यह वर्ष देश की आजादी का अमृत वर्ष है, जिसे बड़ी धूमधाम से मनाया जा रहा है । इस अवसर पर साधारण जन का स्वप्न कोई अमृत
नहीं है, वरन सादा स्वच्छ पानी ! उसी परिप्रेक्ष्य में 'अखराई' के इस भाव पटल पर इस बार साझा कर रहा इस बार साझा कर रहा हूँ अपनी यह कविता ‘अमृत
पर्व’
~ प्रेम रंजन अनिमेष
अमृत पर्व
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आजादी के
अमृत वर्ष में
अमृत नहीं
चाहता साफ पानी
सबके लिए
उठ खड़ी होतीं
सवालिया निगाहें
क्या यह संभव है ?
स्वतंत्रता के
इतने बरस बाद
कैसे इतना भी
न हो सका
नदियों से भरे पूरे
इस देश में
क्या सूख गया
पानी हर आँख का
और चुल्लू भर भी नहीं
पास किसी के ?
जल सोतों को
बाँध खींच कर
क़क्रीट वनों की ओर
घोषित कर दिया गया विकास
कैसी यह सोच
खिलवाड़ जो करती
प्रकृति से
कैसा अनाचार
जीवन और जगत के साथ
अभिशप्त आज भी कितने
जानवरों का भी छोड़ा
मल और मैल से भरा
रुग्ण गरलजल
हलक में उतारने के लिए
या जान देने के लिए
तड़प कर प्यास से
क्या प्रतीक्षा
मृत्यु शय्या पर पड़ी मानवता को
कि तीर कोई निकाल लायेगा
चीर कर छाती पृथ्वी का
लहू की तरह सूख चुका
अमृतपय उसके हिस्से का ?
मरीचिका बन चुके
पानी के आईने में
कौन देख सकेगा
सच का चेहरा ?
पच्चीस बरस बाद
शताब्दी वर्ष मनेगा
और अधिक धूमधाम से
सोच कर सोच भी
सिहर जाती
क्या तब भी
सूरत रहेगी ऐसी ही
होंगे अनगिन ऐसे
अतीत और भविष्य के
सुनहले इस देश में
मयस्सर जिन्हें न होगा
नीर स्वच्छ सादा ?
आखिरी बार गुलामी की
बेड़ियाँ तोड़ने के
बरसों बाद भी
माँग रही यह धरती
खुली और धुली हवा
साँस लेने के लिए
सच तो यही
कि आते रहते
मौसम ऐसे
जिनमें उठती हवायें
कुछ इस तरह की
कि साँस भी
बन जाती साँसत
और उखड़ने लगतीं
जड़ें जमीन से
यह सब देखते
पल पल तिल तिल घुटते
प्राण रह जाते सोचते
क्या इस पुण्यभूमि पर वे
खुल कर साँस ले सकेंगे
जो आजादी का
नाम दूसरा
और वही
शर्त पहली
स्वतंत्रता की ...
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✍️ प्रेम रंजन अनिमेष