कविता के साथ साथ कहानी भी
लिख लेता हूँ। कवि होने का फायदा है कि कहानियों में भी यथास्थान काव्य कौशल काम
आता है। सौभाग्यवश 'गूंगी माँ
का गीत', 'माई रे...', 'दी', 'पंचमी', 'सात सहेलियाँ...', 'पानी पानी', 'हिन्दी टीचर' आदि मेरी कहानियों के साथ ही उनमें प्रयुक्त कविताओं गीतों को भी पाठकों ने सर आँखों पर लिया और बहुत सराहा । अभी 'कथादेश' के अक्तूबर अंक में नयी कहानी 'तोहरी सुरतिया देख के...' पढ़कर लगातार फोन आ रहे
हैं । सुधी पाठकों व कथा मर्मज्ञों को यह कहानी तो भायी ही है, उसमें सम्मिलित मेरी कविता 'अंतर्देशी' और गीत भी कहीं उनके अंतरतम के तार छू सके इसके लिए आभार !
इस बार 'अखराई' के मंच पर अपनी यही कविता 'अंतर्देशी' रख रहा हूँ । स्वाभाविक रूप से, कहानी के संदर्भ के साथ संभवतः यह कविता अधिक संवाद करे और उसके साथ इसे पढ़ना अवश्य चाहेंगे आप । किन्तु पहले मूल रूप से यह एक स्वतंत्र कविता के रूप में ही लिखी गयी थी (और कविता संग्रह 'नींद में नाच' में संकलित है जो भारतीय ज्ञानपीठ के पास प्रकाशन प्रतीक्षा में है ) । इसलिए इस तरह भी इसे समझा और सराहा जा सकता है । अगली बार, जैसा कई लोगों का आग्रह है, इस कहानी के दोनों गीत होंगे आपके सामने ! एक बार पुनः धन्यवाद पढ़ने और इतना सराहने के लिए । इसी तरह स्नेह बनाए रखिएगा
इस बार 'अखराई' के मंच पर अपनी यही कविता 'अंतर्देशी' रख रहा हूँ । स्वाभाविक रूप से, कहानी के संदर्भ के साथ संभवतः यह कविता अधिक संवाद करे और उसके साथ इसे पढ़ना अवश्य चाहेंगे आप । किन्तु पहले मूल रूप से यह एक स्वतंत्र कविता के रूप में ही लिखी गयी थी (और कविता संग्रह 'नींद में नाच' में संकलित है जो भारतीय ज्ञानपीठ के पास प्रकाशन प्रतीक्षा में है ) । इसलिए इस तरह भी इसे समझा और सराहा जा सकता है । अगली बार, जैसा कई लोगों का आग्रह है, इस कहानी के दोनों गीत होंगे आपके सामने ! एक बार पुनः धन्यवाद पढ़ने और इतना सराहने के लिए । इसी तरह स्नेह बनाए रखिएगा
~ प्रेम रंजन अनिमेष
अंतर्देशी
यही कहता है वह
हाँ यही...
कनकट घड़ा हो तुम तो
फूटोगी भी नहीं !
धोखा और मुझे ?
जान जाता मैं तो उम्र औरत की
खुली उसकी पीठ देख कर
फाँस लिया मढ़ दिया गले मेरे
पाल पोस कर रखा यह बीमारियों का घर
फटा चमरौंधा ले जाएगा जिसे नहीं कोई
दरका आईना तुम
गिर कर टूटोगी भी नहीं !
गये हों पड़ोसी कहीं तो डरती पास आने में
आँच के करीब जाते लगता डर
ऐसे घुटती घर में और बिसूरती दरवाजे से लग कर
रात शीत में कर देता जब बाहर
जानता हूँ जैसी तुम
बीच सड़क पर
कलेजा कूटोगी भी नहीं...!
छा जाता आँखों के आगे अँधेरा फिर जब छँटता
तेरा माँ और बूढ़े पिता का तैर जाता चेहरा
भाई बहनों की सोच कर रह जाती कभी
मुँह आने वाले बच्चों का देख कर
कहकहे लगाता पीकर
कहता भला ठीकरे को क्या डर
कितना भी मारूँ ठोकर
उम्र भर की कैदी हो
इन सलाखों से इतनी आसानी से
छूटोगी भी नहीं...
~ प्रेम रंजन अनिमेष