रविवार, 20 अप्रैल 2014

चौखट पर अजनबी पवाइयाँ

कोई  दो दशक  पहले 'हंस' में प्रकाशित इस कविता के लिए मित्रों के अनुरोध आते रहे कि इसे वे पढ़ना चाहते हैं ।  बंधु युनूस खान ने पिछले साल ही गुजारिश की थी और मैंने वादा भी किया था कि इस कविता को खोजकर जल्‍दी ही सामने रखूँगा । कविता को  22~23 बरसों के बाद भी याद रखने के लिए सभी साथियों को धन्‍यवाद सहित  इसे प्रस्‍तुत कर रहा हूँ
                             ~ प्रेम रंजन अनिमेष



चौखट पर अजनबी पवाइयाँ
                            
सीढ़ियाँ  चढ़ते
दरवाजे के पास दिखतीं
जोड़ी चप्पलों की नयी सी
इस घर की नहीं

ओहो
तो मेरे पीछे
घर में
कोई आया है !

बहुत प्यारी सी
लग रहीं
शकुन पाखियों की जोड़ी जैसी
नयी संभावनाओं से भरतीं
पवाइयाँ अपरिचित

इनमें अपने
पाँव डालने का मन कर रहा
इनसे कुछ खेल करने का
जी हो रहा

दस्तक देता हूँ
अंदर की आहट सुनने की
कोशिश करता हूँ लगाकर कान
जैसे एक नये घर में आया हूँ

कौन होगा ?
कोई भी आया हो चलो
चलो तो भीतर !

ऊपर दरवाजे पर लगे
किसी नामपट्ट से ज्यादा
संकेत देतीं ये
भीतर उपस्थित मनुष्यता का

चौखट के आगे खुली
इन चप्पलों से
पता चलता
बसेरे के बसे होने भरे होने का
और मिलता
नया उल्लास
अपने घर प्रवेश का

जब तक आगम का
उछाह हो भीतर
तभी तक हम हैं कोई है घर में
और घर
है घर

जल्दी से
उतारता अपनी चप्पलें
बगल में उन नवपरिचित पवाइयों के

एक बार साथ निहार कर उन्हें
अंदर जाते जाते रुकता हूँ
और उस  जोड़ी की एक पवाई
जल्दी से छुपा देता हूँ
कुछ देर के लिए कहीं...