गुरुवार, 30 दिसंबर 2021

कह कर क्या जाना...

 

जाते साल को विदा करते हुए 'अखराई' पर इस बार साझा कर रहा अपने  आगामी कविता संग्रह  संक्रमण काल की कवितायें' से  अपनी कविता ' कह कर क्या जाना'                                                                                                               ~ प्रेम रंजन अनिमेष

                                🌻

कह कर क्या जाना 


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जाते वक्त 

अगर कुछ कह पाया

तो कहूँगा क्या ?

 

कोई जाना माना 

सितारा तो नहीं 

कि एक लंबे संवाद की

गुंजाइश होगी मेरे लिए

 

और न ज्ञाता वक्ता

ख्यात प्रतिष्ठित  

जो गिनाये बताये

जा रहा किस किस से 

 

न तो होगा

मंच सजा महाप्रयाण का 

सादर जहाँ 

दो शब्द कहने को

आमंत्रित किया जाये

फिर दो से आगे

हो गये कितने

घड़ी न बताये

 

नहीं जानता

कहने के लिए 

कोई कहेगा

या सुनने वाला

रहेगा 

 

मगर कह सका 

तो आखिर कहूँगा क्या ?

 

खुश रहो अहले वतन

हम तो सफर करते हैं...

कहने सुनने में तो अच्छा  

मगर बड़े बड़े वीर बाँकुड़े 

कहाँ कह सके 

शहादत के वक्त ऐसा

न वे ही जिन्होंने 

इस तरह सोचा लिखा

 

सूली पर चढ़ाये जाते 

मौत के घाट उतारे

क्या आयेगा जुबान पर

पलकें मुँदने से पहले ?

 

हे ईश्वर 

माफ करना इन्हें 

ये नहीं जानते 

कर क्या रहे  

 

लेकिन इतना कह पाना

तो बापू के लिए भी संभव न हुआ 

कह सके केवल  -  हे राम !

 

फिर मैं भला 

क्या कह सकूँगा  ?

 

जीवन का 

अनुभव जितना

मालूम उससे इतना

कि मौत कभी

होती नहीं कुदरती

वह कहाँ मारती

किसी को कभी  ?

 

शास्त्रों में होगा लिखा 

कि सीमाओं में कहीं  

दम तोड़े कोई 

तो उत्तरदायी उसका

राजा 

 

क्या जाने से पहले 

काम कर जाऊँ 

एक यह भी नेक भला

लिख जाऊँ 

कि मेरे गुजरने के लिए 

जिम्मेवार नहीं कोई 

और मुक्त कर जाऊँ सबको ?

 

कौन जाने उस समय

न रहे याद

इतना बड़ा संवाद

या हृदय पर हो हाथ

तो कह न सकूँ कुछ भी

सिवा सच के 

 

दिन चार मिले

जीवन के 

तो पल मिलेंगे

और अक्षर भी

दो चार ही

जाते जाते

 

रोकना चाहे कोई  

तो जोड़ लूँगा हाथ

अरज करता

अब छोड़ दो 

जाने भी दो

 

फिर हाथ हिला

कर जाऊँगा 

कह जाऊँगा

अलविदा 

 

किंतु ऐसा तो

किया कहा कितनों ने ही

कवि हूँ 

तो करूँ कुछ नया 

चलूँ किसलिए पकड़ कर लीक 

दुहराऊँ क्यों वही

 

जाते हुए

होंठ फड़केंगे

उन आँखों की रोशनी में 

टिकी हुईं जो तब भी

जाने किस आस में 

और शायद 

दिल से निकले 

फिर आऊँगा...

 

पर जाते जाते 

ऐसा कुछ क्यों कह जाना

घबरा जायें जिससे

दुश्मन दोस्त 

पराये अपने  ?

 

मौत को भी शायद

तरस आ जाये 

कि तय हुआ नहीं 

इतना भी अभी

जाते जाते कहना क्या

और दे दे वह 

कुछ मोहलत फिर से

 

शायद इसीलिए 

हूँ रह गया 

और रहूँ आगे जिंदा 

कि अब तक सोच नहीं सका

मन नहीं बना 

 

कि जाते जाते

कह कर क्या

जाना... 

                                                               प्रेम रंजन अनिमेष