूँट ने  लगी


आँखों में  रातें  जागना  अनिमेष आया काम
पहली  किरण  सवेरे  की   अब  फूटने  लगी


  प्रेम रंजन अनिमेष