गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

इस बार यह कविता ~ 'खिल्ली'




      
इस बार अपनी  यह कविता साझा कर रहा हूँ  जो कुछ मित्रों को अत्यंत प्रिय  है  I
                      - प्रेम रंजन अनिमेष
खिल्ली
                                   
              
 


ऐसे  तो  उसके आगे  रहते  बन  भीगी  बिल्ली
छुट्टी के  दिन  खूब उड़ाते  दिनचर्या की  खिल्ली

दिन चढ़ने तक सोये रहना  उलट पुलट ले करवट
जब जागो तब  हुआ सवेरा क्या झटपट की झंझट
भरी दोपहर  मुँह धोना  मन हो तो  शाम नहाना
छत पर तकना  दूर दूर तक  जोर जोर से  गाना
इत उत  उड़ते फिरते  रहना  जैसे नयी तितल्ली
या  चादर में  दुबके रहना  पत्तों में  ज्यों इल्ली

ओसारे  में   बैठे  रहना   खोले   अपना फाटक
बड़े ध्यान से  देखा करना  दुनिया भर का नाटक
बहुत दिनों से मिले जिनसे उनसे मिलने जाना
यारों  के  सँग   लगा बैठकी  गप्पें  खूब उड़ाना
कुछ कुछ लिखना कर सारे कामों की टालम टल्ली
या  पतंग सा  लहराना खुद को दे  पूरी  ढिल्ली