बुधवार, 27 फ़रवरी 2019

इतना ही नहीं




एक एक कर दो जानने मानने  वाले और चले गए  ! पहले अर्चना जी, फिर नामवर जी।   ये ऐसे लोग थे जिनसे भेंट भले बहुत बार नहीं हुई हो पर स्नेह उनका भरपूर मिला।  साल 1990 मेंजब  स्नातक का छात्र था  –  एक साथ मेरी बारह कवितायें  'हंस' में आयीं।  एक तरह से यह पहली प्रमुख रचनात्मक उपस्थिति थी  कविता जगत में मेरी  और उन कविताओं कोजिन्हें पत्रिका में आने पर हर ओर सराहना मिलीइतनी प्रमुखता से प्रकाशित करने वाली अर्चना वर्मा जी ही थीं  जब  2004 में उनसे पहली बार मुलाकात हुई तो उन्होंने बड़े ही स्नेह से इसका जिक्र किया  कविताओं के साथ जो बालसुलभ पत्र  मैंने भेजा था वह भी उन्हें अक्षरशः स्मरण था। यह मेरे लिए सौभाग्य   सुयोग ही था  कि  बच्चों के बहाने जीवन जगत के विस्तृत फलक को स्पर्श करने वाली मेरी उन कविताओं के संग्रह 'कोई नया समाचार' का – जो उस साल भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ था  –  लोकार्पण उन्हीं के हाथों हुआ। कुछ वर्षों बाद  मेरी  कहानी 'लड़की जिसे रोना नहीं आता था' पर भी एक विस्तृत आलेख उन्होंने 'कथादेश' में लिखा।  मुलाकात उनसे वह अकेली ही रही मगर स्नेह   ममत्व  का स्पर्श सदा के लिए साथ रह गया !  फोन  पर जब भी बात होती उनका आशीष और मार्गदर्शन मिलता हरिनारायण जी के जरिये मालूम हुआ कि वे नहीं रहीं तो मन मानने को तैयार नहीं हुआ ! ऐसी निश्छलता के साथ  इतना अगाध स्नेह करने वाले कहाँ मिलेंगे ?  

संयोग से नामवर जी से भी उसी वर्ष भेंट हुई 'भारत भूषण पुरस्कार समारोह में   उसके अलावा उनसे  एक दो बार ही मिलना हुआ होगा पर वही सहज स्नेह उनसे भी प्राप्त होता रहा। मेरे पहले कविता संग्रह 'मिट्टी  के फल' और तीसरे कविता कविता संग्रह 'संगत' पर उनके स्नेहिल और संवेदनासिक्त शब्द अविस्मरणीय हैं   पिछले वर्ष राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित मेरे कविता संग्रह 'बिना मुँडेर की छत' की भी उन्होंने अनुशंसा की थी।  वे इतने बड़े थे, इतना मान आदर था उनका, उन्हें चाहने   उनके संपर्क में रहने वाले इतने थे, फिर भी मेरे जैसे संकोची स्वभाव वाले शिशुकवि  के लिए सिर्फ सृजनशीलता के कारण ऐसा महत्स्नेह उनकी महानता  ही उजागर करता  है।  

इन दोनों की पुण्य स्मृति को नमन करते हुए 'अखराई' में इस बार साझा कर रहा अपनी कविता   ‘इतना ही नहीं...


                                                     प्रेम रंजन अनिमेष                                                                                                                                                                                                       इतना ही नहीं 



कितनी धूप 
कितनी छाँह 


कितनी खुशबू 
कितनी हवा 


कितनी आँच 
कितनी नमी 


कितनी बातें 
कितना मौन 


एक नहीं से 
स्तब्ध हर हाँ 
यहाँ से वहाँ 


बहुतों का 
बहुत कुछ चला जाता 


किसी एक के जाने से 
एक  भर ही 
कम नहीं होती दुनिया... 


                                              प्रेम रंजन अनिमेष