रविवार, 30 जून 2013

घन बरसे...



                                                          लंबी ग़ज़ल

घन बरसे...  
                                 
   अपने द्वारा रचित नये रागों के सृजन अनुभव को सरोद विशारद उस्ताद अमजद अली खां बड़ी ही आत्मीय अभिव्यक्ति देते हैं ...स्वर लहरियों में डूबे या उनके बारे में सोचते हुए कभी सहसा किसी अलग अनूठी सी सृजनानुभूति से साक्षात्कार होता है क्या तुम मुझे पहचानते  हो ? वह अद्भुत अनोखी कृति पूछती है  नहीं मैं उत्तर देता हूँ क्या तुम मुझे पसंद करते हो ? उसकी अगली जिज्ञासा होती है ।  हाँ मैं कहता हूँ फिर वह प्रश्न करती है - क्या तुम मुझे स्वीकार करते हो ? मैं हामी भरता हूँ... और अपनी ओर से एक नाम एक संबोधन उसे देता हूँ इस तरह वह नया राग वह नयी रागिनी संगीत के वृहत्तर संसार की एक संज्ञा हो जाते हैं...!
   कुछ इसी तरह कभी कुछ लंबी ग़ज़लें मेरे पास आयी थीं और कविता की एक विधा के रूप में मैंने उन्हें अंगीकार किया था उसी की एक बानगी इस बार अपनी डायरी के पुराने पन्नों से -  'घन बरसे...' ! इसमें सौ से कुछ ज्‍यादा शेर हैं इसका दूसरा हिस्सा अगली बार पेश करना मुनासिब होगा... क्योंकि उसमें इससे भी अधिक अशआर  हैं 
                      - प्रेम रंजन अनिमेष


घन  बरसे   मन बरसे
आँगन   आँगन  बरसे

आसमान   का   बादल
माटी  में   सन  बरसे

झूमे   हवा  खुशी  से
खेतों  में   धन  बरसे

चुनते  चुनमुन  चुरगुन
सूप से  फटकन  बरसे

तज के  लाज  अंतर्जल
तोड़  के   बंधन  बरसे

दिल  ये  जले  अकेला
सब  पर  सावन  बरसे

बना  सजा   रक्खा सब
आते    साजन    बरसे

जब   भी   पलकें  मूँदूँ
तेरा   इक  क्षण  बरसे

जी  भर कर  भीगा कर
जब   अपनापन   बरसे

करते  प्रश्न  ये  बचपन
कैसे    टन  टन  बरसे

तन  जब  हुआ अकिंचन
माणिक   कंचन   बरसे

सुख  दुख   बारी  बारी
छम छम छन छन बरसे

बेटी   के   घर  आँगन
हर  दिन  सावन  बरसे

नैन   घिरे  र्हैं   कबसे
कब   ये   बैरन  बरसे

मौन  मधुर  मिलते  ही
भर    अलिंगन   बरसे

इतने पास कि  दिल पर
उसकी    धड़कन  बरसे

मुफ़लिस  के  सपनों पर
सिक्के   खन खन बरसे

इक   तुतली   बोली  से
सब  स्वर  व्यंजन बरसे

नये  स्कूल  में  सर जी
सुन    अभिवादन  बरसे

बंद   मेरी    आँखों  में
किसकी   सिसकन बरसे

गैरत   वाला     पानी
दामन   दामन    बरसे

बजते    चूड़ी    कंगन
और    सूनापन   बरसे

गिन मत प्रथम मिलन में
कितने    चुंबन   बरसे

भीगा  यह  मन   चाहे
फिर  मनभावन   बरसे

मुँह लगते   बछड़ों   के
गायों  के   थन   बरसे

नन्हे   हाथ   बढ़े   हैं
छड़ी    दनादन   बरसे

ईद में   हामिद   भूखा
छत से  सिसकन  बरसे

भेद   जाने  रुत  ये
हर  वन  उपवन  बरसे

शाम   देर   आने  पर
बरतन  ठन ठन   बरसे

धूप  खिली है  दिन की
पलकन   अंजन   बरसे

मेरे  ही    दामन   पर
मेरा   ही   घन  बरसे

मन में  ही  भीगे  हम
तुम  मन ही मन  बरसे

स्वाद   एक  जुबां पर
व्यंजन   छप्पन   बरसे

 नाम से  उस नटखट के  
रोज़    उलाहन   बरसे

देख तो  इस  पानी  में
कैसी    सिहरन   बरसे

माटी  का   कच्चा  घर
सारा    छाजन   बरसे

कह दो  न रोके ख़ुद को
आज  भर  नयन  बरसे

कृष्ण   ही  राधा  ही
क्या    वृंदावन   बरसे

यादों   के    कुंजों  में
बिसरा   बचपन   बरसे

क्या जाने किस पर कब
भाग   अभागन   बरसे

सन  सैंतालीस  पर क्यों
सन   सत्तावन    बरसे

ढहती   हुई   सत्ता  से
पत्ते     बावन    बरसे

सीख तो  कभी कभी ही
डाँट    चिरंतन   बरसे

टूटे  जायगा   तन  कर
झुक कर  ये  तन बरसे

कल   किसने  है  देखा
आज  ही  लगन  बरसे

नूर  का  सागर  है  वो
जग  कर  रोशन  बरसे

चाँद के  गुल्लक से फिर
चाँदनी  झन झन  बरसे

सुर लय ताल का झरना
छूम छनन  छन  बरसे

उमड़ी  खुशी  सचिन के
बल्ले   से   रन  बरसे

तिरछी    हैं     बौछारें
खिड़की    रोजन  बरसे

भादो   वाली     शादी
मंडप    तोरन    बरसे

पहली  ही   बारिश  में
अंतर  तक  घन  बरसे

घर  घर   जाकर सावन
बरतन   बरतन   बरसे

धूप   में   रूप  अनूठा
खोल    पैरहन   बरसे

बादल   दिल वाला  जो
बिना   प्रयोजन   बरसे

बिन साजन  क्या सावन
अबकी  बरस   बरसे

इतने   बड़े   डगरे  से
किसका   बायन  बरसे

अँधियारे   में    सपने
हो के   निवर्सन  बरसे

एक   ठौर   पाते   ही
सौ    आमंत्रण   बरसे

बुझा  हृदय  तो  कितने
प्रणय  निवेदन    बरसे

राजा   आये   कह   दो
नभ  को   फौरन  बरसे

फिर  से  मेल के बादल
कर   समझावन   बरसे

बेसाँकल     कमरे   में
कैसी   तड़पन    बरसे

डिब्बे  गोल   हुए   सब
ख़ाली    ढक्कन   बरसे

अब्र   तेरी   रहमत  के
खेत  कर   रहन  बरसे

फिसल  अपने छिलके पर
चाचा    छक्कन   बरसे

घरनी   न  घर के  दीये
किस  पर  बाभन  बरसे

बूँद   नहीं   बस  ख़ाली
गर्जन    तर्जन    बरसे

मन  पर   धरते  पत्थर
और   कई   मन  बरसे

कह  फिर  और कहाँ यह
पतित   अपावन   बरसे

खलिहानों   में     दाने
भर दिन  झन झन बरसे

सुख   चाँदी   दुख सोना
रोज़   रतन  धन  बरसे

क़तरा  इक   नन्हा  सा
बन कर  थिरकन  बरसे

कौन    नाचकर   ऊपर
छुम छुम छन बरसे

सालों  साल  इसी  दिन
इक  जीवन  क्षण  बरसे

उजले    उजले    आँसू
दामन  से  छन   बरसे

किसका लगन  किसी पर
हल्दी    चंदन    बरसे

ऊँचे   आसन    पर  से
बस    आश्वासन   बरसे

ख़ाली   पेट  का  सपना
नींद  में   राशन  बरसे

दफ्तर में  फिर  अफ़सर
पढ़     आवेदन   बरसे

कब  तक  लाल ये बत्ती
ठिठका    वाहन   बरसे

लेकर   रात   ये  जाने
किसकी   भटकन  बरसे

भोज  बड़े  घर  में  था
सब  पर   जूठन  बरसे

दूध   नहाये   तन  पर
खुलकर   यौवन   बरसे

नाता तो  है  तन  का
पर  जुड़कर  मन बरसे

चाह  थी  दो  बूँदों की
आहन  पाहन    बरसे

पहले  से   था  परलय
और   जगतारन  बरसे

नारी  बस  भींजन  को
नर    नारायन   बरसे

कल  ताड़न की  थी जो
बन   अधिकारन  बरसे

खेल  के   लौटा  बच्चा
अटकन   चटकन  बरसे

बूढ़े   मुँह  से    गाली
या    रामायन    बरसे

भरी   हुई   लोकल  में
भजन   कीरतन   बरसे

भाग  का  छपका  टूटा
दुख  का  माखन बरसे

खुशी   ढूँढती    कारन
पीर    अकारन   बरसे

दृग  ये  करने  किसका
पद   प्रक्षालन    बरसे

माँगे  बिन   थाली  में
पीर  का  परसन  बरसे

थमे  हुए  लोचन  फिर
कर    आलोचन  बरसे

दही   नहीं   जमता  है
खाली    जोरन   बरसे

सुध में  फिर मन बिसरा
अदहन   परथन   बरसे

कल का  भूखा जी  फिर
कर  के    पारन  बरसे

थाम   हाथ   पुरवा  का
इक  घन  जबरन  बरसे

ऐसी    बारिश     जैसे
तृण तृण कण कण बरसे

एक   वही   कतरा  जो
पलकन   पलकन  बरसे

सोच  के  खलिहानों  में
दाने   झन  झन  बरसे

कभी  किसी दिन तो ये
जनसाधारण      बरसे

धूप  खोलकर  खुद  ही
हर   वातायन    बरसे

सजकर  फिर से  बनकर
धरती   दुलहन    बरसे

आते  नयी  किलक  घर
शुभ   के  लच्छन  बरसे

हाथ   जुड़े    हैं   नन्हे
धुन  जन गन मन बरसे

साझे  हों   सब   चूल्हे
फिर    अपनापन  बरसे

हटें   मौत   के   साये
हर सू    जीवन   बरसे

चैन  अमन  की  बारिश
अग जग  जन जन बरसे

जन जन के घर 'अनिमेष'
मेरा    सिरजन   बरसे


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