बुधवार, 29 जुलाई 2020

मदर इंडिया 2020




सौ से अधिक दिन हो गये हैं महामारी के मार से अचकचा यें  लगभग बंद बंद देश और विश्व में घरवास के । मगर जबकि बाहर के दर मुक़फ्फल से थे इनसान के लिए और पैरों में अदृश्य बेड़ियाँ पड़ी, मन किसी मासूम सा  दुनिया भर में भरमता रहा और उँगलियाँ पकड़े कलम चलती रही ! देश और दुनिया में जो हालात हैं उनसे जैसे अपने आप बनती बुनती गयीं कवितायें  कई । इतने दिनों में इन कविताओं ने प्रायः एक पुस्तकाकार रूप ले लिया है जिसे नाम दिया है ~ 'संक्रमण काल की कवितायें ' !  इसकी कुछ कवितायें  पहले साझा कर चुका हूँ आप सबसे   आज इसी क्रम में 'अखराई' में साझा कर रहा अपनी इधर हाल की एक कविता  'मदर इंडिया' पढ़ कर आपके प्रतिसाद की प्रतीक्षा रहेगी
                                   ~ प्रेम रंजन अनिमेष

मदर इंडिया 2020
कई रातों में यही देखता
किसी दु:स्वप्न सा
उठ जाता आकुल सहसा                    


क्या आपको वह दृश्य परेशान नहीं करता
जिसमें प्लेटफॉर्म पर पड़ी एक माँ
और पास बच्चा नन्हा आँचल खींचता
जगाने की कोशिश करता 


यह किस पड़ाव पर
आ पहुँची मनुष्यता
किस ठाँव खड़ी 
महान यह सभ्यता 


क्या कोई मुकाम इसे
कह सकते ? 


यह कौन माँ
जिसकी ऐसी अवस्था
और इतनी अवशता 
कि फट गया हट गया
आँचल अपने छौनों के सिर से जिसका ? 


सबसे बेचैन करने वाली बात
कि इस दृश्य में कोई भी 
बढ़ता उनकी ओर नहीं दिखता
आँखों में लिये किंचित सहानुभूति या संभावना 


यह समाज है कैसा
जहाँ इतनी गहरी उपेक्षा
जिसमें मोल मायने नहीं रखता
इस तरह चले किसी का जाना
अंतिम उत्सर्ग भी वृथा सर्वथा
किसी महामारी से बड़ी यह विभीषिका 


बहानों से खाली हो चुके शासन को
मैं सुझाता एक बहाना
कहे वह कि लोग वहॉं थे निकट ही
और सरकार भी
पर चितेरे ने अपनी सहूलियत के लिए
चित्र लेते हुए
सबको कर दिया था किनारे 


हुकूमत का यह भी दावा
कि किसी अव्यवस्था के कारण नहीं हुआ ऐसा
बल्कि होता ही रहता
कोई हो और चाहे कैसी भी व्यवस्था 


दोमुँहे तंत्र का
मुँह दूसरा कहता
कि यह सच्चा 
चित्र ही नहीं यहाँ 
और इस समय का 


यह नहीं असली मदर इंडिया  


वह तो चमकती सितारों सी
संविधान के पन्नों में सुरक्षित
पोंछ रही उससे अपना
भूला बिसरा पहला नाम पुराना 


ताकि देश भर में एक स्वर से
सब गायें 
आई लव माई इंडिया
वतन मेरा इंडिया...
 
सबसे बड़ी आपदा असंवेदना
अगर ऐसे ही बढ़ती रही विभीषिका
और चलती रहीं हुकूमतें 
रही यही दिशा देश विश्व की
तो कहीं हो न ऐसा
एक दिन पृथ्वी रहे पड़ी
निर्जीव पार्थिव उस माँ सी 


विह्वल आँचल जिसका
हो खींच रहा
आगत
किसी नवागत नन्हे छौने सा
खाली लोगों से भरी
भरी भीड़ सी खाली
इस दुनिया में असहाय अकेला...

                                                    
                                      ~ प्रेम रंजन अनिमेष