रविवार, 16 सितंबर 2012

हिन्दी है पहचान हमारी






 

हिन्दी के लिए कभी ये गीत लिखे थे ।  आज इन्‍हें प्रस्‍तुत कर रहा हूँ ।  जान बूझ कर हिन्दी दिवस के बाद अपने देश में कोई एक दिन क्‍यों हो हिंदी के लिए...!

                                                           * प्रेम रंजन अनिमेष


हिन्दी
    
                                           

हिन्दी  है  आसान  हमारी
हिन्दी  है  पहचान  हमारी


ममता की  मिसरी  में  घोली
यह  तो अपनी  माँ  की बोली

इसमें लय ` तान हमारी


माटी  की   खुशबू  है  इसमें
घर  आँगन  का  जादू  इसमें

है  भावों की  खान  हमारी


जैसा  लिखना   वैसा  पढ़ना
सहज समझना  सुनना कहना

आन  हमारी  बान  हमारी


इतने स्वर  ` इतने व्यंजन
मनचाहे  पद   जाते  हैं  बन

हर  भाषा  मेहमान  हमारी


क्यों करें हम  इसका आदर
अमरित  इसके  अक्षर  अक्षर  

बसती  इसमें  जान हमारी


गंगा  जमुनी  मिली  बहुलता
सरल तरलता  विरल विपुलता

माने  सकल जहान  हमारी


जितनी  इसमें   है  कोमलता
उतनी  दृढ़ता   और  सबलता

सीधी  साफ  जुबान  हमारी


अगर  जड़ों  से  जुड़ी  रहेगी
और   बढ़ेगी   और   चढ़ेगी

सोच  तभी  परवान हमारी


शक्ति शांति की मुक्ति धर्म की
उक्ति मर्म की  युक्ति कर्म की

संस्कृति यही महान हमारी


जैसे   राष्ट्रगीत   `  झंडा
वैसी  ही  भाषा  की  गरिमा

स्वाधीनता   समान  हमारी


बात  तभी  अपनी  है  बनती
अपनी  भाषा में  जब  छनती

अंतर  की  मुसकान हमारी




हिन्दी  दिवस
                                              


हो नहीं  सारा  बरस  क्यो
आज भी हिन्दी दिवस क्यों


दिन या  पखवारे मनाना
जोर  से   नारे  लगाना

हम करें इतना ही बस क्यों


रिश्‍ते नाते प्यार के  दिन
गिनतीं  तहजीबें अकिंचन

हम भी हों वैसे विवश क्यों


बात में  क्यों  हो बनावट
भाव में क्यों कर मिलावट

भूलते  अपना  परस  क्यों


हों  जहाँ    चेहरे  मुखौटे
दिल  हुआ  करते हैं छोटे

हम बनें  उनके सदृश क्यों


दे  दिया  बनवास  कैसा
राम का भी  था जैसा

यूँ बँधें  औरों के वश क्यों


दूध  माँ  का  जैसे  दौड़े
भाव  ले   हममें  हिलोरें

खोयें यह अमृत कलश क्यों


सभ्यता का  सूर्य  हमसे
हैं बढ़े हम  अपने दम से

छोड़ दें अब यह सुयश क्यों


खा  रहे हैं  आज  गोते
खोजते   संकीर्ण   सोते

त्याग कर  गंगा सरस क्यों


भोर कब की  हो चुकी है
दासता  अब  सोच की है

बेड़ियाँ  ये  हमनफस  क्यों


एक  परभाषा  में  पलना
जिस तरह से माँ बदलना

काटते  खुद अपनी नस क्यों


गर नहीं  मन में  समर्पण
जन्म भर का जो नहीं प्रण

एक  दिन  खाना तरस क्यों