गुरुवार, 29 जून 2017

मातृस्मृति...





    पिछली बार अपनी अमराईशृंखला की कुछ कवितायें साझा की थीं । उन्हें पढ़कर कई आग्रह आए शृंखला से कुछ और कवितायें साझा करने के लिए । अनुरोध सिर आँखों पर । शायद आगे कभी…!

    अभी तो बरसात की रुत है । झड़ियाँ लगी हुई हैं ! एक बरस ग्यारह महीने हो गए आज माँ को बिछड़े । अपनी इन दो कविताओं के फूल रख रहा उसकी स्मृति में नतशीश

                                 ~ प्रेम रंजन अनिमेष   

छोटा बच्चा
 


दिन महीने बरस हुए
माँ तुमसे बिछड़े...


पर लगता यही
मैं हूँ वही
वहीं का वहीं


जैसे मेले में भूला बच्चा
तुम मुझसे छूटी नहीं मैं ही छूट गया
भीड़ में हाथ पकड़ न सका ठीक से
या कहीं कोई खिलौना देखते
छिटक गया रेले में


समय आगे बढ़ता गया
दुनिया चली गयी कहाँ से कहाँ 
पर मैं वही
वहीं का वहीं


मेले में भूला
माँ तुम्हारा
छोटा बच्चा
छूटा बच्चा...



बड़ा बच्चा
 


आँसू छुपाता हूँ अपने
याद से जब कभी आ जाते
बाहर रहा तो दुनिया से
अपनों से घर में


इतना बड़ा बच्चा
रो कैसे सकता
किसी के आगे 


धो लेता पोंछ लेता जल्दी से
छुप कर चुपचाप कहीं
हालाँकि मुश्किल छुपना
इतने बड़े बच्चे का
फिर भी बचता फिरता


और तो और
छुपाने की कोशिश करता
माँ से भी
वह देख रही होगी
देख कर हो जाएगी दुखी
होगी जहाँ कहीं


है जहाँ कहीं
वहीं से बढ़ाती 
आँचल वह अपना
पोंछती छोह से


कहती हो जाओ चाहे कितने बड़े
इतने बड़े तो कभी हो नहीं सकते बच्चे  
कि छुपा लें
हाल अपना
अपनी माँ से...


                             ~ प्रेम रंजन अनिमेष