शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

जीवितमातृका

आज जीवितपुत्रि‍का’  या जीतियाहै जिसमें माँयें अपने बच्चों के लिए उपवास रखती हैं । माँ के इस व्रत का फल हमें तत्काल मिलता उसके पकाये रोटी के आकार के मोटे मोटे मीठे मीठे ओंठगनों के रूप में जिनका पूरे बरस भर हमें इंतजार रहता । बाद में बेटियों बहुओं के मनुहार पर उनके लिए भी ओंठगन बनाने लगी माँ । सहतींं सदा स्त्रि‍याँ हैं । किसी पुरुष को अपनी माँ बेटी बहन या घरनी के लिए व्रत उपवास करते नहीं देखा । उम्र के अस्सी साल तय करने के बाद भी और हमारे लाख बरजने के बावजूद बिना पानी पिये अखंड निर्जला यह व्रत करती रही वह । आज माँ नहीं । लेकिन उसका जीतियाहै । और उसके ओंठगन का स्वाद !  उसे ही याद करते हुए अभी अभी लिखी यह कविता...

                                         ~ प्रेम रंजन अनिमेष  

जीवितमातृका
                                         



घरनी पका रही
आटे के
रोट सरीखे
पकवान मोटे
मीठे मीठे
ओंठगन जिन्हें कहते


आज उस महापर्व का दिन है
माँ जिसे कहती जीतिया


माँ नहीं है
पर लगता यहीं है


बहू को बता रही
सिखला रही
ओंठगन कैसे बनाते
बना कर चूल्हे पर ओंठगाते


माँ जैसे बता रही
वह बना रही
हर बच्चे के लिए
ओंठगन एक एक
मेरे लिए भी एक
माँ की ओर से


आज है व्रत जीवितपुत्रिका
जिसे एक नया नाम
मैंने दिया


जीवितमातृका...!