कल मॉंओं के लिए जीवित्पुत्रिका व्रत का दिन था, जिसे अपने यहाँ अधिकतर माँयें कंठ में पानी की एक बूँद के बिना पूरा दिन सारी रात गुजार कर करती हैं अपने बेटों की सलामती के लिए ! सभी माताओं को सादर नमन के साथ उसी परिप्रेक्ष्य में इस बार अपनी कविता ' माँयें जियें ' सविनय साझा कर रहा इस बार 'अखराई' के माध्यम से ।
~ प्रेम रंजन अनिमेष
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‘ माँयें
जियें...’
व्रत उपवास किये उन्होंने
पति के लिए पुत्रों के लिए
उनके हित कब क्या
किया किसी ने ?
जीवन रचने के लिए वे
पर जीवन स्वयं नहीं उनके लिए
सत केवल सत्यवान
और उसके प्राण
जिसकी खातिर
सृष्टि के अंतिम छोर तक
जाती रहीं
बार बार लौटा कर
उसे अपने साथ
लाती रहीं
उन्हें तो मिला नहीं कभी
आशीष भी जीने का
जीतने का
खुश रहने का
'सौभाग्यवती भव' में
सौभाग्य था कोई और
'दूधो नहाओ पूतों फलो' में भी
थी नहीं वे कहीं
या सोच या चिंता कोई उनकी
किसी ईश्वर किसी देवता के पास
नहीं उनके जीवन का वरदान
हो भी क्यों
वे ही स्वयं उन्हें भी
करती आयीं जीवनदान
लेकिन सोचता हूँ आज
यह छूछा महिमामंडन
कब तक छलेगा
एकतरफा चलन यह
कब तक चलेगा ?
खुद जीवन से वंचित
कब तक जिलाती रहेंगी वे
शेष सबको ?
जीवनकामना के इस दिन
क्यों न करें
प्रार्थना और संकल्प
अब से अभी से
कुछ उनके भी लिए
कि जियें माँयें
और बेटियाँ
और नदियाँ
और यह धरती
बेटे तो जीते ही आये
जी ही रहे
जी ही जायेंगे...
प्रेम रंजन अनिमेष