मंगलवार, 31 मई 2022

हर घर...

 

    यादों के ख़जाने से अपनी बरसों पुरानी एक ग़ज़ल, जो दिसम्बर 1988 में  'आजकल' में छपी थी जब मैं स्नातक का विद्यार्थी हुआ करता था, कुछ और अशआर के साथ साझा कर रहा हूँ  

    कविताओं, कहानियों, उपन्यासों, संस्मरणों, आलोचनात्मक आलेखों के संग्रहों की अनेकानेक पांडुलिपियों  तरह ग़ज़लों के भी पाँच छह दीवान तो तैयार पड़े हैं कबसे ।  ये प्रकाशित कब हो पायेंगे भगवान जानें या प्रकाशक ! वैसे भी इन दिनों प्रकाशक  किसी भगवान से कम नहीं, जो किसी किसी को ही मिलता है और किसी किसी पर ही मेहरबान होता है ! पहले यह दर्जा पाठक और आलोचक को प्राप्त हुआ करता था ।  किसी खेमे में रहा नहीं कभी और सिद्धांततः नजराने चढ़ावे देकर प्रभु को प्रसन्न करने से परहेज है तो इसका खामियाजा तो उठाना पड़ेगा ! अपनी खुद्दारी ने इसके लिए भी मन ही मन अपने को तैयार रखा है शुरु से । खैर, प्रभुता किसी की हो, सच्चा सर्जक तो सदा प्रतिसत्ता में ही रहता आया है ।    

    साफगोई की तरह ग़ज़लगोई का गुनाह भी बचपन से ही करता रहा हूँ। यह एक तरह से मेरा मनबहलावा भी है। छंदमुक्त कविता के मुक्ताकाश में विहार करते करते कभी कभी स्वर-लय-संगीत नैसर्गिक रूप अंदर जाग उठते हैं । जैसे मन लगाने के लिए कोई पतंग उड़ाता है, मैं कभी कभार छंद उड़ाता हूँ। यह समर्पित सृजन के बीच राहत का मेरा अपना तरीका है।  वैसे भी, बतौर साहित्यकार किसी भी तरह कीअस्पृश्यता का हामी या हिमायती नहीं हुआ जा सकता । कम से कम मैं तो इसका कायल नहीं ।   

    बहरहाल, बातें बहुत हुईं   अब रचना   का आनंद उठाया जाये 'अखराई' के इस भाव पटल पर ! किसी भाग्यविधाता की मध्यस्थता के बिना साहित्यभक्तों तक रचनाओं को पहुँचाने का एक जरिया यह भी है   

    तो साझा कर रहा अपनी यह ग़ज़ल हर घर... ! क्या उम्मीद कर सक्ते हैं कि हर घर तक जायेगी और सबको भायेगी…?

                               ~ प्रेम रंजन अनिमेष

 

                        हर घर...

 

              µ               

 

हर घर  अपना  घर  लगता है
इस  बस्ती  से  डर  लगता  है
 
भूले  भटके    हँस   देता   जो
कोई     जादूगर    लगता    है
 
होती  है  इक उम्र  कि जिसमें
साया   भी   सुंदर   लगता   है
 
सच में  प्यार  मिले तो  कर ले
दिल  इक  ले देकर  लगता है
 
जीता जगता  ख़्वाब  था  कोई
अब    दीवारो  दर   लगता  है
 
पूछती है तितली क्या सचमुच
सपनों  को  भी  पर  लगता है
 
विरहन  सावन सा  ये  जीवन
दुख   प्यारा  देवर   लगता  है
 
है  कितना  अपना  हर  लम्हा
खो  पाना   दूभर   लगता   है
 
नीची  छतें  हैं  इन  रिश्तों  की
आते   जाते    सर   लगता   है
 
अकसर  होता  हद  में  अपनी
ख़ुद  से जो  बाहर   लगता  है
 
हाथ   की   दूरी   पर   हैं   तारे
रात  कभी  जग कर  लगता है
 
मन  की  चींटी  देख  ललकती
उसको जहाँ  शक्कर  लगता है
 
तेरी अगन में  दहके  हुओं  को
सूरज   एक   शरर   लगता  है
 
मुझको  पहन कर  इतराये  वो
प्यार  को  भी  पैकर  लगता है
 
यार   को   प्यार  बना  लेने  में
बस  आधा   अक्षर   लगता  है
 
छूते   फिर   से   धड़क  उठेगा
देखूँ    जो   पत्थर   लगता   है
 
हूँ   इस  पर  तो   साथ  तुम्हारे
फ़ासला  भी  बिस्तर  लगता है
 
पानी    खोजता   है   ये  चेहरा
तर  होकर  बेहतर   लगता  है
 
अच्छा   लगता   है   जब   कोई
अपने   से   बढ़ कर   लगता  है
 
दर्द    दिखाता    रस्ता   सबको
रहबर     पैगम्बर     लगता    है
 
जिसका न कुछ किरदार वही अब
सबसे      क़द्दावर    लगता   है
 
कैसे   रहे   इनसान   यहाँ   पर
दहर   ख़ुदा  का  घर  लगता  है
 
उसको   ख़ुदा   मानें   तो  कैसे
जो  ख़ुद   से  बाहर  लगता   है
 
किससे आस और आसरा किसका
दर   से   ख़ाली   दर  लगता  है
 
जैसे    अकेला    बच्चा    कोई
दिल ख़ुद से  अकसर लगता है
 
मान    मानी   भीड़  में  कोई
हाथ  से  हाथ  अगर  लगता है
 
ठीकरे   जैसा   ये   जग   सारा
अपनी   ठोकर  पर   लगता  है
 
होता दुखी दुख देख के सबका
दीवाना    शायर     लगता    है
 
लहजा अलग है इन ग़ज़लों का
सबसे   जुदा   तेवर   लगता  है
 
शहर के सहरा में कौन 'अनिमेष'
जो
  भीतर  तक  तर  लगता  है

                                                                                                                     प्रेम रंजन अनिमेष