रविवार, 28 फ़रवरी 2021

फिर वसंत और एक वासंती आमंत्रण...

 

महामारी की मार से लंबे समय तक ऐसा आलम रहा कि लोग दरवाजों के पीछे सिमट गये और सब से दूर हो गये। अब जब नया वसंत आया है तो क्या एक बार फिर उसी पुराने अपनेपन की गुजारिश कर सकते हैं ? कविता में ही सही...!

 

इस परिदृश्य में यह काव्यामंत्रण और प्रासंगिक हो जाता है । तो 'अखराई' में इस बार अपना यही वासंती आमंत्रण साझा कर रहा । इस रचना के कुछ अंशों की संगीतमय दृश्य श्रव्य प्रस्तुति नीचे दिये गये लिंक पर सुन और सराह सकते हैं, जिसमें शब्दों के साथ साथ आवाज और धुन भी मेरी है :

 

https://www.youtube.com/watch?v=Z_0h41tS_to

 

विश्वास है पसंद आयेगी 

 

शुभकामनाओं सहित 

                                  ~ प्रेम रंजन अनिमेष

                              µ

   🍁 'चले आइये...' 🍁

                                

                             

 

चले   आइये    अब   चले   आइये 

बहुत   बढ़   गये   फ़ासले   आइये  

 

बहुत   हाथ   हाथों  में   आये  गये 

कभी   हमसे  मिलने  गले  आइये 

 

लबों से जो लब मिल पाये तो क्या 

दुआ  दिल  की   फूले  फले  आइये 

 

दिये से  दिया अब मिले  इस तरह

 ये लौ  दिल की  ऊँची जले  आइये 

 

जिधर दौर दुनिया का रुख़ आज है

ये दिल  कल  कोई  ले   ले आइये

 

बड़ी  मुश्किलें  हैं   ये  माना  मगर

  मगर   कम   नहीं   हौसले  आइये  

 

अभी  रोशनी  में  नहाये  हैं  आप

  हो  जब  शाम  सूरज  ढले  आइये  

 

जहाँ  चाह  हो  राह  रुकती  कहाँ 

अगर   मौत  भी  हो   टले   आइये

 

 समझते सँभलते  मिला कुछ कहाँ 

चलें   हो  लें   कुछ  बावले  आइये

 

शबे  वस्ल  की   राह  ताकते  हुए

ये   सपने    हों   साँवले  आइये

 

जो निकले तो सूरज भी निकला था

दिया सांझ का  अब जले  आइये

 

कहाँ  भूलता  प्यार  पहला  कभी 

साँस आख़िरी  भी  छले आइये

 

जहाँ बिछड़ा था अपना बचपन कभी 

उसी     बूढ़े    पीपल    तले    आइये 

 

कहीं   जायेंगे    पर   कहाँ   पायेंगे

मुहब्बत   के    ये   मरहले   आइये 

 

अभी  इक सफ़र से  है आना हुआ 

बुलाते   हैं    फिर   आबले   आइये 

 

जहां ये  बहुत दिन से  ठहरा हुआ 

अब  इसमें  नयी  सोच  ले  आइये  

 

ये दुनिया शरीफ़ों की 'अनिमेष' कब

भले    जाइये     पर    भले    आइये 

                                                              µ

                                                                                    प्रेम रंजन अनिमेष