रविवार, 31 मार्च 2013

दुखड़े




कुछ दुखड़े

 'दस्तावेज` के अंक 136 में प्रकाशित इस कविता श्रृंखला को काफी सराहना मिली है । इस महीने 'अखराई' पर अपनी इन्हीं कविताओं को साझा कर रहा हूँ आप सबके लिए...
प्रेम रंजन अनिमेष
  



पेड़ का दुखड़ा


बारिश में ओट देना
धूप में छाँह
काम पुण्य का

पर इस महान जिम्मेवारी के साथ
कुछ हक भी तो मिलता

कि अगर कभी भीगने का मन हो
धूप का पहाड़ उठाने की नहीं तबीयत

तो चलकर कहीं और जा सकता
कुछ देर के लिए ही
लग सकता अपने मनचाहे किसी किनारे...




पतंग का दुखड़ा

आसमान से कट कर
गिर रहा था
कि मेरी टूटी डोर को
रिश्ते की डोर समझ कर
उसने थाम लिया

गह लिया खींच लिया बाँध लिया अपने में

नीचे बच्चे कर रहे इंतजार
पर मैं तो ऊपर उस शाख पर
जहाँ कोई परिंदा भी शायद बैठता नहीं

एक घने भरे पूरे छायादार वृक्ष का
अकेलापन कौन जान सकता
मगर अब मैं जान गया थोड़ा थोड़ा
इसलिए भरसक कोशिश करता
हिलकर हवा में इन पत्तियों टहनियों के साथ
कुछ बहलाऊँ बतियाऊँ मन उसका लगाऊँ

कोई बच्चा यह सब क्या समझेगा
वह तो यही सोचेगा
कि भला पेड़ पतंग का करेगा क्या

कब तक चलेगा यह भी
कितने दिन मैं साथ उसका
निभा पाऊँगा
हिलता झूलता इस शाख से इसी तरह
किसी दिन बिंध जाऊँगा फट जाऊँगा गल जाऊँगा

उस आखिर वक्त से पहले
गिर जाऊँ नीचे
लोक लें लूट लें हाथ नन्हे
फिर कुछ बना कर उड़ा लें
यह भी नहीं बेजा
और वृक्ष भी इसका
बुरा नहीं मानेगा

लेकिन क्या करें
डोर रिश्ते की
छोड़ना आता नहीं उसे
और तोड़ना मुझे...




फल का दुखड़ा                                       

अभी कहाँ हुआ था
पूरा परिपाक

टूट कर गिरता
ऐसे

गिर कर टूटा...




परदेसी का दुखड़ा
                                        
घर रहे
इसके लिए
घर से गये

घर चले
इस खातिर
भटकते रहे
अनजान रस्तों पे...



माँ का दुखड़ा
                                         
अपना सब झोंककर
लगाया
बच्चों को बनाने में
और इतना अच्छा बनाया

कि एक एक कर
बारी बारी
सबने राह पकड़ ली
जाकर लग गये
अपने अपने ठिकाने

ऐसे
कि अब पीछे कोई
देने वाला नहीं पानी

टटोलतीं बूढ़ी काँपती उँगलियाँ
और बुझती रोशनी आँखों की

फुर्सत नहीं उन्हें आने की
मैं क्यों छोड़ूँ मिट्टी अपनी

अपना जो सोचती
तो सबको डैने इतने
मजबूत देती

किसी को रखती ऐसा
कि आँचल की छाँव से
दूर निकलना मुश्किल होता

माँओ
दिन ऐसे देखने हों
तो सब जायों को
इतना काबिल बनाना

कोई थोड़ा अनगढ़ रहे
कि साथ रहे
संग रखे देख सके...




बूढ़े का दुखड़ा
                                         
घर अगोरने के लिए छोड़ कर मुझे
निकल गये हैं सब

यों तो अब इस जान को
खुद चाहिए एक अगोरिया

जाया करते जाने कहाँ कहाँ वे
इस अवस्था में जा पाता कहाँ मैं

यही बहुत निवृत्त होने भर
चल फिर लेने की सकत
इधर रह रह कर होती जरूरत
अच्छा है इसी बहाने
देह मन की हो जाती कसरत

चिकित्सक ने कहा था
गुसलखाने जाते
दरवाजा भीतर से रखना खुला
कभी कुछ हो जाये
तो मुश्किल हो मदद के लिए
हाथ मगर आदतन चढ़ा देते सिटकनी

वैसे भी हूँ अकेला
और बंद मुख्य दरवाजा
तो अंदर के द्वारों से क्या फर्क पड़ेगा

अच्छा है
जब तब की यह तलब और बेचैनी
आँख जो लगने नहीं देती

नहीं तो बाज दफा हुआ ऐसा
इंतजार करते गयी झपकी
फिर बुरा हुआ हाल
खूब मचा हल्ला

अगली बार इसीलिए
भिड़का कर भीतर से
छोड़ दिया फाटक़
और आते डाँटा बहू बेटे ने

अगोरने के लिए छोड़ कर जाते हम
पर इस तरह तो हमारे पीछे
आप पूरा घर साफ करा देंगे

भीतर से हिल गया
कहते कुछ बना
बस जीभ निकाले रहा हाँफता...




लोकल के चालक का दुखड़ा
                                         
लंबी दूरी वाली
गाड़ी अगर होती
तो इंजन रहता रुतबे वाला
मौका पड़ने पर
किसी हित परिचित को भी
जिसमें साथ बिठाया जा सकता

पर यह तंग सी जगह
अगले डिब्बे का हिस्सा अगला
यहाँ तो मुश्किल अपना भी होना
प्रेम गली की तरह
सँकरा कोना
नहीं समाई जिसमें किसी दूसरे की

वैसे विमानों में भी सुना
चालक के लिए होती ऐसी ही तंग जगह
कभी देखने चढ़ने का मिला नहहं मौका

यह तो अजब सी वीरानी
आगे नजर भर लोहे की पटरियाँ केवल
और बीच में कंक्रीट
जीवन की तरह जिसमें से
सिर उठाती दूब जहाँ तहाँ

इससे तो अच्छा इतनी बड़ी गाड़ी नहीं
छोटी सी किसी बस का चालक होता
कम से कम इतनी तो होता गुंजाइश
कि गाड़ी कहीं लगा सुलगा ली बीड़ी
या दाहिने कोई रगड़ कर गुजरा तो कुछ सुना दिया
चढ़ा आगे से मुसाफिर तो ताव दिखा दिया

कहीं दम लेने भर ठहराव नहीं
हर पड़ाव पर बस कुछ पल
इतना भी नहीं अपने बस में
कि दौड़ते आते देख किसी को
ठिठक रुक जायें

पता है जितनी देर भी लगी रहेगी गाड़ी
लोग भागते हाँफते ठेलते झूलते रहेंगे
पहले से अँटे डिब्बों में
कोई जगह नहीं सहानुभूति की
पाप हो या पुण्य
कुछ पर भी नहीं इख्तियार
दौड़ रही गाड़ी तेज रफ्तार         
और इसी में आगे एक गाय
पटरी कर रही पार

ब्रेक लगाता हूँ अगर इस गति में
एक जान के लिए गाड़ी पूरी
छोड़ सकती है डगर

नहीं तो पूजते जिसे मानते माता
गुजरूँगा चीरता उसे

आँखें भी बंद नहीं कर सकता
चालक हूँ चालक को तो किसी सूरत में
पलकों को हर पल खींच कर रखना...



कबूतर का दुखड़ा
                                         
पहले घरों की
छतें होती थीं
धो चुन कर सुखाने के लिए
फैले जिन पर
होते दाने

अब घर कहाँ
इस महानगर में इमारतें
ऊँची ऊँची अट्टालिकायें
जिन पर कुछ भी नहीं
धूल और मैल
और सन्नाटे के सिवा
बस जहाँ तहाँ
कतार में कसी तिरछी
उल्‍टी खाली तश्तरियाँ

बंद झरोखे रोशनदान
छज्जे खिड़कियाँ घिरीं
लोहे की जालियों से
कहाँ अपनी समाई
किले या कारागार सरीखे
अब के इनसानी रहवासों में

कहीं सुबह शाम इन जन संकुलों में
कोई एकाकी वृद्धा
पूजा के पहले या बाद पूजा की ही तरह
आँचल पसार बिखेरती दाने

आँखें बिछाये हम सब आते
कहाँ कहाँ से पर फैलाये

वहीं कहीं आवारा कुत्ते
रहते घात लगाये...  

 

कौवे का दुखड़ा
                                         
क्या करूँ मेरी पुकार ही ऐसी

अकेली थी जब वह साथी संग था नहीं
उस घड़ी तो मुँडेर पर बैठ खूब उचरने को कहा
और किया वादा
जायेगा तो दूँगी चुपड़ी रोटी

अब जब वह आया
और खुशी से मैंने गाया
उसे नहीं भाया

लगा बेवजह खलल डाल रहा मधुर मिलन में
और फेंका वहीं से डेढ़पौआ

पता नहीं
रंग मेरा ऐसा है आवाज या तकदीर...
  

अनुयायी का दुखड़ा
                                         
फुटपाथ पर
मेरे आगे आगे चल रहा कोई

बायें से निकलना चाहता मैं
तो बायें हो जाता वह
दायें से ससरना चाहता
तो दायें

जानता हूँ
ऐसा वह जान बूझकर नहीं कर रहा

चलते हुए
दोनों हाथ उसके
फैले हुए
शायद
उम्र की वजह से

लेकिन इसके चलते
मेरी बढ़त नहीं
किसी भी ओर से

बूढ़ा है वह
पर अपने जाने भरसक
तेज चल रहा
पर उतना तो नहीं
जितनी मेरी त्वरा

पीछे पीछे चुपचाप चलने की
क्या कोई पदचाप नहीं
या आगे बढ़ने के लिए
धड़कनों की आवाज ?

क्या कभी
सुनी नहीं उसने किसी की
आगे हुआ चला इसी तरह
या जीवन भर सुनते सुनते
कानों में
भर गयी इस तरह गूज ?

अभी दिन के इस वक्त
अपने दिन से लौटते
थकान ऐसी
कि चलने में उतनी नहीं
जितना कुछ बोलने में

फिर इतनी सी बात के लिए
चाहता नहीं कुछ कहना

और ही कोई भोंपू
अपने आगे लगा रखा...



कमाऊ आदमी का दुखड़ा

                                     
कड़क दोगी कुछ तो
कहेगा क्यों नहीं दिया गीला
और तरल अगर तो बोलेगा
क्यों कर फैला दिया

ठंडा होगा
तो जरूर सवाल करेगा
क्यों ऐसा
गरम हो
फिर भड़केगा
मुँह जला दिया

कटोरे में दोगी
तो चिल्लायेगा
बच्चा हूँ क्या

थाली में हो अगर
कुनमुनायेगा
कौन खायेगा इतना...

नहीं
नहीं बिगड़ता वह तुम पर
कोई और है जिसने
उसे बिगाड़ा

वह काम
जिसने किसी काम का नहीं छोड़ा

किसी और के लिए क्या
अपने लिए भी
फुर्सत कहाँ

जहाँ तक खाने का सवाल है
आखिरी बार स्वाद उसी का आया
वह कौर जो पढ़ने काबिल बनने
बाहर जाने से पहले
माँ ने अपने हाथ से था खिलाया...




टाई वाले का दुखड़ा
                                         
सबसे अधिक खीज होती
गले की इस फाँस पर
कोई भी मौसम हो
जिसे लगाये रहना पड़ता

जाने
कब कहाँ से कैसे
आई यह बला
अब तो पढ़ने जाने वाले नन्हे बच्चे की भी
गरदन इसने दबाई

और जो भी हों मलामतें मुसीबतें
कम से कम औरतों के लिए
इतना अच्छा
कि यह गलफाँस नहीं
पड़ती लगानी

कुछ इस तरह का है जीवन ही

उनके हक की बातें होतीं
तो क्या बराबरी के लिए यह चलन भी जरूरी ?

खेल भावना से
कभी यह बात जहन में आती
कैसा हो जो घरनी भी किसी दिन
पहनें इसे
और सिर्फ यही...




बेरोजगार का दुखड़ा
                                        
तजुर्बा नहीं है इसलिए
काम नहीं मिल रहा कहीं

बिना काम के
तजुर्बा कहाँ सें होगा

काम नहीं हाथ में
तो दूर दूर तक
रिश्ता भी कोई
आता नहीं दिखता

इधर हाथ पढ़ने वाले ने कहा
हाथ किसी का इनमें आयेगा
पाँव किसी के जीवन में पड़ेंगे
तभी भाग संजोग जागेगा...



रोजगार वाले का दुखड़ा
                                         

बेकाम था
तो निष्काम था

दुनिया भर में
केवल प्रेम से
काम था

अब कामयाब हो गया
तो बस काम से काम
और काम ही प्रेम...



कामयाब आदमी का दुखड़ा
                                         

मंच पर
सम्मान करते स्वीकार
रोक नहीं पाया अपने को
सहसा छलछला आया
कामयाब आदमी

यह कहाँ चाहता था होना
जिसके लिए आज जा रहा नवाजा
वह तो शुरू से
बनना चाहता था
एक गवैया

जान कर
आगे दीर्घा में बैठे
लोगों की आँखें भी
हो गयीं नम
भर आया गला

उनमें भी थे कई ऐसे
जो होना चाहते थे
कहीं और
कुछ और...     



पदासीन का दुखड़ा
                                         
सच्चे खिलाड़ी थे हम
पढ़े बढ़े हँसते खेलते

पर इस कुरसी ने
बना दिया ऐसा
कि भाग नहीं सकते
अब अगर जान के लिए भी कभी
पड़े भागना

मित्रो याद रहे
भागना हमेशा
नहीं होता बुरा...



परोपकारी का दुखड़ा
                                         
हजामत मैं नाई के लिए
बनवा लेता हूँ कभी कभार
सँवरने अच्छा दिखने के लिए नहीं

चलने को तो
नंगे पाँव भी चल लेता
पर मोची की सोचकर
पहन लेता पनही

कपड़े लाज बचाने भर काफी हैं
पर जुलाहे और दरजी की सूरत देख
ले लेता नये

भूख और स्वाद की खातिर नहीं
कई बार तो कुछ खा लेता इसीलिए
कि बना कर कोई कर रहा इंतजार

अखरी धरती पर
सो रहता नहंद भर सुकून से
लेकिन चौकी यह लगायी
बढ़ई का ध्यान कर

ऐसे भी चल जाता
कुछ दर्द दो चार चोटों से अपना क्या
फिर भी मौसम में एकाध बार
पड़ जाता बीमार
और दवाखाने जा दिखा भी आता
बेचारे चारागर की सोच कर

इतने मेल मिलाप के बाद
ठान लेता दो चार रगड़े झगड़े भी कभी कहीं
कचहरी और वकील का काम भी तो चले

शिक्षा दीक्षा ली
गुरूओं के वास्ते
घर बनाया
जितना अपनी ओट
उतना ही घरामी के लिए

दुनिया के लिए हूँ जिंदा

एक तुम्हारे लिए
कुछ कर सका
सो आखर ये लिखता...     



मुसाफिर का दुखड़ा
                                       
दूसरों की हमदर्दी के भरोसे
चढ़ जाता
भीड़ भरी गाड़ी में

चढ़े हुए जो पहले से
पड़ाव पर दूसरों को चढ़ने देने से
रोकते

पर जैसे ही
हिलती खुलती चलती गाड़ी
हो जाती गुंजाइश
मिला लेते अपने में
देह सिकोड़ कर मन बढ़ा कर

लंकिन पता नहीं उसे
यह तजुर्बा भी
हो चुका पुराना

टँगा हुआ जैसे तैसे दरवाजे से
झूल रहा साथ उसका थैला

अब तो यही चारा
कि सबको आये
दया थोड़ी थोड़ी
घेरती जैसे माया

और तनिक जल्दी
कि भर रहा है हाथों में पसीना
और जल्दी ही आने वाला
वह खंभा
जो अपनी ही तरह से
इस तरह के
दुस्साहस को अनुशासित करता...



नये जोड़े का दुखड़ा
                                         
शादी की मेंहदी
अभी छूटी नहीं हाथों से
पर कल नहीं तुम्हें
इतने सारे काज हैं
और सब आज के

कभी सब्जी काटती
मसाला पीसती
कपड़े फटकती
कभी बरतन धोती

बुहारते धोते पोंछते पसारते
बजती हाथों की चूड़ी पायल पैरों की
इस झमक झनक के साथ
सुनाई देती सीने की धड़कन भी

अभी आटा गूँधते देखता हूँ तुम्हें
अभी रोटी बेलते
अभी चावल चुनते
अभी भात पसाते

देखता हूँ तकता हूँ
साँसों का उठना गिरना
साँसों के साथ उठते गिरते शिखर और घाटियाँ
जीवन लहरों के आरोह अवरोह के साथ
जैसे लय में नाचती तुम्हारी देहछाया

देखता हूँ तकता रस्ता
कभी उकता कर पास आकर
होंठों पर रख देता होंठ
हृदय पर हाथ

यही मेरा सहयोग
मेरा समर्थन

काम से प्रेम
है तुम्हें
और मुझे
प्रेम से काम...



बाँझ औरत का दुखड़ा
                                         
अगले जनम
धरती करना मुझे
मिट्टी

हवा संग उड़ा
चिड़ियों से छिटका
बीज कोई पड़ता जिसमें
और अंकुरित हो जाता

इस जीवन का क्या
अनगिन असंख्य पड़े कतरे
पर पनपा एक नहीं...



ठूँठ का दुखड़ा
                                         

बिना फूल बिना फल बिना पात का
एक ठूँठ मैं

बाँहों की तरह
अपनी टहनियाँ फैलाये

एक बिंब की तरह
खड़ा जैसे

कोई घोंसला पंछी
हवा से भी कोई बोलचाल नहीं
आत्मलीन देखता कहीं
गिरती हुई इकहरी छाया अपनी

निःसंग पर मन ही मन
मगन फिर भी

पेड़ का पिंजर भी
आदमी के कंकाल से
अधिक सुंदर होता है

यही सोचते
मानो किसी मुद्रा में

खड़ा हूँ
किसी कैमरे की आँख
या आँखों के कैमरे के लिए

अंतिम कुठाराघात से पहले...