बुधवार, 31 जुलाई 2013

फिर 'घन बरसे...'





      जैसा पिछली बार वादा किया था फिर इस सावन में पेश है लंबी ग़ज़ल 'घन बरसे...' का दूसरा भाग । पहले भाग की तरह इसमें भी सौ से अधिक शेर हैं । जिंदगी में हर चीज़ के दो पहलू होते हैं । प्रकृति का एक रूप हमने उत्‍तराखंड में देखा । लेकिन क्‍या उसके पीछे प्रकृति का प्रकोप था या मनुष्‍य की 'मनुष्‍यता' या कि उसका अभाव ? जो उसके शिकार हुए उन सबके लिए शोक व्‍यक्‍त करते हुए यह रचना प्रस्‍तुत है
              - प्रेम रंजन अनिमेष
 



फिर
'घन बरसे...'
(2)


घन  बरसे  मन बरसे
जीवन   जीवन  परसे

आये  हो   तुम  राही
किस अनजान नगर से

खोलो  दर  तुम अपने
मैं भी  निकलूँ  घर से

सौ बसंत  सौ  पतझड़
बारिश  बिसरा  डर से

आँखों तक ही  रखना
जाय   पानी सर से

बाँध  रहा  है  बाबुल
कैसे    सौदागर   से

ऊपर    ऊपर   सूखे
तर लेकिन  भीतर से

जहाँ   भीगना  सीखें
ऐसे   खोल   मदरसे

हरसे  हैं   तो  कहते
एक खुशी को  हर से

गीत  कोई  रच  देना
होंठों  की  थर थर से

लब से लब मिल़ते यूँ 
दर मिलता ज्यों दर से

अधर नया  कुछ रचते
जुड़कर किसी अधर से

झाँक रहा  कल  देखो
बहते  हुए  निकर  से

पढ़ सकते हो सब कुछ
बस  ढाई  आखर  से

माँगे प्यार की शबनम
आँखें  नयी  सहर  से

लड़की है  बच कर रह
अच्छी  बुरी  नज़र से

पाँव  बँधे हैं   लेकिन
झूमो किसी  शजर से

अब तक  छूट पाये
तन के  इस पिंजर से

ढँक दो अब दिखेंगे
पाँव या सर  चादर से

पलकों  में   छुप जातें
सपने   किसके  डर से

भीतर  कितने   फीके
जगमग  जो  ऊपर से

बैठ  मैं  तेरी  खातिर
लाऊँ  कुछ  अंदर  से

फन ने कहाँ दिया कुछ
जिंदा हैं हम  हुनर  से

बड़ा  हो  रहा  बचपन
मीठे   नये  ज़हर  से

इश्क़  आँधियों  को है
मुफलिस के  छप्पर से

याद तुझे  कर  गुजरूँ
तेरी    राहगुजर   से

सूखी   दिल की  खेती
बादल  गये  किधर से

तर  है   भीतर  बाहर
पर  क़तरे  को  तरसे

हाँ या ना  कुछ  बोलो
वो  आगे   तो  परसे

बना है  सोने का  बुत
किस  पारस  के  परसे

जीवन  मौत   गुँथे  हैं
इक  अनजाने  डर से

लड़ना  हरदम  लाजिाम
अपने  से   बेहतर  से

हारो  कभी  कभी  पर
मत  इतने   अंतर  से

लाता  हूँ   फिर  ऊपर
पानी  को   पत्थर  से

छोटे     अंजुल    मेरे
दे अपने  ही   कर  से

फ़िक्र भला क्या करना
शाम की  भोर पहर से

और   बिगड़  जाते  हैं
बच्चे   ज़ोर ज़बर  से

खतरा  नहीं  हमें  अब
किसी भी  हमलावर से

सच  होने  को  चहिए
सपने  कुछ  सुंदर  से

कितने  ख्‍़वाब जुड़े  हैं
इक बेख्वाब  नगर  से

हाल   पूछना  क्या  है
खैर  है  सब  ऊपर से

आँखें   हैं    चुँधियाई
इतनी  जगर  मगर से

सीधी  राह  भी उलझी
दिल की अगर मगर से

जाते  लौट   उधर  ही
आये थे कल जिधर से

सोऊँ    अपने  आँगन
जागूँ    तेरे   घर  से

कौन  लिखा करता  है
मेरे    हस्ताक्षर    से

वर मिलना अब मुश्किल
तप से या फिर  वर से

कुछ   मजबूरी  में   ही
मिलते  गाँव  शहर  से

सहमा  सा   है  बच्चा
सबसे  बड़ी   ख्बर  से

धूप   बसे    केशों  में
अब तो  नयी  उमर से

दस्तक  सुनते    बोलो
पीर    लौटे  दर  से

पता नहीं   तो   पूछो
रहजन  या  रहबर  से

हटा   ज़रा  सा  परदा
चेहरे   गये   उतर  से

घन  भी  महाजनों  से
गुज़रे  नगर  सदर  से

कैसी     वीरानी    है
पूछेंगे  किस  बशर  से

ऐसे    बहुत    मिलेंगे
लगते  जो   शायर  से

और  बढ़  गयी  चाहत
तेरी   नकर  नुकर से

पूरी   हुई      देखो
एक  नमाज़  फज़र से

राजा   की    पोशाकें
ख्ररगोशों  के  फर  से

हवा  एक  से   करता
उड़ता  है  इक  पर से

एक तान  सुन  ग्वालन
दौड़ी  पड़ी  द्वापर  से

घबरा  उठा  ईश्‍वर  भी
इतने     आडंबर   से

क्या  फ़कीर का  नाता
तेरे    लाल  गुहर  से

भीगा  नहीं   कोई  भी
मैं  बरसा  तुम   बरसे

लाज  रहे   आँखों  में
सरके   आँचल  सर से

नज़र  चुराती  हैं   अब
आँखें   हर   मंजर  से

समझा    करो   इशारे
बदले   इस   तेवर  से

भर  जाता  पर  कहता
क्या  बस इतने भर से

गाँव    देखते     पूछे
आये  इधर  किधर  से

आया  वो   अब  पोंछो
पानी    दरपन  पर  से

कतरा  कर  जाते  अब
सपने   नयी  नज़र  से

आये  हैं    छुट्टी   पर
बच्चे  कुछ  अफ़सर  से

सजा   रहे  घरनी  को
पढ़  माँ  के  ज़ेवर  से

पेड़ों  से   तो   अनबन
सुन लो हाल  समर  से

आये    पाहुन    लाओ
सेंक पका  कुछ  खर से

बीता    सारा   मौसम
उठे  नहप   बिस्तर  से

होगी    कभी   इनायत
बैठे   हुए    सबर   से

प्यारा   था   पहले  से
प्यार मिला  उस पर से

रोशन     सारी    राहें
उसकी  एक   नज़र  से

गज़लें    हँसकर   बोलें
होता   क्या  शायर  से

दिल  में  तो  हैं  सबके
पर   हैं   देश-बदर  से

कुछ   हो  उठने   देना
यक़ीं    अपने  पर से

करती   उम्र   ठिठोली
जर्जर  झुकी   कमर से

कहाँ    जायेंगे   बच्चे
हैं  जो   तेज़ उमर  से

सपनों  में  भी    जाये
कह कर  सारे  घर  से

लड़  के   लेते   लड़के
लड़की चुप  किस डर से

आँखें   फेर  के  रखता
देता    दोनों   कर  से

जाये    कोई   खाली
इस  निर्धन के   घर से

जहाँ    बने    बिगड़ेगा
जैसे   इसी  फिकर  से

अगले  का   है  बुलावा
निकले हैं  इक  क़हर से

बढ़ते   हैं   जो   करते
हर  शुरुआत  सिफ़र से

साथ   चलेंगे    वे  ही
पल  जो  गये  ठहर से

आजिज    हूँ   तनहाई
तेरी   बकर  बकर  से

झुककर क्यों यह बचपन
पाँव   सभी   के  परसे

आँख  लिखी  ये  पाती
आखर   गये  पसर  से

ये   सतरंग    झरे  हैं
किन  परियें के  पर से

जाग   रहा  है   जंगल
हवा की  सर सर सर से

कौन   सहम  जाता  है
पत्तों  की  मर मर  से

बड़ी  झिझक  से  लेता
क़तरा  इक  सागर  से

दिल  में  रहते  बेदिल
और  घर में   बेघर से

तर  करना है  जिसको
वो भी तो  कुछ  तरसे

बात लगे  दिल में  या
जाये    सर  ऊपर  से

बहुत  किया जा सकता
बस  थोड़े   थाकर  से

उसने  खुदा  रचा  फिर
फटकन से   चोकर  से

लौट  के    जाना है
मिलकर  हरेक लहर से

रखिये    छाती   चौड़ी
लड़िये   बड़े  जिगर से

उम्र  उमस की  जिसमें
दुपहर  कई   पहर  से

कब     फूटेगी   बोलो
कोई  लहर  शिखर  से

एक  परस  का  पारस
कैसे   गये   निखर से

टापुर  टुपुर  करे  दिन
छत  के  टीन  टपर से

घबरायी   सी    लड़की
दिल की  खुसर पुसर से

शाम के  माथे पर  फिर
कुम कुम  गये बिसर से

दिल  के  भेद कहना
आते   जाते    हर  से

देख  जुड़  गयीं   कैसे
सतरें   तेरी  सतर  से

प्यार  खुदा   शायर का
क्या  रिश्ता   पैकर  से

मुँह  खुलते  ये  खुशियाँ
उड़  जातीं  हैं   फर  से

तानों   में      जाता
क्या क्या  कुछ  नैहर से

बात   हो गयी  मधु की
कह दो  अब  मधुकर से

सोये   में   फिर  गुजरा
कुछ  इन  पैरों  पर  से

ख़ून  लिया  और वो भी
जंग   लगे   नश्तर  से

निकलेंगी   कल  नदियाँ
शायद   किसी  गटर से

छोड़ा    उसको    छूटे
कब  जमीन से  जर से

काम  नाम  सब  पाया
बच्चे   गये   हहर  से

ज़ख्‍म  हरे  हैं  अब भी
पात  गये  हैं   झर से

भेज   प्यार  की  पाती
होंठों  की  ही  मुहर से

गिरे   तेरी   नजरों से
जग में  गये  बिखर से

जाने   कब  मुट्ठी   से
पल कुछ  गये ससर से

जोड़ रिश्ता  दिल का
मुँहबोले    शायर   से

देख  रहा   ख़त  कोई
फिर  आखर  आखर से

ठीक  कहाँ  अब  कोई
हैं बस कुछ  बेहतर  से

भर ले   बरतन   सारे
बाहर  आकर  घर  से

ले  जा   अपनी  चिट्ठी
उड़ते  इस   छप्पर  से

झाँक   यहाँ  भी  लेना
गुजरो   अगर  इधर से

कू-ए यार   का  आलम
पूछो   कभी   ज़फ़र से

खँडहर  से  इस  घर में
तन  हैं  कुछ  जर्जर से

घर में  ठीक तो  है सब
पूछ   रहा  चाकर   से

सर  हर   घूम  रहा  है
दुनिया  के  चक्कर  से

गया  कोई  अब  उठता
साया  उसका   सर  से

बात  बड़ी  कह  जाना
छोटी  सी  इस बहर से

लो 'अनिमेष`  चला फिर
आकर  अभी   सफ़र से