पिछली बार अपनी कविता श्रृंखला 'बाज़ार में बेज़ार ' से कविता 'बाज़ार में इंतज़ार' प्रस्तुत की थी । इस बार उसी कविता श्रृंखला से एक और कविता ' बाज़ार में रोना ' । आशा है पसंद आयेगी
प्रेम रंजन अनिमेष
बाजार में रोना
एक बूढ़ा आदमी
रो रहा है
बीच बाजार में
क्या उसका
कुछ खो गया
?
कुछ ले न
सका
या जो लिया
काम का नहीं
निकला
धोखा हुआ
छला गया
ठगा गया
लुटा...?
बाजार में तो
ऐसा होता है
या बाजार वाली
नहीं
बात कोई और
कोई अपना दुख
कोई गुजर गया
क्या
छोड़ कर चला
गया ?
इस उम्र में
तो होगा यही
जाते देखेगा औरों
को
या खुद जायेगा
किसी न किसी
दिन तो ऐसा होगा
तय है यही
होगा
मगर बाजार और
उसके शोर
और भीड़ में
आदमी भूला रहता
हालाँकि बाजार कोई
मेला नहीं
न आदमी का
बचपना
अगर जान पाये
कोई
तो जानेगा
बाजार में छूटे
किसी बच्चे को
मिलाकर वह आया
है
उसके घर परिवार
से
रो रहा है
उस बच्चे का
चेहरा याद कर
कुछ इस बात
पर
कि कभी पहले
कोई उसे मिला
होता ऐसा
तो आज वह
कुछ और होता
कहीं और
नहीं बाजार का
एक व्यवसायी
जिसके पास
कोई नहीं
रोने के लिए भी
रोने के लिए भी
कुछ भी नहीं
न कोई
आदमी
या जगह
और इस बाजार
में इसका
चलन न कायदा...