मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

बहन का घर





      बहनें हमारे यहाँ अमूमन रक्षाबंधन या भैयादूज के समय याद आती हैं  या तब जब उन्‍हें कुछ हो जाता है ।  इस बार प्रस्‍तुत हैं दो कवितायें – 'बहन का घर' और 'बहन के घर' अपने आने वाले कविता संग्रह 'नींद में नाच' से जो समर्पित है बहनों को । ये कवितायें बड़ी दीदी को याद करते हुए । पिछले कुछ सालों से जून और दिसंबर की हर छुट्टी में उनका मुंबई आना होता हमारे घर ।  इस बार भी 23 दिसंबर यानी कल चल कर आज ही पहुँचने वाली थीं । लेकिन ठीक हफ्ते भर पहले उनका यात्रा कार्यक्रम बदल गया और कहीं और जाने के लिए उन्‍हें विवश होना पड़ा... हाँ से वापसी अब संभव नहीं                                                                                                               प्रेम रंजन अनिमेष




बहन का घर


रास्‍ते में पड़ता है
घर बहन का

पर गुजर जाते
अकसर उधर से
इसी तरह
चुपचाप
मिले बिना
बगैर खबर किये

अपना
या दुनिया का
कोई काम देखते

बहनें हमारे रास्‍ते में
नहीं आतीं



बहन के घर



मैं तो हुई तबाह तबाह


कुछ भी करने देते हैं कब
हैं शैतान तीन तीन
फिर भी कैसे कैसे कर यह
कुछ मीठा कुछ कुछ नमकीन

देखो बना रखा था आकर
तुम पाओगे
जाने लगा किस तरह मुझको
तुम आओगे

लाती बहन थाल में क्‍या क्‍या
खाता खूब सराह सराह...  


गुरुवार, 20 नवंबर 2014

बाजार में रोना


पिछली बार अपनी  कविता श्रृंखला   'बाज़ार में बेज़ार '  से  कविता  'बाज़ार में  इंतज़ार' प्रस्‍तुत की थी । इस बार उसी कविता श्रृंखला से एक और कविता बाज़ार में रोना ' । आशा है पसंद आयेगी 

                       प्रेम  रंजन  अनिमेष 


बाजार में रोना

एक बूढ़ा आदमी
रो रहा है
बीच बाजार में

क्या उसका
कुछ खो गया ?

कुछ ले सका
या जो लिया
काम का नहीं निकला

धोखा हुआ
छला गया
ठगा गया
लुटा...?

बाजार में तो
ऐसा होता है

या बाजार वाली नहीं
बात कोई और
कोई अपना दुख
कोई गुजर गया क्‍या
छोड़ कर चला गया ?

इस उम्र में
तो होगा यही
जाते देखेगा औरों को
या खुद जायेगा
किसी किसी दिन तो ऐसा होगा
तय है यही होगा

मगर बाजार और उसके शोर
और भीड़ में
आदमी भूला रहता

हालाँकि बाजार कोई मेला नहीं
आदमी का बचपना

अगर जान पाये कोई
तो जानेगा
बाजार में छूटे किसी बच्चे को
मिलाकर वह आया है
उसके घर परिवार से

रो रहा है
उस बच्चे का
चेहरा याद कर
कुछ इस बात पर
कि कभी पहले
कोई उसे मिला होता ऐसा
तो आज वह कुछ और होता
कहीं और

नहीं बाजार का
एक व्यवसायी
जिसके पास
कोई नहीं
रोने के लिए भी

कुछ भी नहीं
कोई

आदमी
या जगह

और इस बाजार में इसका
चलन कायदा...


शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

बाज़ार में बेज़ार




इस  बार  प्रस्तुत कर रहा  हूँ   अपनी  कविता श्रृंखला  'बाज़ार में बेज़ार '  से  यह  कविता  'बाज़ार में  इंतज़ार' आशा है पसंद आयेगी  

                          प्रेम  रंजन  अनिमेष  




बाज़ार में इंतज़ार

बाज़ार में इंतज़ार कर रहा हूँ मैं किसी का
यहाँ से एक साथ जाना है हमें कहीं
बेहतर होता
यदि मैं उसके घर चला जाता
या वह आ जाता मेरे यहाँ
मगर जिस समय में हम रह रहे
घर दूर है
और बाज़ार नज़दीक
घर में मिलना मुश्किल
बाज़ार में आसान

चारों ओर से आते रास्ते
मुझे नहीं पता
वह किधर से ढूँढता आएगा मुझे
हर तरफ़ देखना है
अपने को आश्वस्त करते रहना
इतनी सारी चेहरे-जैसी चीज़ों
या चीज़ों जैसे चेहरों के बीच
वह मुझे देखेगा
ठिठकेगा देख कर पहचान लेगा...

एक ओर छाँव है कुछ दूर
कुछ देर खड़ा रहता हूँ वहाँ
लेकिन फिर अहसास होता
यह छाँव किसी की है
कुछ भी नहीं यहाँ यों ही
बिना लिया दिये जिसका
उपयोग किया जा सकता
मैं धूप में आ जाता हूँ

थोड़े ही समय में लगने लगता
आना आसान है बाज़ार में
टिकना कठिन
खड़ा रहा इसी तरह
तो कोई हटा देगा
या मुझ पर अपना
इश्तिहार लगा देगा

टहलता हूँ इस मोड़ से उस मोड़
तो भी कई आँखों कंधों कोहनियों से
टकराता कई पहियों के छींटें पड़ते
दबता कटता रह जाता

जहाँ से हटा
लौट कर देखता उस जगह
कहीं ऐसा तो नहीं
वह आया और मुझे न पाकर
फिर गया

कहाँ गया होगा वह किधर
जहाँ से आते रास्ते
ज़रूरी नहीं वहीं ले जाएँ

जो बहुत करीबी हैं
उनके कहीं आसपास होने पर
बजने लगती मेरी नब्ज़
क्या वह इतने निकट है मेरे
और मैं अपनी नब्ज़
सुन सकता हूँ इस शोर में ?
क्या उसे पुकारूँ
क्या यहाँ पुकारा जा सकता है किसी को
आदमी की तरह नाम लेकर ?

मुझे बेचैनी हो रही है
कहीं ऐसा तो नहीं
इस वजह से मेरी घड़ी तेज़ चल रही
आखिर चलने का नाम है बाज़ार
और मैं यहाँ खड़ा होना चाहता
जहाँ रहा नहीं जा सकता सौदे के बिना
राह देख रहा जहाँ देखने को इतना कुछ

फिर एक बार फिर कर
उसी दुकान के सामने आता हूँ
जहाँ अपने होने उसे आने को कहा था
और ढीठ की तरह
खड़ा हो जाता हूँ
मुझे ख़बर नहीं
मेरे पीछे
बदला जा रहा
साइन बोर्ड ।


बुधवार, 24 सितंबर 2014

निज भाषा...




हर साल सितम्बर महीने में और उत्सवों के अलावा हमारे देश में एक विशेष उत्सव होता है   बरसों पहले इसी महीने की 14 तारीख  को  देश की  संविधान सभा ने आधे से अधिक जनता द्वारा बोली जाने वाली और तीन चौथाई से अधिक देशवासियों द्वारा समझी जाने वाली  राष्ट्रभाषा हिंदी को राजभाषा का दर्जा देकर  सम्मानित किया था और कालांतर में बरस में उसके नाम एक यह दिन कर देश के कर्ता- धर्ताओं ने उसके प्रति अपने कर्त्तव्य का  अनुपालन किया   तो इस तरह अपने देश में देशभाषा हिंदी का एक दिन मुअय्यिन हो गया जिसे प्रत्येक वर्ष पूरे रस्मों रिवाज और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है और जिसमें  मातृभाषा के ऋण से उऋण होते हुए  उसके लिए अपनी जिम्मेदारियों का सामूहिक अर्पण तर्पण किया जाता  है ! पहले हुआ भी करती थी किन्तु अब इस उत्सवधर्मी देश में अपनी अपनी उन्नति प्रगति की मरीचिका के पीछे भाग रहे अधिकांश देशवासियों को देशभाषा के लिए  कोई खास फ़िक्र परवाह या पीड़ा नहीं होती   ऐसे में आने वाले समय की कल्पना भी किसी को नहीं सिहराती   ~ किसी किसी को छोड़ कर उसी परिस्थिति और मनःस्थिति की और संकेत करती अपनी यह कविता इस बार प्रस्तुत कर रहा हूँ ~ ' निज भाषा...'   

                                    ~ प्रेम रंजन अनिमेष  


निज भाषा  
( उन्नतिशील एक देश में )


जब हम छोटे थे 

बोली गूँजती थी हमारे घर में 
उसी में बोलते बतियाते परिजन 
और पाठशाला में 
अपनी सीखने की भाषा थी 
हिंदी

अब जब बड़े हुए 
घर में हिंदी बोलते 
और स्कूल में 
हमारे बच्चों को शिक्षा 
अंग्रेजी में दी जाती 

( हालाँकि दाखिला कराया 
जान बूझ कर सोच समझ कर 
अखिल भारतीय हिंदी माध्यम विद्यालय में 
पर आज के दिन अपने देश में 
हिंदी माध्यम शिक्षा वह है 
जहाँ हिंदी विषय की पढ़ाई हिंदी में होती 
बाकी हर जगह अंग्रेजी ही साधन साध्य 
बच्चे यानी  देश के भविष्य जिसके लिए बाध्य )

कल हमारे बच्चे जब बड़े होंगे 
और उनके बच्चे स्कूल में 
आसार यही कि यह द्वंद्व समाप्त हो चुका होगा 

तब घर में भी अंग्रेजी होगी 
बाहर भी 
पढाई और कामकाज का जरिया तो बेशक वही 

इस तरह फिलहाल जो चल रही 
एक बड़ी विसंगति 
जाती रहेगी 

सदन के मन प्रांगण से तो 
जा चुकी पहले ही...!