बुधवार, 31 अगस्त 2022

रहने दे...

 

'अखराई' के इस भाव पटल पर इस बार साझा कर रहा हूँ अपने आने वाले कविता संग्रह ' अंतरंग अनंतरंग ' से अपनी यह कविता  रहने दे...  । आशा है पसंद आयेगी

                               ~ प्रेम रंजन अनिमेष


रहने दे

µµ

 

पहले पहले

होंगे कितने

पर आखिर में 

 

तू ही रहेगा 

मेरे लिए 

मैं तेरे लिए 

 

अगर जिंदगी 

दोनों को

रहने दे

 

उतने दिन

रहने दे

 

साथ साथ 

रहने दे...

                                

( आगामी कविता संग्रह ' अंतरंग अनंतरंग ' से )

 

                          µ

 

इसी कविता की दृश्य श्रव्य प्रस्तुति इस लिंक पर देखी सुनी सराही जा सकती है :

 

https://youtu.be/LsgSZ0My32Q 

 

                        प्रेम रंजन अनिमेष 



मंगलवार, 31 मई 2022

हर घर...

 

    यादों के ख़जाने से अपनी बरसों पुरानी एक ग़ज़ल, जो दिसम्बर 1988 में  'आजकल' में छपी थी जब मैं स्नातक का विद्यार्थी हुआ करता था, कुछ और अशआर के साथ साझा कर रहा हूँ  

    कविताओं, कहानियों, उपन्यासों, संस्मरणों, आलोचनात्मक आलेखों के संग्रहों की अनेकानेक पांडुलिपियों  तरह ग़ज़लों के भी पाँच छह दीवान तो तैयार पड़े हैं कबसे ।  ये प्रकाशित कब हो पायेंगे भगवान जानें या प्रकाशक ! वैसे भी इन दिनों प्रकाशक  किसी भगवान से कम नहीं, जो किसी किसी को ही मिलता है और किसी किसी पर ही मेहरबान होता है ! पहले यह दर्जा पाठक और आलोचक को प्राप्त हुआ करता था ।  किसी खेमे में रहा नहीं कभी और सिद्धांततः नजराने चढ़ावे देकर प्रभु को प्रसन्न करने से परहेज है तो इसका खामियाजा तो उठाना पड़ेगा ! अपनी खुद्दारी ने इसके लिए भी मन ही मन अपने को तैयार रखा है शुरु से । खैर, प्रभुता किसी की हो, सच्चा सर्जक तो सदा प्रतिसत्ता में ही रहता आया है ।    

    साफगोई की तरह ग़ज़लगोई का गुनाह भी बचपन से ही करता रहा हूँ। यह एक तरह से मेरा मनबहलावा भी है। छंदमुक्त कविता के मुक्ताकाश में विहार करते करते कभी कभी स्वर-लय-संगीत नैसर्गिक रूप अंदर जाग उठते हैं । जैसे मन लगाने के लिए कोई पतंग उड़ाता है, मैं कभी कभार छंद उड़ाता हूँ। यह समर्पित सृजन के बीच राहत का मेरा अपना तरीका है।  वैसे भी, बतौर साहित्यकार किसी भी तरह कीअस्पृश्यता का हामी या हिमायती नहीं हुआ जा सकता । कम से कम मैं तो इसका कायल नहीं ।   

    बहरहाल, बातें बहुत हुईं   अब रचना   का आनंद उठाया जाये 'अखराई' के इस भाव पटल पर ! किसी भाग्यविधाता की मध्यस्थता के बिना साहित्यभक्तों तक रचनाओं को पहुँचाने का एक जरिया यह भी है   

    तो साझा कर रहा अपनी यह ग़ज़ल हर घर... ! क्या उम्मीद कर सक्ते हैं कि हर घर तक जायेगी और सबको भायेगी…?

                               ~ प्रेम रंजन अनिमेष

 

                        हर घर...

 

              µ               

 

हर घर  अपना  घर  लगता है
इस  बस्ती  से  डर  लगता  है
 
भूले  भटके    हँस   देता   जो
कोई     जादूगर    लगता    है
 
होती  है  इक उम्र  कि जिसमें
साया   भी   सुंदर   लगता   है
 
सच में  प्यार  मिले तो  कर ले
दिल  इक  ले देकर  लगता है
 
जीता जगता  ख़्वाब  था  कोई
अब    दीवारो  दर   लगता  है
 
पूछती है तितली क्या सचमुच
सपनों  को  भी  पर  लगता है
 
विरहन  सावन सा  ये  जीवन
दुख   प्यारा  देवर   लगता  है
 
है  कितना  अपना  हर  लम्हा
खो  पाना   दूभर   लगता   है
 
नीची  छतें  हैं  इन  रिश्तों  की
आते   जाते    सर   लगता   है
 
अकसर  होता  हद  में  अपनी
ख़ुद  से जो  बाहर   लगता  है
 
हाथ   की   दूरी   पर   हैं   तारे
रात  कभी  जग कर  लगता है
 
मन  की  चींटी  देख  ललकती
उसको जहाँ  शक्कर  लगता है
 
तेरी अगन में  दहके  हुओं  को
सूरज   एक   शरर   लगता  है
 
मुझको  पहन कर  इतराये  वो
प्यार  को  भी  पैकर  लगता है
 
यार   को   प्यार  बना  लेने  में
बस  आधा   अक्षर   लगता  है
 
छूते   फिर   से   धड़क  उठेगा
देखूँ    जो   पत्थर   लगता   है
 
हूँ   इस  पर  तो   साथ  तुम्हारे
फ़ासला  भी  बिस्तर  लगता है
 
पानी    खोजता   है   ये  चेहरा
तर  होकर  बेहतर   लगता  है
 
अच्छा   लगता   है   जब   कोई
अपने   से   बढ़ कर   लगता  है
 
दर्द    दिखाता    रस्ता   सबको
रहबर     पैगम्बर     लगता    है
 
जिसका न कुछ किरदार वही अब
सबसे      क़द्दावर    लगता   है
 
कैसे   रहे   इनसान   यहाँ   पर
दहर   ख़ुदा  का  घर  लगता  है
 
उसको   ख़ुदा   मानें   तो  कैसे
जो  ख़ुद   से  बाहर  लगता   है
 
किससे आस और आसरा किसका
दर   से   ख़ाली   दर  लगता  है
 
जैसे    अकेला    बच्चा    कोई
दिल ख़ुद से  अकसर लगता है
 
मान    मानी   भीड़  में  कोई
हाथ  से  हाथ  अगर  लगता है
 
ठीकरे   जैसा   ये   जग   सारा
अपनी   ठोकर  पर   लगता  है
 
होता दुखी दुख देख के सबका
दीवाना    शायर     लगता    है
 
लहजा अलग है इन ग़ज़लों का
सबसे   जुदा   तेवर   लगता  है
 
शहर के सहरा में कौन 'अनिमेष'
जो
  भीतर  तक  तर  लगता  है

                                                                                                                     प्रेम रंजन अनिमेष 


शनिवार, 30 अप्रैल 2022

अमृत पर्व ...

 

यह वर्ष देश की आजादी का अमृत वर्ष है, जिसे बड़ी धूमधाम से मनाया जा रहा है । इस अवसर पर साधारण जन का स्वप्न कोई अमृत नहीं हैवरन सादा स्वच्छ पानी ! उसी परिप्रेक्ष्य में 'अखराई' के इस भाव पटल पर इस बार साझा कर रहा इस बार साझा कर रहा हूँ अपनी यह कविता  अमृत पर्व  

                              ~ प्रेम रंजन अनिमेष

 

अमृत पर्व

µ


आजादी के 
अमृत वर्ष में 
अमृत नहीं 
चाहता साफ पानी 
सबके लिए
 
उठ खड़ी होतीं
सवालिया निगाहें
क्या यह संभव है ?
 
स्वतंत्रता के 
इतने बरस बाद 
कैसे इतना भी 
न हो सका
नदियों से भरे पूरे
इस देश में  
 
क्या सूख गया
पानी हर आँख का 
और चुल्लू भर भी नहीं 
पास किसी के 
 
जल सोतों को
बाँध खींच कर 
क़क्रीट वनों की ओर
घोषित कर दिया गया विकास 
 
कैसी यह सोच 
खिलवाड़ जो करती 
प्रकृति से
कैसा अनाचार 
जीवन और जगत के साथ
 
अभिशप्त आज भी कितने
जानवरों का भी छोड़ा 
मल और मैल से भरा
रुग्ण गरलजल 
हलक में उतारने के लिए 
या जान देने के लिए 
तड़प कर प्यास से
 
क्या प्रतीक्षा 
मृत्यु शय्या पर पड़ी मानवता को
कि तीर कोई निकाल लायेगा
चीर कर छाती पृथ्वी का
लहू की तरह सूख चुका
अमृतपय उसके हिस्से का ?
 
मरीचिका बन चुके 
पानी के आईने में 
कौन देख सकेगा 
सच का चेहरा ?
 
पच्चीस बरस बाद
शताब्दी वर्ष मनेगा
और अधिक धूमधाम से 
 
सोच कर सोच भी
सिहर जाती
क्या तब भी 
सूरत रहेगी ऐसी ही 
 
होंगे अनगिन ऐसे
अतीत और भविष्य के 
सुनहले इस देश में 
मयस्सर जिन्हें न होगा
नीर स्वच्छ सादा ?
 
आखिरी बार गुलामी की
बेड़ियाँ तोड़ने के
बरसों बाद भी
माँग रही यह धरती 
खुली और धुली हवा
साँस लेने के लिए 
 
सच तो यही
कि आते रहते 
मौसम ऐसे
जिनमें उठती हवायें  
कुछ इस तरह की
कि साँस भी 
बन जाती साँसत
और उखड़ने लगतीं
जड़ें जमीन से
 
यह सब देखते 
पल पल तिल तिल घुटते
प्राण रह जाते सोचते
क्या इस पुण्यभूमि पर वे
खुल कर साँस ले सकेंगे
 
जो आजादी का 
नाम दूसरा
और वही
शर्त पहली
स्वतंत्रता की ...

                                                            µ

                       प्रेम रंजन अनिमेष  

 


बुधवार, 30 मार्च 2022

सुनवाई...

 

'अखराई' के इस भाव पटल पर इस बार साझा कर रहा प्रकाशन की प्रतीक्षा कर रहे अपने कविता संग्रह स्त्री सूक्त की पाण्डुलिपि से अपनी एक प्रिय कविता  सुनवाई  ! इसी कविता का डॉ. मनोरंजन प्रसाद सिंह द्वारा किये सुंदर वाचन का आस्वादन भी  नीचे दिये गये लिंक पर कर सकते हैं  :  

https://youtu.be/rewfTmEFD6o

                                 ~ प्रेम रंजन अनिमेष

 सुनवाई

 

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अजी सुनते हो !
उसने कहा
पर सुनने वाला 
कोई न था 
 
अजी सुनते होऽ
सारी उम्र 
वह कहती रही
बिना किसी सुनवाई
 
सुन रहे हो ?
यह कहते हुए 
नाम किसी का 
उसने लिया नहीं था
इसलिए कोई भी 
सुन सकता था
 
लेकिन किसी ने नहीं सुना
या सुन कर भी
अनसुना करना ही चुना
 
ऊँचे आसनों पर जमे
लोग ऊँचे
बहुत ऊँचा सुनते 
 
कविहृदय तो खैर
सुन सकते 
कलियों के 
फूल बनने की सरगोशी तक
मगर वे भी
अपनी अपनी
कहने में ही
रहे लगे 
 
कुछ कहने के लिए 
जब भी जैसे ही
होंठ उसके खुले
किसी ने रख दिये
उन पर होंठ
या फिर हाथ अपने
 
है कोई 
जो सुनेगा कहीं  ?
आवाज कबसे
गूँज रही
मानो प्रकाशवर्षों दूर 
तारों की रोशनी
 
क्या यह आवाज भी
उस रोशनी की तरह
किसी तक पहुँचेगी
देर से ही सही ?
 
सुनने की यह गुहार
बेकल पुकार 
आखिर किसकी 
 
आधी आबादी 
या पूरी जनता की 
 
जिसे इस
संज्ञाहीन संबोधन के सिवा
आगे कुछ कह पाने का
मौका ही नहीं मिला...

                                              🈴

( आने वाले कविता संग्रह ' स्त्री सूक्त' की पांडुलिपि से )

 दृश्य श्रव्य प्रस्तुति का लिंक :  https://youtu.be/rewfTmEFD6o


                       प्रेम रंजन अनिमेष