मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

संकल्प


नववर्ष की शुभकामनाओं के साथ अपनी यह कविता प्रस्‍तुत कर रहा हूँ

                              प्रेम रंजन अनिमेष

संकल्प



                           
तुम जिंदगी हो मेरी
तुम्हारे साथ अभी
बहुत कुछ करना है


जोड़ने  हैं सेतु  नये
गाँठनी   है    नाव
पथ्य पंथ का पकाना
फेंट    धूप   छाँव

हाथों  में  हाथ  होंठ  होंठों पे  धरना है


चालतीं नदियाँ कहीं 
पुकारते  पहाड़  ये 
हाँकता भीतर  भरा 
गुबार ये  उजाड़ ये

भूलना किसी को क्‍यों सभी में बिसरना है


कितना कुछ बाकी है
कितना कुछ  छूटा है
बूँद  बूँद  रीत  रहा
तन का घट  फूटा है

जितनी  हैं  बवाइयाँ  नेह  वहाँ भरना है


पोंछनी है आँख हर इक
और   सहेजनी   हँसी
सत्तू  में  सान  नमक
जैसी यह  तनिक खुशी

काँटों से  चोटों से  और भी  निखरना है



अपनों से  मिलना है
सपनों को लिखना है
दुनिया को लखना है
दुनिया को दिखना है

रात के  समंदर में  डूब  कर  उभरना है


कहा नहीं  किया नहीं
जो मन में गुन आया
साज  छूट  टूट  गये
साथ था  जिन्हें लाया

एक इसी जीवन में  जीकर सब  मरना है...







रविवार, 29 नवंबर 2015

लौटते हुए

पिछले दिन काम से लौटते
रास्‍ते में
मिली यह कविता
आज आपके सामने
रख रहा...

                          प्रेम रंजन अनिमेष

लौटते हुए


एक सीधी सी बात है
जो भटकाती मुझे

शाम काम से घर
उछाह में भर कर
लौटने की एक वजह
कम हो गयी है

रास्ता तकती
दरवाजे पर
अब माँ नहीं

है तो वह कहीं
वह है हमारे साथ ही


सिर पर उसी का तो हाथ है...!

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2015

कोई मिलता है...





संगीत की बाकायदा तालीम ली नहीं कभी । या इस तरह भी कह सकते हैं कि कोई एक तयशुदा गुरू या उस्ताद रहा नहीं इसमें अपना । सुनते गुनते सीखता सहेजता रहा सबसे मन ही मन । कुदरत की देन मान सकते हैं कि मन मानस के भीतर जो छंदोबद्ध रचनायें आकार लेती हैं अकसर अपनी धुन भी साथ लिये । ऐसे ही सुबह तफरीहन गुनगुना रहा था अपनी यह रचना तो किसी ने कहा – लफ्ज तो सारे पड़े नहीं कानों  में । लेकिन लय के साथ पहुँचा जितना उसने छू लिया भीतर तक ! छलछला दिया । फिर अनुरोध कर सुनी गजल पूरी । सोचा इस बार साझा करूँ यही साथ आपके...

                            प्रेम रंजन अनिमेष


कोई  मिलता है  उम्र भर  के लिए  थोड़े ही
प्यार  होता  गुज़र  बसर  के लिए  थोड़े ही

ले के  जाती  हवा  जो  ख़ुशबू तेरी  जाने दे
ले के  जायेगी  अपने  घर के लिए  थोड़े ही

इक नयी सुबह भी बनानी हमें मिलकर दोस्त
साथ  अपना  है  रात भर  के लिए  थोड़े ही

क्या करोगे  सजा के  पलकों पे  मोती इतने
रह  गये  लोग  इस हुनर  के लिए  थोड़े ही

अनसुनी  ये  दुआयें  चुन ले  लबों से  अपने
आह  जो दिल में है  असर के लिए  थोड़े ही

चूमते  भौंरे  से  कहे  ये  कली   कानों  में
ऐसे  सपने  हैं  इस उमर  के लिए  थोड़े ही

मुझको पहुँचा के  जायेगा वो  कहाँ और कैसे
रास्ता  कोई   हमसफ़र  के  लिए  थोड़े  ही

मेरे दो आँसू  कल मिलें  जो किन्हीं आँखों से
है  ये  अख़बार  की  ख़बर के लिए  थोड़े ही

सब हैं  क़ानून की  नज़र में  बराबर  लेकिन
है  ये  क़ानून  हर बशर  के  लिए  थोड़े ही

हो मुहब्बत  या  ज़िंदगी  या कोई भी रिश्ता
रखना  सामान  हर सफ़र  के लिए  थोड़े ही

अपना घर फूँकने का  फ़न ये रहा  सदियों से
शायरी   लाल  या  गुहर  के  लिए  थोड़े ही

अपने  कांधों  पे  हैं  उठाये  हुए  फ़िक्रे जहां
कोई  कांधा है  अपने सर  के  लिए  थोड़े ही

आज जिस दौर से गुज़र रही दुनिया  'अनिमेष
राग  कोई  है  इस  पहर  के  लिए  थोड़े ही



मंगलवार, 29 सितंबर 2015

माँ कितनी अकेली होगी...



कविता के साथ
अकसर होती यह बात

कि वह रचा जिसे कभी पहले
बाद बरसों के
किसी समय
हठात

आकर खड़ी हो जाती
कवि के सामने
साक्षात

धीरे से चुपचाप
कंधे पर रखती हाथ...


    सितंबर की 29 तारीख है आज । माँ को गुजरे हो गये दो महीने । अपनी इस कविता की तरह ही कभी कॉलेज के दिनों में लिखी कुछ ग़ज़लों के अशआर आकर छू गये । वही कुछ ग़ज़लें अपनी रख रहा हूँ सामने इस बार
                                              
                     प्रेम रंजन अनिमेष



( 1 )

क्या  दवा   वक्त  से  ले  ली  होगी
घर  में  माँ  कितनी  अकेली  होगी

वो जो  सिमटी सी  सजी सी  दुल्हन
ख़ुद  की  ख़ातिर  भी  पहेली  होगी

आज   लगती  है  जो  पुरखन जैसी
साथ   अपने   कभी   खेली   होगी

कोई  रूठा  तो   मना  लो   उसको
अभी   कुट्टी    अभी   मेली  होगी

प्यार  को  ज़िंदा   अगर  रख  पाये
दिन   नया    रात   नवेली   होगी

फिर  तेरी  ख़ाक में ही  क्यों सने
कहीं   चादर  तो  ये   मैली   होगी

फूल  जंगल   में   कोई   मुसकाया
दूर   ख़ुशबू    कहीं   फैली   होगी

दिल  में  दुनिया  को  बसाये   बैठे
जेब   में     धेली   अधेली   होगी

होंठों  पर  होंठ  भी  रख  सकते हो
क्यूँ    परेशां    ये   हथेली   होगी

मौत  आती है  तो  आये  'अनिमेष'
ज़िंदगी   की   ही    सहेली   होगी



( 2 )

जब  शहर  में  चहल पहल  होगी
कहीं  गुमसुम  कोई  ग़ज़ल  होगी

फिर भी  होंठों को  जोड़  होंठों से
कोई  मुश्किल  इससे हल होगी

दो  बड़ों को  जो  साथ  ले आयी
किसी  बच्चे  की  इक चुहल होगी

अगले  पल   बाँहों  में  समायेगी
ज़िंदगी  रूठी   पहले  पल  होगी

भीड़  में   छोड़  ना     तनहाई
तू  नहीं  तो  भी  दरअसल  होगी

कोई  गिरता  है  तो   उठाने  की
कोई  कोशिश   आजकल  होगी

दिल रहा भी  तो  दिल की अच्छाई
कल  वही   पहले   बेदख़ल  होगी

ख़ाली  कर  दो  बिसात  के  ख़ाने
बादशाहों  की   शह  बदल   होगी

बेवफ़ाओं  को   भी    वफ़ा   देना
ये भी  अपने  में  इक पहल  होगी

मंज़िलें  सबको कब मिलें  'अनिमेष'
साथ    राह  कुछ  सहल  होगी



( 3 )

इतने पे  छोड़  जा  कि  किनारा  दिखाई दे
जब  रात हो  तो  राह का  तारा  दिखाई दे

इक सच्ची आशिक़ी की ये दुनिया मिसाल है
फिर कैसे  इसको जिसने  सँवारा  दिखाई दे

दिल घर ही ऐसा है  कोई पहरे दे कितने ही
खिड़की  कहीं  खुले तो  ये सारा  दिखाई दे

निकला है  चाँद जो  उसे भर लो  निगाह में
क्या ठीक है  कि  कल वो  दुबारा दिखाई दे

ठिठकी रहीं इक उम्र तलक  कितनी कश्तियाँ
कब  उस तरफ़ से  कोई  इशारा  दिखाई दे

दिल जानता है अब नहीं  वो पहले जैसी बात
पर  दूसरों  को  क्यों  ये नज़ारा  दिखाई दे

धोखा  बहुत  बड़ा  हुआ है  कोई  समझना
कहीं  और  गरचे  अक्स  हमारा  दिखाई दे

पलकों पे होंठ रख के अज़ल ले के जाय जब
हर पल  जो  हमने  साथ गुज़ारा  दिखाई दे

आँखों की ये ख़राबी या 'अनिमेष'  और कुछ
पीने  से  पहले  पानी  ये  खारा  दिखाई दे

                                       प्रेम रंजन अनिमेष