रविवार, 28 अक्तूबर 2018

माँ के आँचल की महक...



अखराई  में  इस  बार  साझा  कर  रहा  अपनी रचना  'माँ के आँचल की महक' ! यह मेरे दूसरे रिकार्डेड अलबम 'धानी सा' में शामिल है जिसमें अल्फ़ाज़ के अलावा तर्ज़ और आवाज़ भी मेरी है । आशा है पसंद आयेगी 

                ~ प्रेम रंजन अनिमेष

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माँ के आँचल  की  महक  है ज़िंदा
मुझमें बचपन की  किलक है ज़िंदा


उन्हीं   होंठों की   हँसी  है  सच्ची
जिनमें  आँसू  का  नमक  है ज़िंदा


नयी दुलहन में   छिपी  इक बच्ची
जिसमें चिड़ियों की चहक है ज़िंदा


मारा  जाऊँ  न   इसी  के  चलते
मेरी  आँखों   में  चमक  है  ज़िंदा


नींद  आती  नहीं  नेकी  के  बिना
मुझमें  पुरखों की  सनक है  ज़िंदा


मर गया वो  मरा  जिसका  पानी
जिसकी  भीगी है पलक  है  ज़िंदा


बढ़  गये  पाँव  मगर  इस दिल में
छूटी  मिट्टी  की  कसक   है  ज़िंदा



जलते   सूरज  को   बताये  बदली
सात   रंगों  की   धनक   है  ज़िंदा


देख  आकर  कभी  इन  होंठों  पर
तेरे   होंठों  की   दहक   है   ज़िंदा


साथ   बरतन   हैं  तो   टकरायेंगे
इनसे  रिश्तों  में  खनक  है  ज़िंदा


आज  के  दौर  में   अचरज  ये  भी
बेटियों  वाला   जनक   है   ज़िंदा

उम्र पर  आ गये  अब तो  फिर भी
बातों  में  वो  ही  बनक  है  ज़िंदा

नये   सपने   ये   सँजो  लो   इनमें
इक  नये  सच की  झलक  है ज़िंदा

ज़िंदगी   प्यार  भरोसा  अनिमेष
आज में  कल की किलक  है  ज़िंदा 

                           ~ प्रेम रंजन अनिमेष