रंगोत्सव की अनेक शुभकामनाओं के साथ 'अखराई' में इस
बार साझा कर रहा अपनी यह
कविता ' रंग रंग
रंग ’
~ प्रेम रंजन अनिमेष
रंग रंग रंग
µ
बचपन के खेलों में
एक यह भी था
रंग रंग रंग
तुझे कौन है पसंद...
कोई पूछता
और दूसरा
जो दरअसल अपना ही होता
लेता एक रंग का नाम
फिर सब जो खेल में शामिल
उन्हें अपने आसपास
छू लेना होता वह रंग कहीं
इसके पहले
कि उस रंग का नाम लेने वाला
छू ले
वह बचपन कबका बीत गया
और वे खेल भी
रंग कोई रह नहीं गया सच्चा उस तरह
और अब छूने को पीछे
कोई संगी साथी नहीं
समय है पड़ा
जो कहाँ कभी किसी का
उसका छू लेना
उसकी जद में आना
यानी इस खेल से जाना
जीवन के इस खेल से
बचाव यही है
इसके पहले कि वह छुए
कोई रंग कहीं मिल जाये
मुश्किल ये
कि अब रंग कोई मिलता भी कहीं
तो छूते
बुरा मान जाता...
~ प्रेम रंजन अनिमेष