शनिवार, 29 फ़रवरी 2020

रंगों से...



फागुन और रंगोत्सव की शुभकामनाओं के साथ
अखराईपर इस बार साझा कर रहा अपनी कविता
रंगों से...  

                                 ~ प्रेम रंजन अनिमेष

   रंगों से...

 

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रंगों  से  कितनी  आस  थी  अब  टूटने  लगी
फागुन की  कैसी  प्यास थी  अब  छूटने लगी
 
आँखों  में   कोई  रंग  अगर  है   तो  इसलिए
दुनिया  गुलाल  झोंक  कर  अब  लूटने  लगी
 
सपनों के साथ  सच को  पड़ा  धोना माँजना
हाथों  से  कितनी  जल्दी  हिना  छूटने  लगी
 
ऐ प्यार  तेरे  बिन  कभी   जीना  मुहाल  था
अब  धीरे  धीरे  लत   वो  कहीं  छूटने  लगी
 
अरमानों की  उड़ान  कभी  थी  फ़लक तलक
 वो डोर  अपने  हाथों  से  अब  छूटने  लगी 
 

रिश्ता ये किस तरह का था अपना वफ़ा के साथ
दुल्हन  वो  पहली  रात  से  ही  रूठने  लगी
 
दो चार पल  ख़ुशी के  कहीं  मिल भी जो गये
फिर   पीर  आ   कलेजा  वहीं   कूटने  लगी
 
होता नहीं है  अब तो  किसी सच का  ऐतबार
कुछ ऐसी कर दी दिल से  किसी झूठ ने  लगी

 
जो बस्तियाँ  बसी थीं  कभी  उसकी  गोद में 
 क्यों  उससे  वक़्त की  ये  नदी  रूठने  लगी 
 
ख़ुद को  हवाले  कर दिया था  आग के  मगर
आकर  बुझा  दी  होंठों  के  इक  घूँट ने  लगी
 
पत्थर बना दिया  कभी जिस दिल को दौर ने
कोंपल   नयी   वहाँ  से   अभी   फूटने  लगी
 
लो   एक   और  रात   कटी   बात  बात  में
 'अनिमेष देख   पहली  किरण  फूटने  लगी 

 
प्रेम रंजन अनिमेष