मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

जब मॉं ही नहीं चाहती बेटी...








जब मॉं ही नहीं चाहती बेटी...

अमूमन कविताओं को तुरंत प्रकाशित नहीं करता । उन्‍हें पकने पगने देता । लेकिन कविता तो कविता है । किसी कायदे में क्‍यों बँधे ! इसीलिए परिवर्तन के तौर पर इस बार आज की आज । यानी आज ही रची ये कवितायें ।

आज एक विदा समारोह में गया था जिसमें एक साथ कुछ बड़े अच्‍छे और खासे लोग विदा हो रहे  थे । यानी सिपहसलारों के संग बादशाह फकीर’  भी ! पहली कविता से तो वहीं मुलाकात हो गयी । अपने यहॉं एक कहन है सराही बहुरिया ! दूसरी कविता सराहे दूल्‍हे के बारे में कह सकते हैं । तीसरी कविता एक पुराने आदमी की जिसके पास एक नया समान है । साथ में तीन और नन्‍ही नन्‍ही कवितायें – जिनमें दो पाखी भी – पॉंच पंक्तियों की कवितायें... जो मन के माने मानो अपने आप ही बनती बुनती रहती हैं भीतर भीतर और जिन्‍हें प्‍यार से मैं पाखी बुलाता हूँ ।

                                             प्रेम रंजन अनिमेष


विदा समय

एक सच सुनने को तरस गया
वह जो हो रहा था विदा

कहने वालों के होंठों से लगा
सच था भी जहाँ
ऐसा
इतना रँगा लिपा पुता
कि यकीन क्‍या
पहचान भी पाना
उसे मुश्किल था...



टेढ़ी लुगाई का सीधा आदमी

बदनाम होकर उसने तुम्‍हारा
काम कितना आसान कर दिया
कुछ न कर सके या नहीं जो करना
सबके लिए जाना सुना बहाना
सिर झुकाये तुम बस मुसकुराना
उसके नाम कर देना
उस पर खेल जाना...



संपर्क क्षेत्र

गठरी की तरह गुड़ी मुड़ी बैठा
लोकल की सीट पर जो बूढ़ा
सहसा भरसक हुआ सीधा
अपने को किसी तरह खोला
और निकाला मोबाइल भीतर बजता

पर तब तक संपर्क क्षेत्र से वह बाहर जा चुका था...



चलते चलते

रास्‍ते में कुछ निकला हुआ था
हाथ में लगा

बढ़ रहा था उसे देखते देखते
कि पॉंव पड़ गया खड्डे में



और अंत में एक पाखी
( कविता पॉंच पंक्तियों की )

निषेध

कैसी दुनिया हो गयी
कि जिसमें कोई स्‍त्री
खुद को जन्‍म देना नहीं चाहती
बात क्‍या की जाये किसी और की
अब मॉं भी नहीं मॉंगती बेटी


और एक और

लुभावन

चाह राह देखने की
या पथिकों को ललचाने लुभाने की
रास्‍ते पर झुक आयी
गदरायी बौरायी
एक डाली…