पिछले साल इसी समय महामारी के साये में बंद का वह दौर शुरू
हुआ था जिसमें कितने ही कामगार मजदूर बेकारी मजबूरी में भूखे प्यासे पाँव-पैदल ही
अपने गाँव अपनी मिट्टी के सफ़र पर निकल पड़े । एक ऐसा विह्वलकारी प्रवास जो विभाजन
के बाद देश में पहली बार देखा गया । उसी को बयान करती अपनी यह रचना 'घर जायेंगे...' साझा कर रहा इस बार 'अखराई' के माध्यम से
~ प्रेम रंजन अनिमेष
' घर जायेंगे... '
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बचे रहे तो घर जायेंगे
या रस्ते में मर जायेंगे
नाम निशान न कोई अपना
रह के साथ गुज़र
जायेंगे
होंगे जो क़िस्मत वाले कुछ
बन इक और ख़बर जायेंगे
कौर न दे गर मिट्टी अपनी
फिर मजबूर किधर जायेंगे
ऐसी दुनिया मत दिखलाना
आने वाले डर जायेंगे
इतने पग चलते छालों पर
रस्ते देख ठहर जायेंगे
क्या तट बाँहें फैलायेगा
कर तो पार भँवर
जायेंगे
सूखा सबकी आँख का पानी
अब प्यासे किस दर जायेंगे
दिल टूटेगा तो क्या
ग़म है
इतनी दूर बिखर जायेंगे
अमराई दुख से बौराई
झर फिर सब मंजर जायेंगे
पिंजरा पास है दूर गगन वो
पंछी नये किधर जायेंगे
आप तो हैं सरकार हमारे
फिर इक बार मुकर जायेंगे
और न कोई तो
बन साथी
मील के ही पत्थर जायेंगे
अपने देस में परदेसी
हम
जायें
किधर अगर
जायेंगे
हम पहले जो आख़िर मंज़िल
अपने
पैरों पर
जायेंगे
कुछ भी नहीं पर सबके होकर
दीवाने शायर
जायेंगे
जस की तस किसके बस 'अनिमेष'
धो तह कर चादर
जायेंगे
( गये बरस पाँव
पैदल ही मीलों दूर अपने गाँव घर की ओर निकल पड़े अनगिन लाचार मज़दूरों के नाम )
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प्रेम रंजन अनिमेष