आधुनिक हिंदी कविता के प्रकाशस्तंभ कवि केदारनाथ सिंह के
जाने के बाद उनके शब्दों पंक्तियों और कविताओं की अनुगूँज अब तक घेरे हुए है ।
मेरा सौभाग्य कि उनका सहज स्नेह मुझे मिला । याद है पहली बार 1991 में उनसे मिलने
का सुयोग हुआ था । तब मैं पटना महाविद्यालय का छात्र था और वे रघुवीर सहाय की
स्मृति में आयोजित एक कार्यक्रम के लिए वहाँ आये थे । एक सुह़द ने काव्य पाठ के
लिए मेरा नाम भी लिखा दिया । मैंने अपनी कवितायें ‘छाता’ और ‘झिनझिनी’ सुनायीं । समारोह समाप्त होने के बाद संकोची स्वभाव का मैं घर
लौटने के लिए निकल चला था कि दौड़ते भागते उसी मित्र ने महाविद्यालय के मुख्य
द्वार के पास मुझे पकड़ा और कहा कि केदार जी बुला रहे हैं । लौटकर आया तो उन्होंने
पीठ थपथपायी और खूब सराहा मेरी कविताओं को । यह उनकी विशालहृदयता और सच्ची
काव्यमर्मज्ञता ही थी कि केवल कविता के लिए एक बच्चे को ढूँढ़कर बुलाकर उससे मिले
।
उसके बाद जब भी उनसे भेंट या फोन पर बातचीत हुई उसी अगाध
स्नेह का स्रोत सतत बहता रहा । अपने पहले कविता संग्रह की पांडुलिपि तैयार कर
उन्हीं को भेज दी थी । उन्होंने न केवल प्रकाशन संस्थान भेजकर उसका छपना सुनिचित कराया
अपितु सहृदयतापूर्वक उसकी भूमिका भी स्वयं लिखी ।
जिन दिनों कोलकाता में पदस्थापित था कविता पाठ के लिए एक
कार्यक्रम में वे पहुँचे । उसी दिन क्षमायाचना सहित आयोजनकर्ताओं का फोन
आया कि केदार जी चाह रहे हैं यहाँ जो अच्छे कवि हैं उनके साथ काव्य पाठ में अवश्य हों
। ऐसे ही जुटानों में एकाधिक बार बातों
बातों में किसी से कहते उन्हें सुना था – इनकरा सामने ना कहींला । बाकी ई नया लोगन
में हमरा सबसे बढ़िया कवि लागेलें ! उनकी इस बात से बड़ा किसी नये कवि के लिए और कोई पुरस्कार क्या
हो सकता ! भारतभूषण अगवाल पुरस्कार
समारोह में हाथ पकड़ कर वे नेमिचंद्र जी से मिलाने ले गये और स्नेहपूर्वक कहा कि
पैर छूकर इन्हें प्रणाम करो !
अंतिम भेंट कोई तीन साल पहले हुई
थी जब दिल्ली गया था । फोन किया तो बोले कब आ रहे हो मिलने ! ‘जब आपको सहूलियत हो’
ऐसा कहा तो मीठी झिड़की दी –
ऐसे नहीं । बताओ किस समय आ रहे हो । उसी हिसाब
से तो मैं तैयार होऊँगा । मिले तो आत्मकथा अवश्य लिखने का विनम्र आग्रह किया मैंने ।
बातों बातों में हँसते हुए कहने लगे - मेरे घर में सुदीर्घ जीवन की परंपरा चली आयी है । उस नाते निश्चिंत
हूँ ! काश यह अदम्य विश्वास और
जिजीविषा उन्हें कुछ और बरस जिलाये रखती और उनकी स्नेहिल वाणी में उनका स्नेहाशीष
उसी तरह मन मानस हृदय और आत्मा को संतृप्त करता रहता ! हैं तो वे अब भी हम सबके बीच ! ऐसे महाप्राण जाकर भी कब जाते । जैसा स्वयं उन्होंने है कहा
– जाऊँगा कहाँ...!
उनकी
‘जाना’ कविता मशहूर है । संभवत: हिंदी की सबसे
यादगार कविताओं में से एक । इसी शीर्षक से एक मेरी भी कविता है । ‘अखराई’ पर इस बार विनत श्रद्धांजलि स्वरूप साझा कर रहा अपनी वही कविता ‘जाना...’
- प्रेम रंजन अनिमेष
जाना...
µ
जब जाना होगा मुझे
सहसा तेज हो जायेगी मेरी याददाश्त
याद आ जायेगा कुछ
जिसकी खातिर जरूरी होगा जाना
जाना जब होगा
तो कहीं से आकर
घर से लग जायेगा रास्ता
गली में दिख जायेगी कोई सवारी
जो ऐसे कभी नहीं आती
किसी की घड़ी से चुभेंगे काँटे
मैं पूछँगा समय
जो किसी बस या गाड़ी का
हो सकता है
जब जाना होगा मुझे
देर तक नहीं मिलेगा
एक पाँव का जूता
एक बच्चे से होगा ही नहीं प्रणाम
कुछ खूबसूरती से हिलने वाले कोमल हाथ
एकदम से भूल जायेंगे सब कुछ
जाना जब होगा मुझे
ठीक उसी समय
भक्क से आ जायेगी बिजली
घूमने लगेगा पंखा
बिना शोर टपकने लगेगा पानी
रसोई से दौड़ेगी पकते खाने की गंध
लेकिन मुझे तो जाना होगा
साथ रखनी होगी
याद
रास्ते में कोई दवा लेने की
पहुँचकर एक चिट्ठी लिखने की
नहीं भूलने के लिए होगा
खयाल
सेहत और फिर कभी आने का
पर क्या इतना ही भर ?
कुछ ज्यादा तो नहीं
हो जायेगा भार ?
कितनी देर
तो
सामान ही
अड़े रहेंगे
और ठहरेंगे जब
तक
बढ़ते रहेगे
अंत में
पूछेगी वह
कुछ छूट तो
नहीं रहा ?
कोई क्या कहेगा
बस देख लेगा
कुछ के बहाने हर किसी को
फिर एक बार
रहे का क्या रहा
अगर लेता गया
सब कुछ साथ
कोई इस तरह जाते
कैसे कह सकता है
पूरे यकीन से
कि कहीं कुछ
छूट नहीं रहा...
~ प्रेम रंजन अनिमेष