रविवार, 31 दिसंबर 2023

एक साल, तीन कविता संग्रह और रचना संसार पर एकाग्र अंक

 

'साइकिल पर संसार', 'संक्रमण काल', 'माँ के साथ' और सृजन समग्र पर एकाग्र 'समीचीन' विशेषांक 
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यह वर्ष इस तरह विशेष रहा कि सुयोग से इसमें एक के बाद एक मेरे तीन काव्य संग्रह आये हैं । और जैसा मेरा विनम्र प्रयास रहा है, ये तीनों संग्रह अपने आप में अनूठे हैं । सबसे पहले ‘साइकिल पर संसार‘ कविता संग्रह ‘नॉटनल’ से ई-पुस्तक या ईबुक के रूप में आया, जिसमें साइकिल के साथ पूरा समय, समाज और संसार है । 


इसके बाद रश्मि प्रकाशन, लखनऊ से कविता संग्रह ‘संक्रमण काल’ प्रकाशित हुआ, जो सदी की सबसे बड़ी त्रासदी का सृजनात्मक अभिलेख है, और एक साथ समकाल और सर्वकाल का संबोधन । लब्धप्रतिष्ठ अग्रणी कवि अरुण कमल जी के शब्दों में, जिन्होंने इसकी भूमिका भी लिखी है, 'यह किताब उस त्रासदी का अब तक का सर्वाधिक विश्वस्त और सांद्र आख्यान है।' 


साल का सुंदर समाहार कविता संग्रह ‘ माँ के साथ ‘ से हुआ । प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली से प्रकाशित इस नव्यतम काव्य संग्रह का लोकार्पण 10 दिसंबर को पटना पुस्तक मेले में वरिष्ठ कवि और अत्यंत आत्मीय आलोक धन्वा के हाथों होना एक अविस्मरणीय अनुभव रहा । 



यह कविता संग्रह, वर्ष 2004 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित मेरे दूसरे कविता संग्रह ‘कोई नया समाचार’ ; जिसमें बच्चों के बहाने जीवन जगत को देखने की कोशिश है, और वर्ष 2016 में आये चौथे कविता संग्रह ‘संगत’ ; जिसमें पिता के सानिध्य के अंतिम वर्षों की दुर्लभ अभिव्यंजना –  इन दोनों के साथ मिलकर एक व्यापक वितान बुनता बनाता है और रचता है ‘आत्मीयता की वृहत्त्रयी‘, जो मनुष्य व मनुष्यता के लिए अवश्वमेव अनिवार्य अपरिहार्य है, परंतु जिसे यह दुनिया दिन दिन खोती जा रही है । 



अपने आने वाले पोस्ट में एक एक कर इन तीनों संग्रहों के बारे में बातें करने और उनसे कुछ कवितायें साझा करने का प्रयास रहेगा । आशा है तब तक उपन्यास ‘स्त्रीगाथा’ और कहानी संग्रह ‘एक मधुर सपना’ भी प्रकाशित होकर आपके हाथों में पहुँच चुके होंगे ।  

मेरे रचना जगत पर एकाग्र ‘समीचीन’ पत्रिका के  विशेषांक का प्रकाशन भी इस वर्ष को ख़ास और यादगार बनाता है । इसके सुलझे और सुदृष्टिसंपन्न संपादक श्री सतीश पांडेय जी को साधुवाद, जिन्हें यह लगा कि मेरे सृजन संसार पर समग्र अंक आना चाहिए । जैसा अपने संपादकीय में उन्होंने संकेत किया है, यह जान कर ही कई सुजन-सुजान परेशान हो गये, जिनमें ख़ास तौर पर समकालीन सम्मिलित थे । समझा जा सकता है कि क्यों कोई रचनात्मक योगदान या अवदान नहीं रहा उनका । इस सबके बावजूद 65 से भी अधिक आलेखों और लगभग  400 पृष्ठों का यह भरा पूरा अंक जितना अभिभूत करता है, उतना ही विनत – कि जिन जिनके हृदय को मेरी रचनात्मकता ने कहीं न कहीं छुआ, उनके हाथ आगे बढ़े और उन्हें लगा कि ऐसी निश्छल सतत सृजन साधना के बारे में लिखना अवश्य चाहिए ! उन सबके प्रति मेरा हार्दिक आभार ! 

https://c9419af4-b6d0-4eee-a13e-2d97d320793a.filesusr.com/ugd/a05942_a42d685855b6466d89642419ac162cf6.pdf



आनेवाले नववर्ष की शुभकामनाओं के साथ यह विश्वास भी कि सबका स्नेह सदैव मिलता रहेगा और उत्तरोत्तर बढ़ता रहेगा ।

प्रेम रंजन अनिमेष


गुरुवार, 31 अगस्त 2023

उठान..

 

'अखराई' के इस भाव पटल पर इस बार साझा कर रहा हूँ अपनी कविता उठान   इसे मेरे प्रकाश्य कविता संग्रह  ' नींद में नाच ' में संकलित कविता ' उत्थान ' की अगली कड़ी के रूप में देखा जा सकता है । ' उठान मेरे कविता-क्रम ' स्त्री पुराण स्त्री नवीन ' का हिस्सा है, जो आप सबकी शुभेक्षा से संभवतः आगे कभी पुस्तकाकार प्रकाशित हो

                                                       ~ प्रेम रंजन अनिमेष

 

उठान
 
µ 

                                            
पहले उसकी
पलकें उठीं
फिर चेहरा पूरा
 
उसके बाद
वह खड़ी हो गयी
पैरों पर अपने
एड़ियों पर उचकी
 
और हाथ बढ़ाये
छूने के लिए 
आसमान के चाँद सितारे
 
देखा सबने
देखते देखते
कद उसका
लगा बढ़ने 
 
परुष पुरुष को 
बरदाश्त कहाँ 
स्त्री का
अपने से ऊँचा उठना
 
कौन जाने
क्या कर बैठे
ऐसे में 
 
आदमी वो
जो हो ही नहीं 
औरत न हो तो
 
हो भी
तो रह न पाये
 
बना बसा कर
स्त्री अगर नहीं बचाये...
 

         µ         

 

                    ✍️ प्रेम रंजन अनिमेष 

        

                                                                        

शनिवार, 29 जुलाई 2023

आनेवाले कविता संग्रह ' माँ के साथ ' से कुछ कवितायें

 

कुछ व्यस्तताओं के कारण 'अखराई'  एवं उसके सहयोगी ब्लॉग बचपना' पर हर महीने अपने रचना संसार से कुछ चुने हुए मोती साझा करने का वर्षों से चला रहा अटूट सिलसिला पिछले कुछ महीनों थमा रहा । अब समय है उस क्रम को फिर से आगे बढ़ाने का ! बहुत धन्यवाद इस बीच याद करने और याद कराने के लिए कि यह यात्रा सतत अनवरत चलती रहनी चाहिए  

 

इस बार अपने आनेवाले कविता संग्रह ' माँ के साथ ' से आकार में छोटी परंतु भाव प्रभाव संभाव में बड़ी कुछ कवितायें प्रस्तुत कर रहा हूँ  

          

                                                     प्रेम रंजन अनिमेष


उपस्थिति

🟡                                  

 

गेंदड़े में  

खुँसी है 

सुई

 

माँ होगी 

यहीं कही...

 

 

संसार का सबसे बड़ा झूठ

µ                                    

                             

ईश्वर के

बारे में 

कोई कहता 

 

तो क्या पता

मान भी लेता 

शायद कहीं 

 

इतनी

बेमानी सी

बेमतलब की 

कोई 

बात 

आज तक

नहीं 

किसी ने

कही

 

दुनिया का

सबसे बड़ा

झूठ है

यही

 

कि माँ 

अब

नहीं 

रही...

 

µ

 

( शीघ्र प्रकाश्य  कविता संग्रह ' माँ के साथ ' से )

                            

                     

इसी की दृश्य श्रव्य प्रस्तुति इस लिंक पर देखी सुनी सराही जा सकती है :

 

https://youtu.be/bTOeryzg2Fg

 

                      प्रेम रंजन अनिमेष 



बुधवार, 31 अगस्त 2022

रहने दे...

 

'अखराई' के इस भाव पटल पर इस बार साझा कर रहा हूँ अपने आने वाले कविता संग्रह ' अंतरंग अनंतरंग ' से अपनी यह कविता  रहने दे...  । आशा है पसंद आयेगी

                               ~ प्रेम रंजन अनिमेष


रहने दे

µµ

 

पहले पहले

होंगे कितने

पर आखिर में 

 

तू ही रहेगा 

मेरे लिए 

मैं तेरे लिए 

 

अगर जिंदगी 

दोनों को

रहने दे

 

उतने दिन

रहने दे

 

साथ साथ 

रहने दे...

                                

( आगामी कविता संग्रह ' अंतरंग अनंतरंग ' से )

 

                          µ

 

इसी कविता की दृश्य श्रव्य प्रस्तुति इस लिंक पर देखी सुनी सराही जा सकती है :

 

https://youtu.be/LsgSZ0My32Q 

 

                        प्रेम रंजन अनिमेष 



मंगलवार, 31 मई 2022

हर घर...

 

    यादों के ख़जाने से अपनी बरसों पुरानी एक ग़ज़ल, जो दिसम्बर 1988 में  'आजकल' में छपी थी जब मैं स्नातक का विद्यार्थी हुआ करता था, कुछ और अशआर के साथ साझा कर रहा हूँ  

    कविताओं, कहानियों, उपन्यासों, संस्मरणों, आलोचनात्मक आलेखों के संग्रहों की अनेकानेक पांडुलिपियों  तरह ग़ज़लों के भी पाँच छह दीवान तो तैयार पड़े हैं कबसे ।  ये प्रकाशित कब हो पायेंगे भगवान जानें या प्रकाशक ! वैसे भी इन दिनों प्रकाशक  किसी भगवान से कम नहीं, जो किसी किसी को ही मिलता है और किसी किसी पर ही मेहरबान होता है ! पहले यह दर्जा पाठक और आलोचक को प्राप्त हुआ करता था ।  किसी खेमे में रहा नहीं कभी और सिद्धांततः नजराने चढ़ावे देकर प्रभु को प्रसन्न करने से परहेज है तो इसका खामियाजा तो उठाना पड़ेगा ! अपनी खुद्दारी ने इसके लिए भी मन ही मन अपने को तैयार रखा है शुरु से । खैर, प्रभुता किसी की हो, सच्चा सर्जक तो सदा प्रतिसत्ता में ही रहता आया है ।    

    साफगोई की तरह ग़ज़लगोई का गुनाह भी बचपन से ही करता रहा हूँ। यह एक तरह से मेरा मनबहलावा भी है। छंदमुक्त कविता के मुक्ताकाश में विहार करते करते कभी कभी स्वर-लय-संगीत नैसर्गिक रूप अंदर जाग उठते हैं । जैसे मन लगाने के लिए कोई पतंग उड़ाता है, मैं कभी कभार छंद उड़ाता हूँ। यह समर्पित सृजन के बीच राहत का मेरा अपना तरीका है।  वैसे भी, बतौर साहित्यकार किसी भी तरह कीअस्पृश्यता का हामी या हिमायती नहीं हुआ जा सकता । कम से कम मैं तो इसका कायल नहीं ।   

    बहरहाल, बातें बहुत हुईं   अब रचना   का आनंद उठाया जाये 'अखराई' के इस भाव पटल पर ! किसी भाग्यविधाता की मध्यस्थता के बिना साहित्यभक्तों तक रचनाओं को पहुँचाने का एक जरिया यह भी है   

    तो साझा कर रहा अपनी यह ग़ज़ल हर घर... ! क्या उम्मीद कर सक्ते हैं कि हर घर तक जायेगी और सबको भायेगी…?

                               ~ प्रेम रंजन अनिमेष

 

                        हर घर...

 

              µ               

 

हर घर  अपना  घर  लगता है
इस  बस्ती  से  डर  लगता  है
 
भूले  भटके    हँस   देता   जो
कोई     जादूगर    लगता    है
 
होती  है  इक उम्र  कि जिसमें
साया   भी   सुंदर   लगता   है
 
सच में  प्यार  मिले तो  कर ले
दिल  इक  ले देकर  लगता है
 
जीता जगता  ख़्वाब  था  कोई
अब    दीवारो  दर   लगता  है
 
पूछती है तितली क्या सचमुच
सपनों  को  भी  पर  लगता है
 
विरहन  सावन सा  ये  जीवन
दुख   प्यारा  देवर   लगता  है
 
है  कितना  अपना  हर  लम्हा
खो  पाना   दूभर   लगता   है
 
नीची  छतें  हैं  इन  रिश्तों  की
आते   जाते    सर   लगता   है
 
अकसर  होता  हद  में  अपनी
ख़ुद  से जो  बाहर   लगता  है
 
हाथ   की   दूरी   पर   हैं   तारे
रात  कभी  जग कर  लगता है
 
मन  की  चींटी  देख  ललकती
उसको जहाँ  शक्कर  लगता है
 
तेरी अगन में  दहके  हुओं  को
सूरज   एक   शरर   लगता  है
 
मुझको  पहन कर  इतराये  वो
प्यार  को  भी  पैकर  लगता है
 
यार   को   प्यार  बना  लेने  में
बस  आधा   अक्षर   लगता  है
 
छूते   फिर   से   धड़क  उठेगा
देखूँ    जो   पत्थर   लगता   है
 
हूँ   इस  पर  तो   साथ  तुम्हारे
फ़ासला  भी  बिस्तर  लगता है
 
पानी    खोजता   है   ये  चेहरा
तर  होकर  बेहतर   लगता  है
 
अच्छा   लगता   है   जब   कोई
अपने   से   बढ़ कर   लगता  है
 
दर्द    दिखाता    रस्ता   सबको
रहबर     पैगम्बर     लगता    है
 
जिसका न कुछ किरदार वही अब
सबसे      क़द्दावर    लगता   है
 
कैसे   रहे   इनसान   यहाँ   पर
दहर   ख़ुदा  का  घर  लगता  है
 
उसको   ख़ुदा   मानें   तो  कैसे
जो  ख़ुद   से  बाहर  लगता   है
 
किससे आस और आसरा किसका
दर   से   ख़ाली   दर  लगता  है
 
जैसे    अकेला    बच्चा    कोई
दिल ख़ुद से  अकसर लगता है
 
मान    मानी   भीड़  में  कोई
हाथ  से  हाथ  अगर  लगता है
 
ठीकरे   जैसा   ये   जग   सारा
अपनी   ठोकर  पर   लगता  है
 
होता दुखी दुख देख के सबका
दीवाना    शायर     लगता    है
 
लहजा अलग है इन ग़ज़लों का
सबसे   जुदा   तेवर   लगता  है
 
शहर के सहरा में कौन 'अनिमेष'
जो
  भीतर  तक  तर  लगता  है

                                                                                                                     प्रेम रंजन अनिमेष