गुरुवार, 25 जून 2020

'बाँस' : एक कविता की रजत जयंती


 

 
'बाँस'  :  एक कविता की रजत जयंती

'अखराई' में इस बार साझा कर रहा अपनी बहुत पहले - लगभग तीन दशक पहले रची कविता 'बाँस' ! यह कविता इंदौर से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिका  'भोर' और फिर प्रकाशन विभाग की पत्रिका 'आजकल' के मई-जून 1995 अंक में आयी थी, जो युवा साहित्य विशेषांक था । इस तरह इस  कविता की रजत जयंती पूरी हो गयी है !  लिहाजा इस कविता का हक बनता है पुनः साहित्य प्रेमियों के बीच पहुँचने का और साहित्यानुरागियों का भी एक बार फिर से इसे सराहने का । धन्यवाद भाई प्रेमशंकर शुक्ल जी का, जिनकी सामाजिक माध्यमों में इधर आयी इसी शीर्षक की कविता ने मुझे दशकों पुरानी अपनी यह कविता याद दिला दी और इसी बहाने इसे अतीत के पन्नों से ढूंढ़ निकाला... और संयोग से तब जबकि इसी महीने इसके प्रकाशन के पच्चीस साल पूरे हुए हैं ।  किसी  कवि की कविता या रचनाकार की रचना की एक कसौटी यह भी मानी जाती है कि एक अंतराल पर अपनी वही कृति खुद उसे कैसी लगती है !  और सुखद लगा, बल्कि मन ही मन मान हुआ कि इतने अरसे पहले एक इतनी बेधक सार्थक और सशक्त कविता अपनी कलम से निकली थी, जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है... बल्कि शायद पहले से और अधिक ।  तो लीजिये  प्रस्तुत कर रहा अपनी यह कविता 'बाँस' - जिसका फलक अत्यंत विस्तृत है - जीवन जगत और अनंत को अपने आप में समेटे हुए 
 
                                       ~  प्रेम रंजन अनिमेष 
बाँस


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जीवन और मरण के बीच की रस्सी पर 
नट को चाहिए
अपने संतुलन के लिए 
एक बाँस 
 

चोर को चाहिए 
एक बाँस 
फाँदने के लिए दीवार 

 
घुटनों पर हाथ रख कर 
घर को उठने के लिए 
चाहिए बाँस 

 
बाँस चाहिए 
सूरज को रोज
पहाड़ लाँघ कर उगने के लिए 

 
खँचड़ी को 
नक्षत्रों के फल तोड़ने के लिए 

 
गाली को
अपने असर के लिए चाहिए 
बाँस 
बात को वजन
अर्जी को सुनवाई 
कहन को मान के लिए 

 
बहती नदी हो करनी पार 
या रुके नाले खोलने 

 
गुजर या बसर
बाँस जरूरी 

 
चाहे प्यार के सुर हों छेड़ने
गृहस्थी की गाड़ी ठेलनी
या पीरी फकीरी का सफर 

 
मंच मचान मेले तमाशे
खेमे शामियाने के लिए 

 
बाँस चाहिए 
क॔धों से ऊपर जाने के लिए 
भीड़ से अलग नजर आने के लिए 
अनंत में सीढ़ी लगाने के लिए 

 
बाँस है
लेकिन 
नहीं बेकार
बल्कि बेकारों के काम की तलाश 
और  गुमनामों के नाम की तलाश 
खत्म होती अकसर 
किसी बाँस के आसपास 

 
जड़ पकड़ चुका है जीवन में 
बहुत बड़ा और बढ़ा इसका कारोबार 

 
जीवन का चूल्हा हो फूँकना 
या मौत की चिता खोरनी 
बाँस लाजिमी

 
मंजिल 
लगती नहीं 
कुछ हाथ पर
या कुछ कदम दूर 
या मीलों आगे इस तरह 
कि दिखाई न पड़े 

 
म॔जिल हमेशा लगती 
परे बस
एक दो बाँस 

 
सच्चाई यही है 
कि इस दुनिया में 
केवल 
अपने बल पर
आसानी से 
कहीं नहीं पहुँच सकते 

 
कहीं नहीं पहुँच सकते 
बिना बाँस के 

 
मरघट भी नहीं ! 

प्रेम रंजन अनिमेष

 ( 'आजकल' युवा साहित्य विशेषांक, मई-जून 1995 में प्रकाशित )

 

शुक्रवार, 5 जून 2020

हैं हम तो इश्क़ मस्ताने...



कबीर को याद करते हुए इस ज़मीन पर कुछ लिखने की कोशिश की थी कभी ! आज कबीर जयंती के अवसर पर आपसे साझा कर रहा हूँ अपनी वही कोशिश इस ग़ज़ल के ताने बाने में  ~  'हैं हम तो इश्क़ मस्ताने...' । शायद पसंद आये                               

                                          ~  प्रेम रंजन अनिमेष 

 
   हैं हम तो इश्क़ मस्ताने...

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हैं  हम  तो  इश्क़  मस्ताने   हमें   है  होशियारी  क्या 

मुहब्बत अपनी दुनिया है तो फिर ये दुनियादारी क्या 

 

किसी  के  दुख  में  रो लेना  सभी के  साथ हो लेना

यही है  ज़िंदगी अपनी  हमारी क्या  तुम्हारी  क्या 

 

ये  पैसे  पदवियाँ  पहचानें  अपने पास  रख  प्यारे

 हमारा  यार  है  हममें   हमारी  इनसे  यारी  क्या 

 

हम  आये  देखने  बाज़ार  कुछ  लेना  न  देना  यार

 नहीं जब  शौक़ बिकने का  नक़द चाहे  उधारी क्या 

 

 दिया  है  दाँव  पहला   खेल  में  दिल के  भरोसे  पे

  निकल जायेगा फिर लेकर दिये बिन मेरी बारी क्या 

 

जो उसके होंठों से  पाया  चलो  होंठों को  दो लौटा 

मिला कर रखना हर खाता रहे उल्फ़त उधारी क्या 

 

ये ऐसा घाट है जिस पर है आना सबको ही आख़िर 

यहाँ क्या  आदमी औरत  यहाँ राजा भिखारी  क्या 

 

हुआ  जब  ज़ुल्म रों पे  तो सब  चुपचाप  बैठे थे 

है तारी कैसा सन्नाटा  अब आयी अपनी बारी क्या 

 

यहाँ कट जाता है वो सर  जो करता उठने की जुर्रत 

झुकी  इन गरदनों की  पर  कोई मर्दुमशुमारी  क्या 

 

हूँ शायर  सीधा सादा तो  कहूँ सब   सीधे सीधे क्यों

 नहीं  परिवार घर  रखना  नहीं है  जान प्यारी  क्या 

 

है ख़ाली हाथ आना जब  न कुछ भी साथ जाना जब

 तो  क्यों  असबाब  ये सारे  महल कोठे अटारी  क्या 

 

मुअय्यन  मौत का है दिन  ज़रा  समझा  इन्हें  ग़ालिब 

तो इतनी अफ़रातफ़री क्यों  फिर ऐसी मारामारी क्या 

 

न कोई साज  ना सामां  बुलावा  जब भी आयेगा 

चले  जायेंगे  ख़ुद पैदल  कोई गाड़ी सवारी  क्या 

 

सहर मत झाँक कर देखो  तुम अपने  दिल से  ये पूछो

कि हमने साथ मिलकर रात की क़िस्मत सँवारी क्या 


 
नहीं  हो  आग  सीने में  न पानी  आँखों  का  'अनिमेष'

 न धड़कन हो  न सिहरन हो तो इस मिट्टी से भारी क्या 

 

प्रेम रंजन अनिमेष

                         

मंगलवार, 2 जून 2020

गाँव जाना चाहते हैं...






बंद में अनगिनत मज़दूरों कामगारों के धूप ताप में जलते चलते सुदूर अपने गाँव के लिए पाँव पैदल जाने के दृश्य हृदयविदारक हैं और अनिर्वचनीय भी ! पता नहीं शब्दों में उनकी अकथ कथा और अगाध व्यथा  व्यक्त करने का कितना सामर्थ्य है ! इसी पृष्ठभूमि में अत्यंत नत विनत भाव से साझा कर रहा अपनी यह ग़ज़ल  'गाँव जाना चाहते हैं...'
                                            ~  प्रेम रंजन अनिमेष 
 
   गाँव  जाना चाहते हैं...

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है   कहाँ    जो   आबोदाना   चाहते   हैं
हम  तो   अपने  गाँव  जाना  चाहते   हैं

आइना   दुख   को   दिखाना  चाहते   हैं
आँसुओं   में    मुसकुराना     चाहते    हैं

बस्तियाँ  कितनी  बनायीं  और  बसायीं
दर ब दर   होकर   ठिकाना   चाहते  हैं

छिलते छालों  को  बना कर राह  चलते
नक्शे  पा   यूँ   छोड़  जाना   चाहते  हैं

टूटती   है  आस   या  फिर  साँस  पहले
आख़िरी   तक    आज़माना   चाहते   हैं

कुछ  कमाने  आये  सब  जाते  गँवा कर
ज़ख़्म  ये  ख़ुद  से   छुपाना   चाहते   हैं

 जा  रहे  हैं   जिस  तरह  कोई  न  जाये
 छूटते     रस्ते      बुलाना    चाहते    हैं

 शहर   के   बाज़ार  ने   ठुकरा  दिया  है
 मोल  अब   अपना   लगाना  चाहते  हैं

 पत्थरों   में   दूब  सा   जीवन   यहाँ   है
 होने   का    कोई    बहाना    चाहते   हैं

 बीज  उम्मीदों  के  यूँ  ही  मर    जायें
 फ़सल  बन  कर  लहलहाना   चाहते  हैं
 
 हैं  कहाँ   जो  मान कर  इसको  इबादत
 रूठे   बचपन   को   मनाना  चाहते   हैं

 घर   नहीं  आता  क्यों   बच्चे    पूछते  हैं
 क्या  कहें   हम  क्या  बताना  चाहते  हैं

 भूख  की  रोटी   पका  कर   खा  रहे  हैं
 प्यास   को   पानी   बनाना  चाहते   हैं

 जलते  इस  सहरा  में  कोई  बूँद  झलके
 ख़ुश्क   होंठों   पर   तराना   चाहते   हैं

 छाँह   लेकर   पेड़   राहों   में   खड़े   हैं
 धूप   हम   उनकी   उठाना   चाहते   हैं

 फ़ासले क़दमों में  सर रख दें  सिमट कर
 हौसले     ऐसे     बढ़ाना    चाहते    हैं

 है भला  हस्ती ही क्या  उनकी  जहां में
 अपनी  हस्ती  जो  मिटाना  चाहते   हैं

  हाँ   दुआओं   से  भरे  ये  हाथ  उठ कर
 आसमानों   को    झुकाना    चाहते   हैं

 ढलते सूरज  आँखों  की  इस रोशनी  से
 अब  दिया  तुझको  दिखाना  चाहते  हैं

 छूटती    मजबूरियों  में   ही   ये  मिट्टी
 फिर  वो उजड़ा  आशियाना  चाहते  हैं

 हाथ  में  ले  हाथ  दिल  की  बात करते
 फिर   वही  आलम  पुराना  चाहते   हैं

एक  एक  कर  के   गुज़रते  जा  रहे  हैं
लोग   जो   गुज़रा  ज़माना   चाहते  हैं

 क्यों  चुराते  हो   नज़र   ऐ  हुक्मरानो
 कौन   सा   कोई   ख़ज़ाना   चाहते  हैं

है   हमारे  दम   से   तेरी   बादशाहत
याद   बस  इतना  दिलाना  चाहते  हैं

 क्या हमारा हक़ नहीं कुछ इस ज़मीं पर
हम लहू  जिस  पर  लुटाना  चाहते  हैं

पूछना  मत  कौन  जो  उजड़े  घरों की
आग  में  सब  कुछ   पकाना  चाहते हैं

कोख   में   जो   ज़िंदगी   लेती  कराहें
क्या जहां  उसको  दिखाना  चाहते  हैं

 आने वाले  कल  तू  हमको माफ़ करना
तुझको किस दुनिया में लाना चाहते हैं

लाश कांधों पर उठायी  इतने दिन तक
अब   सवालों   को   उठाना  चाहते  हैं

 जैसे भी  हों  लोग  ये  अपने हैं  आख़िर
 फिर  गले   इनको   लगाना  चाहते  हैं

 ऐ   मेरी   बेनाम   चाहत   जाते  जाते
 नाम   से   तुमको   बुलाना   चाहते  हैं

दम      टूटे   देहरी  तक   आते  आते
धड़कनें    इतनी   बचाना   चाहते   हैं

माफ़  कर   छूटी   हुई   मिट्टी   ये  बच्चे
इतने  दिन पर  मिलने आना  चाहते हैं

माँ  बुला ले  अपने  आँचल  में  सुला ले
गोद  में  फिर  सिर  छुपाना  चाहते  हैं

अब कोई मंज़िल न कोई चाह 'अनिमेष'
अपनी   छूटी   छाँव   पाना   चाहते  हैं
 

                                                   प्रेम रंजन अनिमेष