बुधवार, 14 दिसंबर 2016

यह साल....यह सौगात....




यह साल....यह सौगात....   

    यह साल आया नये कविता संग्रह 'अँधेरे में अंताक्षरी' के प्रकाशन की सौगात लेकर, जिसका फरवरी के विश्व पुस्तक मेले में लोकार्पण हुआ । यह मेरा चौथा प्रकाशित कविता संग्रह है, जो प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली से आया है ( संपर्क : 4268 बी /3, अंसारी रोड, नयी दिल्ली 110002, ईमेल prakashansansthan@gmail.com , harish311251@gmail.com  , मो॰  09811251744 )

    अब साल के जाते जाते एक और उपहार की तरह अगला कविता संग्रह 'बिना मुँडेर की छत' भी तैयार है (राजकमल प्रकाशन, 1 बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली 110002, ईमेल info@rajkamalprakashan.com  ), जिसे आप जनवरी में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में देख सकते हैं ।

    मेरा विनम्र आग्रह है कि आप इन कविता संग्रहों को अवश्य पढ़ें, ताकि यह भ्रांति दूर हो कि साहित्य, खास कर कविता पुस्तकों के पाठक नहीं हैं, जिससे उनके संस्कारण कुछ सौ प्रतियों तक सीमित रह जाते हैं ।

    इस पाती के साथ इस बार कविता संग्रह 'अँधेरे में अंताक्षरी' से दो कवितायें आपके लिये ~ 'आमंत्रण' और  'स्वीकार' ! किसी ने मुझे बताया कि कविता 'आमंत्रण' बरसों से, जब यह पहले पहल जनसत्ता के साहित्य पृष्ठ पर प्रकाशित हुई थी, उनके सहकर्मी की मेज पर लगी हुई है । इस स्नेह और अपनेपन के लिये आभार ! मुझे विश्वास है कि इन कविता संग्रहों को भी उसी तरह आपका स्नेह और प्रोत्साहन मिलेगा, जिस तरह मेरे पहले संग्रहों  'मिट्टी के फल',  'कोई नया समाचार' और 'संगत' को आपने हाथों हाथ लिया ( पहले दो तो कुछ ही समय में आउट ऑफ प्रिंट हो गए ) । यह आत्मीयता व शुभेक्षा इसी तरह बनाये रखेंगे, जिससे नये वर्ष में इन पहले संग्रहों के नए संस्कारण लाने की भी प्रेरणा प्रकाशन गृहों को मिले  ।

नूतन वर्ष की मंगलकामनाओं के साथ
                             सादर आपका   
                          
                           प्रेम रंजन अनिमेष



आमंत्रण
                                
आना
अगर हो सके
न हो सके
तब भी आना

आना
अगर किसी से मिलने आओ
किसी से न मिल पाओ
तो चले आना

आना
अच्छे मौसम में
अच्छे मौसम के लिए
आना

आना
जब रास्ते खुले हों
कोई रास्ता न हो
तब भी आना

आना
अगर याद रहे
भूल जाओ
तो भूले भटके

आना
दुनिया देख कर
दुनिया देखे
इस तरह आना

आना
जो हो कोई बात
कुछ भी न हो साथ
तो यों ही
खाली हाथ

क्या है मेरे कहने में
मगर आना
जो रहा अनकहा
उसी के लिये

आना
मैं राह देखता
यहीं रहूँगा

बिन बुलाये
बगैर खबर किये
आना
एक दिन

उस समय
जब मैं
नहीं रहूँगा...





स्वीकार
                                 
आऊँगा
जरूर

धूप की तरह सीधे न आ सका
तो बौछार की तरह मुड़ कर

नहीं तो हवा की तरह
ढूँढ़ता भटकता
किसी रास्ते
गंध की मानिंद किसी सूरत

देर हो गई तो
बंद आँखों में
सपने सा
आऊँगा
जरूर

भोर हो गई तो
किरणों की नोक पर
ओस बन कर...








मंगलवार, 29 नवंबर 2016

कविता संग्रह 'कोई नया समाचार' से एक कविता 'मदद'

'अखराई' में इस बार अपने दूसरे कविता संग्रह 'कोई नया समाचार' की एक कविता 'मदद' प्रस्तुत कर रहा हूँ । भारतीय ज्ञानपीठ से वर्ष 2004 में प्रकाशित इस संग्रह की कवितायें बच्चों के बहाने जीवन जगत के विस्तृत फलक के विविध आयामों को स्पर्श करती हैं । संग्रह को पाठकों ने बहुत पसंद किया और प्रकाशन के कुछ ही वर्षों के भीतर यह 'आउट ऑफ प्रिंट' हो गया । तदुपरान्त कई लोगों ने आग्रह किया इसके लिए और ज्ञानपीठ तक भी अपना निवेदन पहुँचाया । पुनर्मुद्रण के लिए मैंने भी बारहा गुजारिश की है और मंडलोई जी इस बाबत आश्वस्त भी कर चुके हैं । उम्मीद रखें कि किताब का नया संस्करण जल्दी ही उपलब्ध होगा । फिलहाल इस कविता का आस्वाद लें जो पाठकों को अत्यंत प्रिय है

                     ~  प्रेम रंजन अनिमेष


मदद

µ

पाँच साल की उम्र
पीठ पर बस्ता
बस्ते की उम्र उससे अधिक


टुक टुक चला जा रहा था बच्चा
सड़क को जलतरंग सा बजाता
कि खुल गया उसके जूते का फीता


माँ ने कहा था राह में
मदद लेना किसी अच्छे आदमी से
वह सीधा गया चौराहे पर
जहाँ लिखा था प्रशासन आपकी सेवा में


सिपाही ने बहुत दिनों से
बाँधा नहीं था किसी बच्चे के जूते का फीता
सो देर लगी उसे


ठिठका रहा तब तक
चारों तरफ का यातायात


किसी बच्चे कि तरह
चाहता हूँ मैं
ताकत झुके तो इस तरह
रास्ता रुके तो इस तरह !





शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

दीपदान


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दीपावली की शुभकामनाओं के साथ प्रस्तुत कर रहा हूँ अपनी यह कविता दीपदान

                                 ~ प्रेम रंजन अनिमेष
दीपदान

दीवाली आने पर
हम बचपन में माँ का हाथ थामे
कुम्हारिन के घर जाते
दिये ले आते

जितने ले आते वहाँ से
मिट्टी दुआर पर गूँध उछाह में
उतने बनाते सुखाते पकाते

दीवाली की सांझ पूजा कर
नेह भर भर
थाल में सजा कर
माँ देती दिये

हर देहरी
हर ताख
हर खिड़की पर
रख आने के लिए

घर की हर कोठरी हर हिस्से
भीतर हर कोने अँतरे में
सिल पर जाँते पर ओखल पर

बाहर दुआर पर
तुलसी चौरे
इनार पर
पीपल के पास
बथान पर
खलिहान पर
और दूर मंदिर मजार
और शाला तक
हर जगह याद से...

अब हम बड़े हो गये
दुनिया बहुत आगे बढ़ गयी पहले से

इतनी
कि दिये नहीं रहे न ही नेह
सब सिमट गए अपने अपने घरों में

बाहर बाजार कर आते
केवल अपना द्वार सजाते... 

शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

जीवितमातृका

आज जीवितपुत्रि‍का’  या जीतियाहै जिसमें माँयें अपने बच्चों के लिए उपवास रखती हैं । माँ के इस व्रत का फल हमें तत्काल मिलता उसके पकाये रोटी के आकार के मोटे मोटे मीठे मीठे ओंठगनों के रूप में जिनका पूरे बरस भर हमें इंतजार रहता । बाद में बेटियों बहुओं के मनुहार पर उनके लिए भी ओंठगन बनाने लगी माँ । सहतींं सदा स्त्रि‍याँ हैं । किसी पुरुष को अपनी माँ बेटी बहन या घरनी के लिए व्रत उपवास करते नहीं देखा । उम्र के अस्सी साल तय करने के बाद भी और हमारे लाख बरजने के बावजूद बिना पानी पिये अखंड निर्जला यह व्रत करती रही वह । आज माँ नहीं । लेकिन उसका जीतियाहै । और उसके ओंठगन का स्वाद !  उसे ही याद करते हुए अभी अभी लिखी यह कविता...

                                         ~ प्रेम रंजन अनिमेष  

जीवितमातृका
                                         



घरनी पका रही
आटे के
रोट सरीखे
पकवान मोटे
मीठे मीठे
ओंठगन जिन्हें कहते


आज उस महापर्व का दिन है
माँ जिसे कहती जीतिया


माँ नहीं है
पर लगता यहीं है


बहू को बता रही
सिखला रही
ओंठगन कैसे बनाते
बना कर चूल्हे पर ओंठगाते


माँ जैसे बता रही
वह बना रही
हर बच्चे के लिए
ओंठगन एक एक
मेरे लिए भी एक
माँ की ओर से


आज है व्रत जीवितपुत्रिका
जिसे एक नया नाम
मैंने दिया


जीवितमातृका...!


बुधवार, 17 अगस्त 2016

अबके सावन...





बड़ी दीदी के जाने के बाद यह दूसरा रक्षाबंधन है । उसे याद करते हुए यह छोटी सी कविता...

                       ~ प्रेम रंजन अनिमेष



अबके सावन...

 



क्या कहीं 
कोई आँख नम है ?


अबकी राखी में
मेरी कलाई पर 


एक धागा कम है...



गुरुवार, 28 जुलाई 2016

मातृपक्ष


    29 जुलाई...! गये बरस इसी दिन माँ विदा हो गयी । अंजुल भर अक्षर पुष्पों के साथ उसे स्मरण और नमन करते हुए इस बार यह कविता मातृपक्षअपने आने वाले कविता संग्रह माँ के साथसे...

                                         ~ प्रेम रंजन अनिमेष  

मातृपक्ष

                                         


शुक्ल पक्ष
कभी कृष्ण पक्ष

कितने पक्ष जीवन के

माँ तुम्हारा
कोई पक्ष नहीं ?


पिता का या हमारा
जीवन ही सब कुछ रहा तुम्हारा

पिता के जाने के बाद भी

पिता का तो
पितृपक्ष

माँ तुम्हारा कोई पक्ष नहीं ?


वह पक्ष भी जिसे पाख कहती थी तुम
या कि वह पाख जिसे पंख बोलते हम

बिना उड़ानों का आसमान
यह कैसा जीवन
जिसमें अपने लिए
नहीं कोई अरमान


धरती रही
करती रही
भरती रही

पितरों के लिए जीती कहीं
पुत्रों के लिए

इस दुनिया में
इतने पक्ष प्रतिपक्ष

माँ तुम केवल आँचल
माँ तुम केवल झरता वक्ष
नहीं कोई तुम्हारा पक्ष...?








मंगलवार, 28 जून 2016

सुबह होने को है



अखराई’ पर इस बार अपनी यह कविता सुबह होने को है’ प्रस्तुत कर रहा 


                   ~ प्रेम रंजन अनिमेष


सुबह होने को है




घंटियाँ बज रहीं बैलों के गले की
हाँ ना या बस उबासी में सिर हिलाते
चूड़ियाँ खनक रहीं खिड़कियाँ खोलते हाथों की


गूँज रहा कुएँ में डोल का उतरना
चिड़ियों की चहचह कूज रही आकाश के ओर मिलाती
किलक रही अंतरतल पर पड़ती दूध की धार सीधी


उठती कोई हाँक
छँटते कुहरे के पार
उजागर करती संसार


सुबह होने को है
और पहली रोशनी बनकर
दुनिया के दर पर
दस्तक दे रहीं हैं
उसकी आहटें...