सोमवार, 13 अप्रैल 2020

पृथ्वी 2020



वर्तमान परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में अपनी एक और कविता
 'पृथ्वी 2020' साझा कर रहा आप के साथ
'अखराईके इस सृजन मंच  पर ।
आप सबके लिए मंगलकामनाओं शुभकामनाओं 
और सम्पूर्ण सृष्टि के लिए शुभेक्षा सहित  

 
 
                                प्रेम रंजन अनिमेष

 
 
 
पृथ्वी 2020
 
µ

मंदिर बंद 
बंद मस्जिद 
गिरिजाघर और गुरुद्वार बंद 


धर्म बंद 
सब काम बंद 
है अर्थजगत व्यापार बंद 


मॉल 
सिनेमा हॉल 
बंद हर हाट बंद बाजार बंद 


मेले ठेले 
खेल तमाशे 
जश्न तीज त्योहार बंद 


जलसे जुलूस 
धरने मजलिस 
सभागार दरबार बंद 


बाग बगीचे 
सैर सपाटे 
मेल मिताई प्यार बंद 


ब्याह सगाई 
छठी बधाई 
उत्सव लोकाचार बंद


जंग सियासत 
दहशत नफरत 
सारे कारोबार बंद 


राह नहीं है रुकी 
सड़क भी खुली 
मगर पहियों की है रफ्तार बंद 
चलने वाले बेजार बंद 


इस पार बंद 
उस पार बंद 
ज्यों हर इक खुला किवाड़ बंद 
ज्यों हर घर हर परिवार बंद 
जैसे हो पारावार बंद 


दलों मोर्चों मंचों को यूँ दिखा अँगूठा 
हँसता ढीठ अदीठ जीव नन्हा अदना सा 
बिना किसी आह्वान घोषणा 
कर सारा संसार बंद 


सब के लिए नहीं 
मनुष्य की खातिर केवल 
क्योंकि वही 
सब नहीं 
न कुछ भी 
इस अनंत ब्रह्मांड में कहीं 


अपने ही घेरे में कैसे 
बस बेबस लाचार 
बंद 


क्षमा करें 
जीवन का नवविन्यास हो रहा 
विस्थापित निर्वासित प्रकृति का 
पुनर्वास हो रहा 


अगर असुविधा हो तो इसके लिए 
खेद है 
सृष्टि संतुलन पथ निर्धारण
कार्य
प्रगति पर है...


प्रेम रंजन अनिमेष

रविवार, 12 अप्रैल 2020

अबकी बार...




आशा है आप सब सपरिवार स्वस्थ सानंद सकुशल होंगे  'अखराईपर प्रस्तुत मेरी पिछली दोनों कविताओं 'हाथ धोना' और 'आगत अनचिन्हार' को जिस तरह हार्दिक प्यार दिया आप सबने उसके लिए आभार ! इसी कड़ी में इस बार साझा कर रहा अपनी एक और कविता 'अबकी बार' आशा है यह कविता भी आपके ह्रदय को स्पर्श करेगी 

                              प्रेम रंजन अनिमेष            

अबकी बार 

 
µ


अब जब 
अपने घरों से हम निकलेंगे 

तो क्या जहर भरेंगे फिर हवा में 
उसी तरह आदत से लाचार 
नदियों से करेंगे वैसे ही दुर्व्यवहार 
पेड़ों पर पहले ही जैसा अत्याचार ?


अब जब 
हम लौटेंगे 
वापस दुनिया में 
जिसे अपना कहते मानते जानते 
तो क्या मिट्टी को उसी तरह रौंदेंगे कुचलेंगे 
आसमान को छेदेंगे छलेंगे 
आग में भर बारूद  औरों पर उगलेंगे ?
 
अबकी बार 
इतने अरसे इतने अंतराल पर 
इतनी हसरत ललक छोह से आतुर 
निकलेंगे खोल कर द्वार 
तो क्या बंद ही रह जायेगा अंदर बोध का किवाड़ 
फिर हमसे चलेगा आगे साये की तरह हमारा अहंकार ?

क्या उसी प्रकार 
होंगे खुश सफल संतुष्ट अपार 
छीन झपट कर लूट पटार 
औरों का हक मार
किन्हीं के खून पसीने की वेदी पर 
धर अपना उन्नति आधार  ? 


लगा तो यही
देखा पढ़ा सुना भी 
कि अबकी बार 
आर या पार 

सचमुच प्रश्न मरण जीवन का 
सारी मानवता की खातिर 
 
कितने दिन बाद 
इतने दिन
घर पर अपने  
रहे ठिकाने में 
 
घर 
जो कारागार नहीं 
बल्कि ठौर 
जहाँ हम आप 
और हमारे अपने बसते
जो अधिवास हमारी आत्मा का

इतने समय
कपाटों के पीछे हम रहे 
यह देखने के लिए 
कि हर तरफ हर ओर 
हमारे न होने पर 
कैसे और कैसी 
होगी रहेगी यह दुनिया 

और पाया 
उसे नये सिरे से जागते 
नये अंकुर फेंकते 

और जाना 
कि बगैर हमारी छेड़छाड़ हमारे हस्तक्षेप के 
जीवन अधिक जीवंत 
सृष्टि अधिक सम्पन्न 
भरती अँगड़ाई अनंत पर्यंत 
रमती भरमती नवभावों नये विचारों सी 
विचरती मुक्त स्वच्छंद 
 
हवाओं में साँस ज्यादा 
आकाश में उजास ज्यादा 
धूप में विश्वास ज्यादा 

पानी में अधिक पावनता तरलता 
धरा पर अधिक हरीतिमा उर्वरता 
 
मानवाधिकारों की बात हम करते रहे 
और हर जीव के जीवन के 
प्रकृति के सृष्टि के 
बाकी सब के 
अधिकार हरते रहे
अनवरत उन पर आघात करते रहे 
 
अपने सिवा किसी की 
परवाह ही नहीं की 
सच में कभी सोचा ही नहीं 
 
अब जब इतने दिनों बाद 
छँटेगा अंधकार 
या कहें कई रातों की रात के पार 
भोर नयी झाँकेगी दूधपीते सी 
प्रकृति जननी का आँचर उघार 
और है आशा अनिवार
कि आयेगी वह सुबह जरूर और जल्दी ही 
 
फिर हम निकलेंगे बाहर 
तो क्या इस सोच इस अहसास के साथ 
कि दुनिया में दखल हमारा कुछ ज्यादा ही 
कि पैर हमने कुछ अधिक ही रखे पसार
और हाथों को फैलाया हुआ इतना 
औरों को अपनाने गले लगाने के लिए नहीं 
सब कुछ छीनने हसोतने हथियाने 
करने को अपने अधीन 
 
क्या यह भूल करेंगे सही 
दोहरायेंगे तो नहीं फिर से गलती वही  ?


अबकी बार 
क्या हम इस आत्मवास से 

करुणतर निकलेंगे 
विनम्रतर निकलेंगे 
मनुष्यतर निकलेंगे 

पहली सुबह देखते निश्छल शिशु आँखों के जैसे...?


प्रेम रंजन अनिमेष

 

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

हाथ धोना




'अखराई' पर आपके साथ अपनी जो कवितायें साझा की हैं उन्हें आपका बहुत प्यार मिलता रहा है । आशा है आप सब सपरिवार स्वस्थ सानंद सकुशल होंगे   इसी कामना के साथ इस मंच पर इस बार प्रस्तुत कर रहा अपनी कविता 'हाथ धोना'  

जिन मित्रों सुहृदों और उनके ज़रिये जितने लोगों तक यह रचना पहुँची है उन्होंने अत्यंत आत्मीयता से पढ़ा और सराहा है इसे बहुत बहुत आभार ! आशा है आपके ह्रदय को स्पर्श करेगी यह कविता  

                             प्रेम रंजन अनिमेष           

 हाथ धोना                            

 
µ


रह रह कर
बार बार
हाथ धो रहा आदमी
आगे से पीछे से
ऊपर नीचे से
दाहिना बायें से बायाँ दायें से
फिर भी लगता
जैसे अभी ठीक से
नहीं धुला

अपने अलगाव के
अकेलेपन में
रो रहा
बार बार
धो रहा
वह हाथ

आगे बढ़ा
किसी से मिलाने के लिए
नहीं
दूर रहो...रहो परे
करने आगाह चेताने के लिए

औरों की बात और
खुद अपने चेहरे को भी
छू नहीं सकते
हाथ से अपने

इतनी ग्लानि
इतना भय
ऐसा संशय

कि अपना हाथ भी अगर
छू जाये अपने दूसरे हाथ से
तो लगता डर
कहीं हो न जाये संक्रमण

अपना भी हो गया
इस तरह दूसरा
इस कदर हो गयी
अस्पृश्य आत्मा
और आत्मीयता

प्रेम परे
अपनापन दूर

काम से
हाथ धो बैठे
कमाई से
जहाँ के थे
हाँ से निर्वासित
उखड़े जड़ से विस्थापित
जहाँ जाना जहाँ पहुँचना
कितनी दूर वहाँ से

पहियों से छिटक कर
मीलों चल कर पैदल
कहीं बीच के
शरणार्थी शिविर में
अटके

दो जून
खाने का
नहीं ठिकाना
पर रह रह कर
दस दस बार
हाथ माँजना भिगाना

यह किसने
क्या किया ऐसा
कि पूरी मानवता
एक साथ
गयी पकड़ी
रंगे हाथ

और अब सब
अलग थलग

हर कोई
जो जहाँ जैसे वहीं
धो रहा
हाथ मल मल कर
फिर भी लगता
मानो मैल नहीं गया
ठीक से धुला कहाँ
जबकि यहाँ से वहाँ
फैलता जा रहा
झाग ही झाग

जन प्रसारण व्यवस्था से
हो रही घोषणा
रह रह कर
बारंबार
कि भली प्रकार
हाथ धोयें
साबुन पानी से
नहीं तो धोना पड़ेगा
जान से हाथ हाँ
हाथ धोना पड़ेगा
जान से...

यह इंसानियत का अजब इम्तिहान है


शुक्र है
कि अब भी
जान है
और जहान है...!

 

प्रेम रंजन अनिमेष