सोमवार, 23 सितंबर 2013

'मिट्टी के फल' कविता संग्रह से एक कविता ~ 'गालियाँ'



पहले कविता संग्रह 'मिट्टी के फल' की कई कविताओं को लोग अकसर याद करते हैं । उनमें से एक कविता है  'गालियाँ' । थोड़ी लंबी है इसलिए कहीं सुनाना हो तो कई बार संकोच कर जाता हूँ । अच्‍छा लगा जब ऐसे में कुछ लोगों ने बाकायदा नाराजगी जताई कार्यक्रम संपन्‍न होने  के बाद यह कविता न सुनाने के लिए । संयोगवश पहले दोनों संग्रह 'मिट्टी के फल' और 'कोई नया समाचार', जो क्रमश: प्रकाशन संस्‍थान एवं भारतीय ज्ञानपीठ से 2001 व 2004 में आये थे, जल्‍दी ही आउट ऑफ प्रिट हो गये । कई लोग अब भी इन संग्रहों को ढूँढ़ते हैं, विशेषकर पुस्‍तक मेलों में, और न मिलने पर निराश होकर सूचित करते हैं । दोनों ही प्रकाशकों से आग्रह किया है । देखें वे पुनर्मुद्रण कब करवाते हैं और किताबें कब तक उपलब्‍ध होती हैं ! तब तक प्रयास करूँगा समय समय पर उनसे कोई कविता प्रस्‍तुत करने का । इस बार पहली किताब से यह कविता जिसके लिए विशेष रूप से अनुरोध आते रहते हैं :
                                - प्रेम रंजन अनिमेष




गालियाँ

वे आदिम प्रवृत्तियों की ओर
ले जाती हैं हमें

अब ये ठीक ठीक पता नहीं
कि आदिम लोग
कौन सी गालियाँ
देते थे
या कि देते भी थे या नहीं

शात्रीय साहित्य की
सबसे बड़ी चूक यह है
कि वह हमें
उस ज़माने की गालियों की
जानकारी नहीं देता

जबकि हो सकता है कि गालियों में
उस समय और संस्कृति का
अधिक प्रामाणिक और जीवंत इतिहास हो
जैसे कि मृद्भाँडो में

यह गौर करना दिलचस्प है
कि मनुष्य और पशुओं की
आपसदारी से बनी हैं अधिकतर गालियाँ
और पक्षियों पेड़ों और पत्थरों का
अभी आना इनमें शेष है

यूँ कहा यह भी जाता है
कि ईमानदार तीर की तरह हैं गालियाँ
सामने वाला प्रतिकार के लिए तैयार हो
तो वापस तरकश में
लौट आती हैं

इस तरह उनका कोश
भरा रहता

कोई कला चाहे वह कैसी भी हो
अपनी पूरी तन्मयता में
अन्य उन्नत कलाओं के पास पहुंच जाती है
इस तरह सुबह सवेरे स्नान करते
पूरी चिन्ता पूरी लय में
गालियों की मंत्रमाला गूँथते आदमी की कोशिश
बिल्कुल एक भजन प्रार्थना वंदना सी
लग सकती है

हार मानने वाली स्‍त्री के पास
नाखूनों के सिवा
उसका हथियार हैं गालियाँ ही

और जर्जर बूढ़े के लिए
निरीहता के बाद
उसकी ढाल

बच्चों के लिए
उनकी फुन्नी को छोड़कर
यही एक शगल

जैसे कवि के पास
सीधे विदोह कर
मारे जाने के अलावा
रास्ता कविता लिखने का

समय और दौर के साथ
गालियाँ
मान्य हो सकती हैं
और मान्यतायें
गाली

जैसे सज्जन आदर्शवादी ईमानदार
कहना किसी को अभी
उसे गाली देने की तरह हो सकता है

जब याद करो तब जाती हैं
इसलिए लंबी उम्र है
गालियों की

भाषाविज्ञानी नहीं मैं
लेकिन जाने क्यों लगता है
किसी जुबान को धार के लिए
लौटना होगा अपनी गालियों के पास

और हालांकि समाजशात्र उतना ही
जानता हूँ जितना पेड़ की जड़ें
मगर यह भी लगता है
कि जब कहीं नहीं रहेंगे
तो गालियों में ही बचे रहेंगे रिश्ते

क्या ये सच नहीं
कि आत्मीयता का सबसे मधुर और जीवंत छंद
मंडप की थाल पर
दी गयी गालियों में है !