रक्षाबंधन का दिन है । श्रावणी
पूर्णिमा । सावन जा रहा । आज आखिरी दिन है उसका । माँ पहले जा चुकी है । इसी तारीख
को पिछले महीने । दो दिन और ठहर पाती तो सावन आने को था । वह महीना जिसमें माँ ने माँ
से सुना था कि उसका जन्म हुआ । दो दिनों से रह गया एक और सावन ! एक और जन्मदिन उसका ! जो आज तक कभी मना नहीं था मिल कर
इस बार उसे मना लेते...!
स्त्री का अपना जन्मदिन भी अजाना
होने के बारे में तब कॉलेज के दिनों में एक कविता लिखी थी जो 'गगनांचल' पत्रिका में आयी थी । अबकी वही कविता...
प्रेम
रंजन अनिमेष
माँ
को याद है...
माँ
को अपना जन्मदिन याद नहीं
उसे
याद है दूध का हिसाब
याद
हैं धोबी को दिये जाने वाले कपड़े
याद
हमारी स्कूल फीस
खूब
अच्छी तरह याद
पिताजी
की चाय में चीनी का अनुपात
बस अपना
जन्मदिन ही याद नहीं
पूछने
पर
वह बैठ
कर
सोचने लगती
और हमें
लगता
उसे
याद आ रहा
लेकिन
उसे याद आ जाता
चूल्हे
को खोरना
रसोई
का खुला रह गया दरवाजा
या समय
किसी के आने का
उलट
पुलट कर देखता सारी चीजें
वे कहानियाँ
जो उसने सुनायी हैं
सब डिब्बे
जिनमें क्या क्या रखा है
डायरी
जिसे खर्च के हिसाबों ने
पाट
दिया है
कहाँ
भूल आयी वह
कहीं
चूल्हे की आँच में तो नहीं जला आयी
धोने
खँगालने में तो नहीं गला आयी
साफ
सफाई करते
रद्दी
में तो नहीं मिला आयी
असहाय
सा झुँझलाता
फिर
इतनी अच्छी तरह
क्यों
याद है जन्मदिन मेरा
वह उसे
भी भूल जाये
देकर
बड़ा कोई वास्ता
आखिरी
बार पूछता
माँ
से जन्मदिन उसका
और मुसकुराहट
के साथ
बतलाती
वह एक तारीख
जो मेरा
जन्मदिन
अविश्वास
से देखता उसे
दिखलाता
गुस्सा
कि यह क्या जवाब हुआ
मैं
पूरी गंभीरता से पूछ रहा
लेकिन
शांत और संयत
वह कहती
उसी तरह
यह सच
है हाँ सच यही
जिस
दिन हुआ जन्म तुम्हारा
उसी
दिन जन्मी तुम्हारी माँ भी
उससे
पहले तो मैं
कुछ
और थी
माँ
शायद ठीक कह रही सोचता हूँ
मगर
मरना भी तो पड़ता है
फिर
जन्म लेने से पहले
बताओ
माँ... फिर से पूछता
दो जन्मों
के बीच कुछ मरा भी तो होगा ?
चुपचाप
खड़ा आँखें उसकी देखता
जो धरती
आकाश की ओर होती
रसोई
की आग की ओर लौटेंगी
उसे
सब याद है
सब कुछ
पूरा
पूरा...!