‘अखराई’ में
इस बार साझा कर रहा अपनी यह रचना ‘माँओं की खोयी लोरियाँ’ । इसे अपनी तर्ज़ और आवाज़ में
रिकॉर्ड भी किया है जिसकी एक सुंदर सुरुचिमय प्रस्तुति लिंक https://youtu.be/qsyY_UuFWm8 पर उपलब्ध
है
~ प्रेम रंजन अनिमेष
माँओं की खोयी लोरियाँ...
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माँओं की खोयी लोरियाँ ढूँढो
घर में बिखरी कहानियाँ ढूँढो
मैं उजाला तलाश करता हूँ
तुम अँधेरे में सीढ़ियाँ ढूँढो
जिन किताबों को वक़्त पढ़ता है
उन किताबों की ग़लतियाँ ढूँढो
पहली बूँदें पड़ी हैं बारिश की
अपनी काग़ज़ की कश्तियाँ ढूँढो
पहले पहले चखी थीं जो चुपके
फिर वो प्यारी गिलौरियाँ
ढूँढो
मन को मैदान जैसा फैला
कर
खट्टी मीठी सी बेरियाँ ढूँढो
पंख जिनके रखे थे पन्नों में
आखरों की वो तितलियाँ ढूँढो
अबका बचपन बड़ा सयाना है
अब नयी कुछ पहेलियाँ ढूँढो
देह अब तट नहीं है सागर का
इसमें मत शंख सीपियाँ ढूँढो
सोचो कैसे जली थी पहली आग
उसकी ख़ातिर न तीलियाँ ढूँढो
खिड़कियाँ दिल की तरह
खुलती हों
कोई तो ऐसा आशियां ढूँढो
दिल ये सरकारी महकमा कोई
इसमें मत खोयी अर्ज़ियाँ ढूँढो
वो बहुत दूर जा चुका 'अनिमेष`
उसको अपने ही दरमियां ढूँढो