कविता
श्रृंखलायें रचना मुझे अच्छा लगता है । यह भी एक तरीका है लंबी कवितायें लिखने का – जिसमें हर कविता अपने आप में स्वतंत्र होते हुए एक दूसरे
से जुड़ कर एक वृहत महत श्रृंखला बनाती है और एक विषय की आधारभूमि को अलग अलग कोनों
और कोणों से परसती हुई कविता का एक व्यापक वितान रचती है । आज के दौर में संभवत: पाठकों
के लिए अपेक्षाकृत सहल होता है ऐसी रचना को पढ़ना समझना और आत्मसात करना । पिछले दिनों
दस्तावेज़ के 156 अंक में ‘नींद में कुछ
कवितायें’ श्रृंखला आयी है । इसी तरह कई कविता श्रृंखलायें हैं
मेरी... गीत श्रृंखलायें भी और मुसलसल ग़ज़लें । ऐसी ही अपनी एक श्रृंखला ‘पानी पर कुछ इबारतें’ से यह प्रस्तुति
साझा कर रहा हूँ ‘अखराई’ में इस बार
~ प्रेम रंजन अनिमेष
पानी बरस रहा है…
R
पानी बरस रहा है
मन को परस रहा
है
कौन तार सब तन के
बिन परसे कस रहा है
फूला फला है कोई
कोई हरस रहा है
इक पल साथ तुम्हारा
बरसों बरस रहा है
टूटे हुए इस दिल में
तू जस का तस रहा है
प्यार और पानी
पर
कब किसका बस रहा है
होंठ लगे होंठों से
रस रस परस रहा है
गीला
सोंधा सा जी
कैसे
रहस रहा है
रात
जगा था सूरज
अब
तक अलस रहा है
प्यास
बुझेगी सबकी
तू
क्यों तरस रहा है
रस
अनहद बतरस का
फिर
क्यों बहस रहा है
सबमें
बाँट कर सब कुछ
‘अनिमेष’ हँस रहा है
~ प्रेम रंजन अनिमेष