मंगलवार, 28 जून 2016

सुबह होने को है



अखराई’ पर इस बार अपनी यह कविता सुबह होने को है’ प्रस्तुत कर रहा 


                   ~ प्रेम रंजन अनिमेष


सुबह होने को है




घंटियाँ बज रहीं बैलों के गले की
हाँ ना या बस उबासी में सिर हिलाते
चूड़ियाँ खनक रहीं खिड़कियाँ खोलते हाथों की


गूँज रहा कुएँ में डोल का उतरना
चिड़ियों की चहचह कूज रही आकाश के ओर मिलाती
किलक रही अंतरतल पर पड़ती दूध की धार सीधी


उठती कोई हाँक
छँटते कुहरे के पार
उजागर करती संसार


सुबह होने को है
और पहली रोशनी बनकर
दुनिया के दर पर
दस्तक दे रहीं हैं
उसकी आहटें...