सोमवार, 30 मई 2016

सूर्यास्त

'अखराई' पर इस बार अपने पहले कविता संग्रह 'मिट्टी के फल' से यह कविता 'सूर्यास्त' प्रस्तुत कर रहा 
                   ~ प्रेम रंजन अनिमेष 


सूर्यास्त                                 
 


चढ़ा हुआ है नट
ऊँचे खम्भे पर
और लगा रहा है आग
अपने कपड़ों में

देख रहा लोगों का हुजूम
अपनी जगह से


इंतज़ार में 
कि वह अब कूदेगा

आसपास फैलती हुई उसके
साफ़ दिख रही हैं लपटें

कई कलाबाज़ियाँ खाते सहसा
नीचे जलकुंड में
लगाता वह
मौत की छलाँग

डूबती एक आवाज़
उछलती बूँदें
लगता जैसे बिखर गये उसके चिथड़े
फैल गया उसका रक्त पानी में

लेकिन अगले दिन
वह फिर वहीं होता है
शिखर पर !