रविवार, 30 अगस्त 2020

जैसी चाहिए दुनिया


देश और दुनिया के मौजूदा हालात में अपने आप बनती बुनती गयीं नव्यतम कविताओं के प्रायः पुस्तकाकार हो चले अपने संकलन ~ 'संक्रमण काल की कवितायें ' से पिछली बार साझा की कविता 'मदर इंडिया 2020'  को जिस तरह अपार स्नेह आप सबसे प्राप्त हुआ उसके लिए अतिशय आभार ! ख्यात अभिनेता व रंगकर्मी राजेंद्र गुप्ता जी ने उसका प्रभावशाली पाठ प्रस्तुत किया जिसके लिए अनेक धन्यवाद उन्हें भी ! 

'अखराई' में इस बार अपनी यह एकदम नयी कविता जैसी चाहिए दुनियारख रहा आपके सामने । आपके प्रतिसाद की प्रतीक्षा रहेगी  

                                             ~ प्रेम रंजन अनिमेष
जैसी चाहिए दुनिया

 µ                      

निहत्थी होती जा रही मनुष्यता
अपनी विकास यात्रा में 


हर साल संस्थान सारे
करते घोषित 
अब हाथों की जरूरत 
और कम हो गयी है 
इतने हो चले उन्नत वे
 
उन्हें अहसास नहीं 
कि हाथ कई होंगे अकेले 
अपने घर को निवाला देने वाले 


हथियारों से भरी इस दुनिया के  
हाथ कितने तंग और खाली

और दोनों हाथ अपने ऊपर किये
समर्पण भाव से आदमीयत 


बेदिमाग पहले हो चुका यह दौर 
मशीनों को सौंप कर 
अपनी सोच और समझ
 
फैसले अकसर लेते जिसमें 
यंत्र आदमी सरीखे
या लोग मशीनों से


मानवीय परस
इतना कम
कि कभी कभी 
बेचैन हो जाती धरती 


पाँव धर लेती जो भी मिले
और कहती उसे यूँ ही चले 
ओस भरी घास पर
कि महसूस हो कहीं
ऊष्मा इनसानियत की 


चाँद पर पानी
ढूँढ़ने से ज्यादा जरूरी
हर बच्चे के लिए दूध की कटोरी
चाँद उतारे जिसमें
माँ की लोरी 


अपने बच्चों को
बतायेंगे वर्णमाला
सिखायेंगे अपनी भाषा
तो अ आ इ ई के बाद
उ से शब्द कौन सा  


उन्नत से अधिक 
उदार चाहिए हमें दुनिया
जो थाम सके एक साथ
सबका हाथ 


जिसमें पेट पकड़े हुए न हो कोई 
न ही असहाय अनाथ...

                          🏵                  ~ प्रेम रंजन अनिमेष