सोमवार, 27 जनवरी 2014

हामिद का चिमटा



इस बार  छोटी सी यह कविता   हामिद का चिमटा '  जो और कई सुधी साहित्य मर्मज्ञों के साथ साथ   वरिष्ठ कवि आलोचक  परमानंद श्रीवास्तव जी को भी  अत्यंत प्रिय थी  जिन्हें गये साल हमने खो दिया । बहुत पहले 'आलोचना' के लिए कवितायें मँगा कर सहत्राब्दी अंक 3 में उन्होंने एक साथ मेरी दस कवितायें प्रकाशित की थीं जिनमें पहली कविता यह थी । उनकी स्मृति को नमन करते हुए अपनी यह कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ

                             -  प्रेम रंजन अनिमेष


हामिद का चिमटा
                                  
संगत का
साथी हो सकता है यह
औखत पर औजार

फकीर का मंजीरा
सिपाही का तमंचा

सबसे सलोना
यह खिलौना
जो साबुत रहेगा
अंधड़ पानी तूफान में
सहता सारे थपेड़े

कविता मेरे लिए
तीन पैसे का चिमटा है
जिसे बचपन के मेले में
मोल लिया था मैंने

कि जलें नहीं रोटियाँ सेंकने वाले हाथ
कि दूसरों को दे सकूँ अपने चूल्हे की आग !


4 टिप्‍पणियां:

  1. कविता अपने समूचे मनोभाव से हामिद के चिमटे की कथा का मर्म निरूपित करने में सफल है, साठ में यह कवि की निजी अंतर्वृत्ति का भी समावेश रखती है.

    अशोक गुप्ता

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  2. कविता मेरे लिए
    तीन पैसे का चिमटा है
    ____________________

    कविता की यह परिभाषा उसकी वह ताकत बताती है जिसे सोचा भी नहीं जाता

    अच्छी कविता भाई

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  3. इतनी गहरी सोच हर कोई नहीं रख सकता.....सोच इतनी गहराई तक जा सकती है,कभी सोचा ही नहीं.....

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  4. इतनी गहरी सोच हर कोई नहीं रख सकता....सोच इतनी गहरी भी हो सकती है,कभी सोचा ही नहीं....

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