रविवार, 30 दिसंबर 2018

साल का आख़िरी दिन...





आने वाले नववर्ष की अशेष शुभकामनाओं के साथ 'अखराई' में इस बार प्रस्तुत कर रहा अपनी कविता ' साल का आख़िरी दिन...’ 

                                                                   ~ प्रेम रंजन अनिमेष  


साल का आख़िरी दिन  

µ                                         

साल का  आख़िरी दिन  है... 


मिल लो  जिससे नहीं मिले 
जाओ  जिस घर  नहीं  गये 


कर लो जो कुछ नहीं किया 
जी  लो  जितना  नहीं जिया 


पढ़ो   पाठ   जो  नहीं  पढ़ा 
गढ़ो   अभी  जो  नहीं  गढ़ा 


गह  लो   हाथ   बढ़ा  आगे 
जोड़ो      टूट   गये     धागे 


सुन लो  क्या कह रहा हिया 
बालो  भर  कर   नेह  दिया 


कह दो  सच जो  नहीं कहा 
फिर सपना इक  जाग  रहा 


रच  दो   पन्ना   खोल   नया  
सूरज   इक  अनमोल  नया 


जाता   दे     सौग़ात    गया 
आने   वाला     साल   नया 


शुभ  मंगलमय   साल  नया... 

                                        ~  प्रेम रंजन अनिमेष  



मंगलवार, 13 नवंबर 2018

बाल कविता संग्रह ‘माँ का जन्मदिन’ से कुछ कवितायें









बड़े ही हर्ष का विषय है कि बच्चों के लिए लिखी मेरी कविताओं का संग्रह  माँ का जन्मदिनप्रकाशन विभाग, नयी दिल्ली से छप कर आया है !  

बच्चों के लिए लिखना एक चुनौतीपूर्ण काम है और अच्छे लेखक का कर्त्तव्य भी ! सृजन जगत और पूरे समाज का यह उत्तरदायित्व है कि नयी उम्र की नयी आँखों के लिए अच्छा और सच्चा साहित्य सहज उपलब्ध हो । भारतीय ज्ञानपीठ से  वर्ष  2004  में प्रकाशित मेरी दूसरी कविता पुस्तक 'कोई नया समाचार' इस अर्थ में एक नयी पहल रही कि उसमें सारी कवितायें बच्चों को लेकर लिखी गयी हैं... बच्चों और बचपन के बहाने जीवन और जगत के बड़े फलक को देखने समझने की  कोशिश की तरह ! इस संग्रह को बहुत सराहना मिली और कई जानकारों ने इसे सूर के बाद पहली बार बाल मन के इतने सहज जीवंत विलक्षण और बहुआयामी रूप उजागर करने वाला अनूठा  काव्य माना ! तभी यह ख़याल आया कि बच्चों को माध्यम बना कर तो इतनी सारी  कवितायें लिख लीं...  कुछ उनके लिए भी लिखूँ ।





उसी का परिणाम है यह बाल कविता संग्रह ' माँ का जन्मदिन ' ! आठ पंक्तियों के एक अभिनव शिल्प में रची इसकी नन्ही नन्ही कवितायें दिल को छूने वाली हैं और उतनी ही कौतुक भरी जिस तरह स्वयं बाल मन ! छंद में होने के चलते  ये सहज ही याद हो जाने वाली हैं और गेयता के चलते इन्हें पढ़ने के साथ साथ गाकर भी सुना सुनाया जा सकता है । इस संग्रह में बच्चों का बचपन और उनके आसपास का परिवेश और संसार इतनी रोचकता और अपनेपन के साथ आया है कि सबके मन को बरबस मोह लेता है ! विश्वास है सुन्दर चित्रों के साथ अभि‍नव अनुभव लोक रचती ये सार्थक और सुरुचिपूर्ण  कवितायें बच्चों को विशेष रूप से भाएँगी ! आग्रह होगा कि यह किताब बच्चों को अवश्य पढ़ने के लिए दें ताकि दृश्य माध्यमों व अंग्रेजियत से आक्रांत बाल मन का अपनी जमीन व भाषा की सृजनशीलता से साक्षात्कार हो !

अखराई में इस बार प्रस्तुत कर रहा अपने सद्य:प्रकाशि‍त इसी संग्रह से शीर्षक कविता माँ का जन्मदिनव दो और कवितायें  संयोग से मेरे युगल-बालगोपाल  अनुभव उत्कर्ष एवं अभि‍नव उन्मेष का जन्मदिन भी है आज ! तो यह बाल कविता संग्रह उनके लिए और उनकी ओर से संसार के सारे बच्चों को उपहारस्वरूप...  
                                                                     ~ प्रेम रंजन अनिमेष 







रविवार, 28 अक्तूबर 2018

माँ के आँचल की महक...



अखराई  में  इस  बार  साझा  कर  रहा  अपनी रचना  'माँ के आँचल की महक' ! यह मेरे दूसरे रिकार्डेड अलबम 'धानी सा' में शामिल है जिसमें अल्फ़ाज़ के अलावा तर्ज़ और आवाज़ भी मेरी है । आशा है पसंद आयेगी 

                ~ प्रेम रंजन अनिमेष

µ

माँ के आँचल  की  महक  है ज़िंदा
मुझमें बचपन की  किलक है ज़िंदा


उन्हीं   होंठों की   हँसी  है  सच्ची
जिनमें  आँसू  का  नमक  है ज़िंदा


नयी दुलहन में   छिपी  इक बच्ची
जिसमें चिड़ियों की चहक है ज़िंदा


मारा  जाऊँ  न   इसी  के  चलते
मेरी  आँखों   में  चमक  है  ज़िंदा


नींद  आती  नहीं  नेकी  के  बिना
मुझमें  पुरखों की  सनक है  ज़िंदा


मर गया वो  मरा  जिसका  पानी
जिसकी  भीगी है पलक  है  ज़िंदा


बढ़  गये  पाँव  मगर  इस दिल में
छूटी  मिट्टी  की  कसक   है  ज़िंदा



जलते   सूरज  को   बताये  बदली
सात   रंगों  की   धनक   है  ज़िंदा


देख  आकर  कभी  इन  होंठों  पर
तेरे   होंठों  की   दहक   है   ज़िंदा


साथ   बरतन   हैं  तो   टकरायेंगे
इनसे  रिश्तों  में  खनक  है  ज़िंदा


आज  के  दौर  में   अचरज  ये  भी
बेटियों  वाला   जनक   है   ज़िंदा

उम्र पर  आ गये  अब तो  फिर भी
बातों  में  वो  ही  बनक  है  ज़िंदा

नये   सपने   ये   सँजो  लो   इनमें
इक  नये  सच की  झलक  है ज़िंदा

ज़िंदगी   प्यार  भरोसा  अनिमेष
आज में  कल की किलक  है  ज़िंदा 

                           ~ प्रेम रंजन अनिमेष 



                   

गुरुवार, 27 सितंबर 2018

रोकना


अखराई में इस बार साझा कर रहा पिता को याद करते हुए अपनी यह कविता रोकना’  
                          ~ प्रेम रंजन अनिमेष

रोकना

µ


बीमारी से बेकल बेहाल पिता
कभी रात की बेचैनी में
उठकर कहते
लगता है
अब नहीं र‍हूँगा
आज चला जाऊँगा


मैं सुनता चुपचाप
कुछ नहीं कहता


बस सोने से पहले
छुपा देता
उनकी चप्पलें

जैसा बचपन में करता
जब नहीं चाहता
कोई जाये
घर से...


सोमवार, 27 अगस्त 2018

मुझमें बसा बिहार...






बिहार कई कारणों से जाना जाता है... और माना भी । मैं चाहता हूँ वह इन अक्षरों और इनमें जो भाव अंतर्निहित हैं इनके लिए पहचाना जाये !  'अखराईमें इस बार साझा कर रहा बिहार पर रचित अपना यह गीत... या कहें प्रदेशगान’~ मुझमें बसा बिहार...’~ जो मुझे भी हौसला देता है...
                                                         ~ प्रेम रंजन अनिमेष
  

मुझमें बसा बिहार

µ


माने   कभी  न  हार
मुझमें  बसा  बिहार


भूमि  बुद्ध की  है यह न्यारी
गुरु गोविंद की धरती प्यारी

सींचे  शुभ सुविचार

   मुझमें बसा बिहार... 


गंगा  गंडक  सोन  सरीखी
नदियॉं   मीठे  पानी  वाली

अमृत रस  की  धार

  मुझमें बसा बिहार... 


यही   मगध  की  धरा  प्रतापी
कीर्ति अन्यतम जिसकी व्यापी

हर  सरहद  के  पार

  मुझमें बसा बिहार...
 

राज्य त्याग कर  राजाओं ने
सत्य अहिंसा शांति पथ चुने

अविरत  पुण्य प्रसार

  मुझमें बसा बिहार... 


जय का जगा प्रकाश प्रखरतर
छेड़   क्रांति    संपूर्ण   महत्तर

करे  जगत उजियार

  मुझमें बसा बिहार... 


बोली  में  मिसरी  घुलती  है
सुर की  हर धारा मिलती है

भावों   का    भंडार

   मुझमें बसा बिहार... 


कोई  यहॉं   ऊॅंंचा  नीचा
सबसे  अपनापन का नाता

समरसता  का  सार

  मुझमें बसा बिहार... 


लोग   परिश्रम  करने वाले
सत के व्रत को  वरने वाले

अपना सब कुछ वार

  मुझमें बसा बिहार... 


जोड़े मन के  तार  सभी से
जाने  करना  प्यार सभी से

प्रेम   मधुर    संसार
 
   मुझमें बसा बिहार... 


सदा  मेल का हाथ  बढ़ाये
खुला  हृदय है  कोई आये

मानवता   का   द्वार

 मुझमें बसा बिहार...


चले  कहीं भी  जायें  चाहे
फैलाये   ममता  की  बॉंहें

करता      अंगीकार

   मुझमें बसा बिहार... 


यात्रा यह अनिमेषअनवरत
साझा  यह  विश्वास  अनाहत

सत्य  स्वप्न   साकार

  मुझमें बसा बिहार... 


                                                 ~   प्रेम रंजन अनिमेष