अविस्मरणीय |
10 अक्तूबर
2011 - आज से एक साल पहले जगजीत सिंह को हमने खो दिया था । उनकी स्मृति को नमन करते हुए ग़ज़लों का एक छोटा सा गुलदस्ता भेंट कर रहा हूँ अपनी ओर से । काश कि इन अशआर को उस पुरसोज़ आवाज़ का जादू मिल पाता ! अभी तो बस इस तसव्वुर के साथ इनसे गुज़रिये...
प्रेम रंजन अनिमेष
'एक जादू जो उतरता ही नहीं...'
ग़ज़लों का एक गुलदस्ता
(जगजीत सिंह की पहली पुण्यतिथि पर)
(
1 )
एक
जादू जो उतरता ही नहीं
एक
लम्हा जो गुज़रता ही नहीं
रात जब तक न कटे
आँखों में
ख्वाब कोई तो सँवरता ही नहीं
यूँ तो है एक
अदद तेरी भी
जिंदगी जिस पे तू मरता ही नहीं
रख लिया दर्द ज़माने भर का
दिल
का दामन है कि भरता ही नहीं
क्या दें बच्चे को भला ख़ौफे-ख़ुदा
वो
किसी और से
डरता ही
नहीं
दिल
में रहते उसे देखा ही कब
आ
के आँखों में ठहरता ही
नहीं
मुंतजिर कबसे हैं दोनों आलम
अब
कोई हद से
गुज़रता ही नहीं
कल
अगर तू ही मुझे रख
लेता
मैं
ज़माने में बिखरता ही नहीं
सच
के अंगार चुने बिन
'अनिमेष'
रंग
होंठों
का निखरता ही
नहीं
( 2 )
चला
गया जो
उसकी ख़ुशबू
कैसा है ये प्यार का
जादू
जब
भी कपड़े बदलता हूँ मैं
लगता कहीं से देख रहा तू
तेरे साथ थी मीठी कितनी
वो तपती दोपहरी की लू
हँसी तो सबमें बाँट आये
अब
अपना दामन अपने आँसू
कैसी महक फ़िज़ाओं में
है
खुले कहीं हैं तेरे गेसू
स्याह आँधियों में बढ़ती वो
बाँध ओढ़नी में कुछ जुगनू
चाहिए ऐसी दुनिया जिसमें
घुले मिले हों सबके आँसू
सबसे वहीं है नर्मो नाज़ुक
दिल
को वहाँ 'अनिमेष' नहीं छू
( 3 )
सोचने से ही सँवर जाता है
और छूते ही बिखर जाता है
मैं
जहाँ ख्वाब में भी जा न सकूँ
जाये वो छोड़ अगर जाता है
देखता हूँ तो न
दिखता है कहीं
और
मेरी आँख में भर जाता है
दुख
के प्याले न दे ऐसे भर के
रोज़ पीने से असर जाता है
शाम
घर लौट रहें हैं पंछी
दिल
ये अब देख किधर जाता है
प्यार कितनों का पसीने जैसा
अपने ही जिस्म में मर जाता है
रात
के पिछले पहर
का सपना
भोर के पहले पहर जाता है
बारिशें नाम न लें थमने का
कोई मेहमान ठहर जाता है
नये रस्तों पे नये पाँवों को
दे
के वो अपनी नज़र जाता है
खुलती पहचान उसकी जब 'अनिमेष`
पास
से कोई गुज़र जाता है
(
4 )
कितने दिन तक हम तेरे अरमां रहेंगे
जब
तलक ख़ाली है
दिल मेहमां
रहेंगे
जब सुनाने के लिए कोई न होगा
सब
सुनाने के सरो सामां रहेंगे
दिल
पे रक्खा हाथ होंठों
पर रखे लब
जिंदगी पर ये
तेरे अहसां रहेंगे
मुश्किलें जितनी बढ़ें तुम याद करना
हम तुम्हारे वास्ते आसां रहेंगे
बस्तियाँ उजड़ी हुई बस जायेंगी फिर
ये
नगर दिल के मगर वीरां रहेंगे
हे
कहानी प्यार की सदियों पुरानी
बस नये हर दौर
के उन्वां रहेंगे
हम
गुज़र कर लेंगे यारो अपनी सोचो
थे ग़मे जानां ग़मे दौरां रहेंगे
हर
जगह ख़ाली जगह अब घिर
रही है
कल कहाँ पर खेल
के मैदां रहेंगे
ठोकरें खाते रहे कब होश आया
अहले दिल नादां थे
और नादां
रहेंगे
आखि़री मंजि़ल भी ख़ुद जायेंगे पैदल
देखने वाले सभी हैरां रहेंगे
तुम
सुकूं की जिंदगी 'अनिमेष' जी लो
हम समेटे सीने में तूफां रहेंगे
( 5 )
दर्द देता रहे कोई
रह रह के
मैं जलूँ और मुहब्बत
महके
इतने सामां न जुटा दिल मेरे
कोई आयेगा नहीं फिर कह
के
आहों पे लोग यहाँ हँसते हैं
दिल
ये हलका नहीं
होगा कह के
आग पहली जली होगी इनसे
कैसे छूते ही ज़रा लब दहके
बूढ़े बच्चों को सिखाते मिल
कर
दिल
जवां हो
तो न कैसे बहके
घर
की दीवार उठाता हर
दिन
रात लग जाता हूँ उससे ढह के
टूटी कश्ती सा कभी आऊँगा
वक्त की धार में शायद बह के
पानी भी कितना
जलाता 'अनिमेष'
तेरी इन आँखों में देखा रह के
(
6 )
इस राह में पहले पहल का हमसफ़र भी है
फ़ुर्सत मिले औरों से तो इक मेरा घर
भी है
मिलने
के दिन आगे बढ़ाया कर न कुछ ऐसे
जो
साँस हम
तुम ले
रहे उसमें ज़हर भी
है
साये
हटा लेता है कैसे देख कर मुझको
कुछ आशना ये राह का तन्हा शजर भी
है
तुम देख लो ग़म कौन तुमको रास आयेगा
इक दो घड़ी का और कोई उम्र भर भी है
इस दौर में कैसे रहेगा वो किसी का प्यार
मासूम है नादान है और बेख़बबर भी है
ऐसे ही तो पत्थर ख़ुदा होता नहीं कोई
शामिल गुनाहे बेख़ुदी में मेरा सर भी है
इस
सुबह पर है शाम की रंगत
सी क्यूँ
'अनिमेष'
शब
तक मेरा था कोई कुछ उसका
असर भी है
(
7 )
कह
के फिर उसका तो
आना रह गया
घर
में दो लोगों का खाना रह गया
धीरे धीरे देह चादर हो गयी
और फिर बस ताना बाना रह गया
उसके दिल से ख़त किताबत रुक गयी
उसके घर में आना जाना रह
गया
पहली उस बारिश में जी भर
जी लिये
गीले कपड़ों को सुखाना रह गया
जाने आया आज कैसे वक्त पर
एक अच्छा सा बहाना रह गया
वो वफ़ायें ख़त्म कब
की हो गयीं
रिश्तों में खा़ली निभाना रह
गया
पल में मीलों चलने वाले रास्ते
दिल
को दिल के
पास लाना रह गया
जिंदगी चुपचाप कर दी उसके नाम
उसको लेकिन ये बताना रह गया
आबोदाना उठ गया अपने वतन
यादों का इक आशियाना रह गया
हमसे कब छूटा मदरसा इश्क़ का
नाम हाँ अपना लिखाना रह गया
रात दिन आँसू पसीना एक कर
घर बना घर को बसाना रह गया
औरों की खा़तिर जिये ताजिंदगी
अपनों को अपना बनाना रह गया
जश्न का दिन था सभी
से मिल लिये
एक अपने पास आना रह गया
राह जिसको दी उसे मंजिल मिली
क्या हुआ ख़ुद बेठिकाना रह गया
रोशनी के साथ साये चल दिये
शाम का ये शामियाना रह गया
पलकों में तारे सँजोये जागना
ख्वाब वो इक शायराना
रह गया
तेज़ तेगों की निशानी मिट गयी
नर्म होंठों का तराना रह गया
सोंधी ख़ुशबू की तरह दिल
में कहीं
गीत इक बरसों पुराना रह गया
धोखा ये इक दिन
तो होना था कभी
अबकी जो रूठा मनाना रह गया
पहली वो बातें कहाँ 'अनिमेष' बस
पहले जैसा मुसकुराना
रह गया
( 8 )
जाता है क्यूँ कर छोड़ कर
अब
मुझको किस पर छोड़ कर
किसी और को जाने कहाँ
ये दिल तेरा दर छोड़ कर
बच्चे सा पास आ जाता रोज
दर्द अपना बिस्तर छोड़ कर
मेरे पीछे ही आये कोई
जाऊँ खुला दर छोड़ कर
इक बूँद रोये आँख में
अपना समंदर छोड़ कर
लो रात जाती चाँद को
मेरे बराबर छोड़ कर
जल्दी है क्या क़ातिल मेरे
जाओ न ख़ंजर छोड़ कर
घूमा ख़ुशी का डाकिया
बस इक मेरा घर छोड़ कर
रस्ता बता 'अनिमेष` फिर
जायेगा रहबर छोड़ कर
( 9 )
अजनबी शहर में किधर जाऊँ
अब
तू कुछ कह कि मैं
ठहर जाऊँ
इतनी ऊँचाई दे मुझे ऐ दोस्त
टूट
कर हर तरफ़ बिखर जाऊँ
जैसे गुज़रें हवाएँ पानी से
तुझको छूकर मैं यूँ गुज़र जाऊँ
इसलिए आ गया हूँ आँखों में
तेरे सपनों को बोल
कर जाऊँ
हाथ
पहुँचे न जिनके दामन तक
उनकी मैं आँख
भी तो भर
जाऊँ
ढल गयी शाम लौटते पंछी
घर कोई हो तो मैं
भी घर जाऊँ
देखे दुनिया इन आँखों
से कोई
जाऊँ तो दे के ये नज़र जाऊँ
तू कहीं भी हो जिंदगी मेरी
सोच कर मैं तुझे सँवर जाऊँ
दूर इतना न ख़ुद कर 'अनिमेष'
खा़क रोये कहीं जो मर जाऊँ
(
10)
कोई अपना सा चेहरा ढूँढ़ने में
न
रह पाया किसी भी आइने में
कहीं इतने जतन से उसको रक्खा
कि
अब तकलीफ होती ढूँढ़ने में
कहाँ मौका मिला कुछ कह सकूँ भी
लगी इक उम्र उसको जानने में
बहुत कुछ जोड़ते अब लोग पहले
किसी के साथ रिश्ता जोड़ने में
ये
तेरी जि़दगी मत पूछ सबसे
है कैसी मेरी दुलहन देखने में
बढ़ा जो हाथ दुख जाता है जल्दी
न करना देर उसको थामने में
कोई पहचानता परछाईं अपनी
नये घर के पुराने आइने में
बँधे सामान खुल जायेंगे लेकिन
लगेंगे दिन बहुत दिल खोलने में
बनायेगा भला कब कोई मूरत
लगा अब तक है मिट्टी गूँधने में
मिली थी साथ की इक रात 'अनिमेष'
बिता डाली मसहरी बाँधने में
(
11 )
दिल
की ख़ुशबू कि
अमराइयाँ झूठ
हों
चाँद तारों की रानाइयाँ झूठ हों
याद
के झोंको
ने रात भर में दिये
दर्द ऐसे कि पुरवाइयाँ झूठ हों
रेशमी पैरहन में सितारों जड़े
झूठ ऐसे कि सच्चाइयाँ झूठ हों
सूनी उन आँखों में डूब
कर ये लगा
गहरे सागर की गहराइयाँ झूठ हों
एक मेला लगाता हूँ मैं दिन ढले
साये चुन
कर कि तन्हाइयाँ झूठ हों
क्या
करूँ दिल की
भोली सी इस
चाह का
रोशनी सच हो परछाइयाँ झूठ हों
अपनी
पलकों पे मुझको सजा दो घड़ी
दहर
की सारी ऊँचाइयाँ झूठ हों
माँ
की आँखों से
झरते हैं बोल
इस तरह
सूर तुलसी की चौपाइयाँ झूठ हों
सच
के होंठों से
'अनिमेष' चूम आज
यूँ
ख्वाबों के चेहरो की झाइयाँ झूठ हों
(
12 )
वो सच्ची यारियाँ कहाँ वो
राज़दारियाँ कहाँ
न
लग के दिल से
छूटती थीं वो बीमारियाँ
कहाँ
न
कहना था वो कह दिया न करना था जो कर गये
वो पहली पहली भूलों वाली यादगारियाँ
कहाँ
ये धूप का है आसमां थकान की उड़ान है
अब इन दिनों में रात की रहीं ख़ुमारियाँ कहाँ
है
जिनसे जिंदगी न कुछ
भी उनके वास्ते किया
इक उम्र में समझ में आतीं जि़म्मेदारियाँ कहाँ
न गाँवों में वो ख़ुशबुएँ
न शहरों में वो रौनकें
वो बचपनों के मेले वो जवां बजा़रियाँ
कहाँ
छतों पे खिड़कियों पे दिखती थीं
उदास उदास जो
न जाने किसके साथ होंगीं वो बिचारियाँ कहाँ
अकेला दुख में
हर कोई खुशी भी है अकेले की
हँसी में और आँसुओं में साझेदारियाँ
कहाँ
हो
कुछ किसी के पास तो सभी का काम
हो गया
वो खाते सब खुले हुए जमा उधारियाँ कहाँ
है
अब तो सीधे सीधे सब न फ़न हुनर न कोई ढब
इन उलझे तानों बानों में कसीदाकारियाँ
कहाँ
सहेजती तराशती निखारती सँवारती
ज़माने को बदलने वाली बेकरारियाँ कहाँ
अजब ये भाग दौड़ है ये छोड़ने की होड़ है
वो गहरी गहरी साँसों वाली इंतज़ारियाँ कहाँ
रगों में बहते ख़ून का ये क़र्ज़ इस ज़मीन का
अब ऐसे क़र्ज़ों
में हमारी हिस्सेदारियाँ कहाँ
दे
हाथ हाथ बाँट खुद को
पाँव पाँव चल 'अनिमेष'
उस आखि़री सफ़र में आयेंगी सवारियाँ
कहाँ
इस राह में पहले पहल का हमसफ़र भी है
जवाब देंहटाएंफ़ुर्सत मिले औरों से तो इक मेरा घर भी है
बधाईस प्रेम रेजन जी। रदीफ कफिया खूब जम रही है। - प्रदीप मिश्र
एक महान गायक जिसने नज़्मों, गीतों, गज़लों तथा भजनों को नया आयाम प्रदान किया, उसके भावप्रवण स्मरण के लिये अनिमेष को धन्यवाद !
जवाब देंहटाएं--मनोरंजन
सच के अंगार चुने बिन 'अनिमेष'
जवाब देंहटाएंरंग होंठों का निखरता ही नहीं
प्यार कितनों का पसीने जैसा
अपने ही जिस्म में मर जाता है
कितने दिन तक हम तेरे अरमां रहेंगे
जब तलक ख़ाली है दिल मेहमां रहेंगे
दर्द देता रहे कोई रह रह के
मैं जलूँ और मुहब्बत महके
टूटी कश्ती सा कभी आऊँगा
वक्त की धार में शायद बह के
तुम देख लो ग़म कौन तुमको रास आयेगा
इक दो घड़ी का और कोई उम्र भर भी है
कह के फिर उसका तो आना रह गया
घर में दो लोगों का खाना रह गया
तेज़ तेगों की निशानी मिट गयी
नर्म होंठों का तराना रह गया
इक बूँद रोये आँख में
अपना समंदर छोड़ कर
ये तेरी जि़दगी मत पूछ सबसे
है कैसी मेरी दुलहन देखने में
बनायेगा भला कब कोई मूरत
लगा अब तक है मिट्टी गूँधने में
माँ की आँखों से झरते हैं बोल इस तरह
सूर तुलसी की चौपाइयाँ झूठ हों
दे हाथ हाथ बाँट खुद को पाँव पाँव चल 'अनिमेष'
उस आखि़री सफ़र में आयेंगी सवारियाँ कहाँ
इस राह में पहले पहल का हमसफ़र भी है
फ़ुर्सत मिले औरों से तो इक मेरा घर भी है
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जग जीते जगजीत के लिये इससे बेहतर क्या हो सकता था?
बहुत बढिया
जवाब देंहटाएं