हर साल सितम्बर महीने में और उत्सवों के अलावा हमारे देश में एक विशेष उत्सव होता है । बरसों पहले इसी महीने की 14 तारीख को देश की संविधान सभा ने आधे से अधिक जनता द्वारा बोली जाने वाली और तीन चौथाई से अधिक देशवासियों द्वारा समझी जाने वाली राष्ट्रभाषा हिंदी को राजभाषा का दर्जा देकर सम्मानित किया था और कालांतर में बरस में उसके नाम एक यह दिन कर देश के कर्ता- धर्ताओं ने उसके प्रति अपने कर्त्तव्य का अनुपालन किया । तो इस तरह अपने देश में देशभाषा हिंदी का एक दिन मुअय्यिन हो गया जिसे प्रत्येक वर्ष पूरे रस्मों रिवाज और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है और जिसमें मातृभाषा के ऋण से उऋण होते हुए उसके लिए अपनी जिम्मेदारियों का सामूहिक अर्पण तर्पण किया जाता है ! पहले हुआ भी करती थी किन्तु अब इस उत्सवधर्मी देश में अपनी अपनी उन्नति प्रगति की मरीचिका के पीछे भाग रहे अधिकांश देशवासियों को देशभाषा के लिए कोई खास फ़िक्र परवाह या पीड़ा नहीं होती । ऐसे में आने वाले समय की कल्पना भी किसी को नहीं सिहराती ~
किसी किसी को छोड़ कर । उसी परिस्थिति और मनःस्थिति की और संकेत करती अपनी यह कविता इस बार प्रस्तुत कर रहा हूँ ~ ' निज भाषा...'
~ प्रेम रंजन अनिमेष
निज भाषा
( उन्नतिशील एक देश में )
बोली गूँजती थी हमारे घर में
उसी में बोलते बतियाते परिजन
और पाठशाला में
अपनी सीखने की भाषा थी
हिंदी
अब जब बड़े हुए
घर में हिंदी बोलते
और स्कूल में
हमारे बच्चों को शिक्षा
अंग्रेजी में दी जाती
( हालाँकि दाखिला कराया
जान बूझ कर सोच समझ कर
अखिल भारतीय हिंदी माध्यम विद्यालय में
पर आज के दिन अपने देश में
हिंदी माध्यम शिक्षा वह है
जहाँ हिंदी विषय की पढ़ाई हिंदी में होती
बाकी हर जगह अंग्रेजी ही साधन साध्य
बच्चे यानी देश के भविष्य जिसके लिए बाध्य )
कल हमारे बच्चे जब बड़े होंगे
और उनके बच्चे स्कूल में
आसार यही कि यह द्वंद्व समाप्त हो चुका होगा
तब घर में भी अंग्रेजी होगी
बाहर भी
पढाई और कामकाज का जरिया तो बेशक वही
इस तरह फिलहाल जो चल रही
एक बड़ी विसंगति
जाती रहेगी
सदन के मन प्रांगण से तो
जा चुकी पहले ही...!