उजड़े
गाँव शहर आबाद
फिर
भी अँजोरिया रातों
के
सपनों
में आता मुसकाता
वो
ही निश्छल चाँद
अमराई
की याद
आमों
का आस्वाद
बना
बावला देते अब भी
इतने
बरसों बाद...
अमराई की स्मृति और अंतस तक रची बसी आमों की आसक्ति ने कविताओं
की पूरी किताब ही मेरे लिए रच दी । पिछले साल उनमें से कुछ कवितायें 'परिचय' में आयीं तो पढ़ कर कई लोग भावविभोर
हो उठे । अभी मौसम भी वही है... तो सोचा
स्मृतियों के उसी सघन आम्र कुंज से कुछ चुनी हुई कवितायें रखूँ इस बार...
- प्रेम रंजन अनिमेष
अमराई
चिरनव
पास
से गुजरते अकसर
कभी
दूर से बाँहें फैला
कर
रोक
लेता आम का वह
पेड़ पुराना
हर
बार
मिलता
हूँ मैं उसे
जैसे
पहली बार...
घाम
कबके
तपे हुए हैं ये
पहली
बारिश के बाद ही
भरेगा
इनमें रस
बूँदों
से तिरेगी मिठास
उस
पर भी
सुबह
भिगो कर रखना
तो
हक लगाना शाम
नहीं
तो लग जायेगा भीतर
का घाम...
फल
इतने
ऊँचे कद वाले वृक्ष
और
फल
इतने
जरा से इतने विरल
और
ये छोटे गाछ भूमि
से लगे
फल
जिनके हाथों को चूमते
लदराये
गदराये झमाट...
दाय
मिट्टी
ने उगाया
हवा
ने झुलाया
धूप
ने पकाया
बौछारों
ने भरा रस
नहीं
सब नहीं तुम्हारा
सब
मत तोड़ो
छोड़
दो कुछ फल पेड़
पर
पंछियों
के लिए
पंथियों
के लिए...
भाग
बौर
तो आये लदरा कर
पर
आधे टूट गये आँधियों
में
तब
भी टिकोले
काफी
निकले
रोकते
बचाते निशाने चढ़ गये
कई
ढेलों
गुलेलों के
जो
बचे कुछ बढ़े
पकने
से पहले
मोल
कर गये व्यापारी
मैं
इस पेड़ का जोगवार
मेरे
लिए बस
गिलहरियों
का जुठाया
चिड़ियों
का गिराया
उपहार...
इतना
सा
कोर
तक भरे कलश में
तुम्हारे
आम
का पल्लव
पहला
प्यार
इतना
सा अमृत जो लेता
और
उसी को फैला देता
चारों
ओर
भरा
का भरा
रहता
कलश तुम्हारा...
ठिठोली
ठिठोली
छुप
छुपा कर स्वाद लगाया
पर
मुँह चिढ़ाता
अपरस
यह उभर आया
मुँहजोर
सखियों को ठिठोली का
अच्छा
मिल गया बहाना
जैसे
जागे हुए को उठाना
कितना
कठिन समझाना
जानता
है जो उसे
अब
कहती हो
तो
लेता मान
यह
आम का ही निशान
!
रह
रह कर रस ले
वह
निठुर भी...
बेहद
एक
तो माटी की
छोटी
कोठरी
दूसरे
जेठ की
पकाती
गरमी
तिस
पर नयी नयी शादी
और
उसके साथ
खाट
के नीचे
किसने
रखा डाल
आमों
का यह पाल...
गति
सही
सलामत
चपल
तत्पर अपने पाँव
फिर
भी
हम
कहीं नहीं
वहीं के
वहीं
वही
धूप वही छाँव
और
यह जो
कहलाने
को लँगड़ा
दुनिया
भर में
पूछा
जाता कहाँ कहाँ...
प्रथम स्मरण
प्रथम स्मरण
बहुत
भरा
चढ़
कर उतरा
रस
जीवन में
पर
नहीं भूले
दाँत
कोठ करने वाले
कुछ
नन्हे टिकोले...
आगार
फल
तो फल अलग रंग
रेशों के
फिर
वो चटनी गुरमा कूचे
अचार
अमावट
अमझोर आमपाना अमचूर...
प्यार
के सिवा
और
कहाँ
आस्वाद
का ऐसा विपुल आगार...
मनमान
प्यार
इंतजार
मन
से उसके
चलना
वार
से
तोड़
कर
डार
से
उतारना
मत
अपने
तक आप
आने
देना
कुछ
अलग ही होता
पेड़
पर पके आम का
आस्वाद...
सादृश्य
अच्छे
लगते हैं
वे
आदमी वे आम
ऊपर
से जो हरे
धुले
पत्ते की तरह
या
धूसर रंगत लिये
और
भीतर से रत रत
लाल
आम
आदमी जैसे
आदमी
आम सरीखे...
ताप
पात
झड़ गये
पेड़
उखड़ गये
पीछे
छूट गया कहीं
गाँव
और
इन बच्चों को तो
छूने
को भी
नहीं मिलते
आम
फिर
भी हर मौसम में
बनबना
कर निकलते
आमें
वाले वे घाव...
दुआ
बड़ा
हूँ थोड़ा
तो
झुक कर पाँव वह
छूती
फूलो
फलो
चाहता
कहना
पर
रुक जाता
आमों
से इतना है प्रेम
फिर
अमराई में ही हम
पहले पहल मिले
और
आमों में फूल नहीं
बौर होते
तो
क्या इसे
थोड़ा
बदल कर ऐसा नहीं
कह सकता ?
कि
जाओ
बौराओ
और
लदराओ...!
मान
मानपत्र
इस
जीवन का
नहीं
हो सकता
कोई
भोजपत्र
कोई
ताम्रपत्र
दे
दो मुझे
केवल
एक किसलय
एक
आम्रपत्र...
जीवन ऋण
बिना
दाँत के
बूढ़े
मसूढ़े
रंग
गये
पग
गये
कैसे
मड़ई
के आगे
मगनमन
बैठी
आम
चूस रही
बूढ़ी
माई
परलोक
में यह स्वाद
मिलेगा
या नहीं...!
नजर
सँभाल
कर रखो
आमों
के ये वृक्ष
खुशबू
अमराई की
पंछी
ही नहीं
पंख
लगा कर
देवता
आयेंगे
इनके
लिए
इस
धरती पर
पर्यटक
बन कर
कोई
रूप धर कर...
इस दौर में
किसको
सब्र है
कि
शाख पर पकने दे
इस
फल को
इस
पल को...
इंतजार
गये
साल
फलों
से भरी थी हर
डाल
इस
बार अंतराल
खाली
खाली पेड़
कोई
बात नहीं
अगले
साल
झूम
कर आयेंगे
आम
आते हैं
पर
आने से पहले
सब्र
सिखलाते हैं...
बुलाना
कभी
नाम लेकर
नहीं
पुकारा
क्या
कोई आम खायेगा ?
अरे
देखो उठी आँधी
चलें
सब बागीचे...!
इसी
तरह
किया
इशारा
संज्ञा
होने से पहले
प्यार
सर्वनाम था...!
पुनश्च
किसी
कोटर में
भूल
गया जिसे रख कर
फिर
से जनमूँगा
इस
मिट्टी में
फिर
से सनूँगा
उस
अमर फल के लिए...
सिरा
खाकर
फल
यूँ
ही
उछाल
दी
जो
गुठली
क्या
पता
सब
खत्म हाने के बाद
उसी
से बसे
दुनिया
अगली...